!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 40 – “जहाँ अन्धकार ही प्रकाश है” )
गतांक से आगे –
यत्र तम एव प्रकाश : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) अन्धकार ही प्रकाश है ।
****प्रेमियों का प्रकाश , परम प्रकाश तो अन्धकार ही है । प्रकाश कहाँ सुहाता है प्रेमियों को …कोई देख लेगा , छुपाना है अपने प्रेम को …इसलिए प्रकाश नही चाहिए ….अन्धकार चाहिए …तम चाहिए । ज्ञानियों को भले ही चिढ़ हो अन्धकार से …वो लाख चिल्लाते रहें – “तम से ज्योति की ओर बढ़ो”। किन्तु प्रेमियों का जगत ही अलग है …उन्हें तो अन्धकार में अपने प्रीतम को आलिंगन करना है ….उनके साथ एक होना है …..ये सब होने में प्रकाश बाधक है …इसलिए प्रेम नगर का प्रकाश अन्धकार है …..ये और अद्भुत सिद्धांत है ।
तीन गुण हैं …..सत्वगुण , रजोगुण और तमोगुण ।
सत्वगुण धूम्र रहित ज्योति को कहते हैं ..जहाँ शुद्ध प्रकाश हो ..धूएँ का नामोनिशान न हो ।
रजोगुण धूम्र के साथ की अग्नि को कहते हैं …जहाँ धूल हो …रज हो ….उसके कारण साफ़ साफ दिखाई नही दे रहा हो ।
और तम , तमोगुण कहते हैं अन्धकार को ….इसके कारण आपको सत्य दिखाई नही देगा …अज्ञान का अन्धकार आपकी आँखों को ढँक देता है ।
ये है शास्त्र की बातें ।
किन्तु हे रसिकों ! ये तो प्रेम नगर है ….यहाँ शास्त्रों की बातें कहाँ चलती हैं ….शास्त्र आदि तो परकोटे के रूप में बाहर इस प्रेमनगर की सुरक्षा में लगाये गए हैं । इसलिये यहाँ का संविधान , अलग ही है …इसे हम लोग समझते हैं । समझने का प्रयास करते हैं ।
ये बात है उन दिनों की जब पागल बाबा के साथ मैं नित्य श्रीधाम वृन्दावन की परिक्रमा लगाता था …..एक दिन मुझ को एक अच्छे विद्वान मिले ….मैंने अपने बाबा से उनका परिचय कराया ….तो बाबा बस मुस्कुराए उन्हें देखकर । उन विद्वान ने चलते हुए कहा ….”शुद्ध सत्वात्मक चित्त में ही भगवान की भक्ति उतरती है”…..बाबा इस बात पर फिर मुस्कुराए …उन विद्वान ने फिर कहा ….वो सत्वगुण रज और तम से रहित होनी चाहिए । बाबा इस बात पर हंसे ….वो बोले …किन्तु प्रेम मार्ग इस बात को नही मानता । वो विद्वान पहले चौंकें …..कि ये क्या कह रहे हैं ….फिर झेंप कर बोले ….शास्त्र वचन हैं ये । मेरे पागल बाबा बोले ….किन्तु प्रेम मार्ग का शास्त्र तो अलग ही है …..क्या मतलब ? उन विद्वान ने पूछा तो मेरे बाबा बोले …प्रेम मार्ग की आचार्या तो गोपी हैं ….और वो ऐसा नही मानतीं । उनके सिद्धांत ही अलग हैं …और इस मार्ग में चलने वालों को अपनी गुरु गोपियों की ही बात माननी चाहिए ….तभी सफलता मिलेगी ना ?
उन विद्वान ने पूछा ….आपकी आचार्या बृज गोपी जन क्या कहती हैं ?
मेरे बाबा बोले ….वो कहती हैं …रज ( धूल ) का उड़ना तो हमारे श्यामसुन्दर के आने की सूचना
है , क्या मतलब ? वो विद्वान समझ नही पा रहे थे …तो मेरे बाबा ने स्पष्ट किया कि …देखो …सन्ध्या की वेला में , गौधूली वेला में …गौ चारण करके हमारे प्रीतम आते हैं ….उस समय रज उड़ती है …..आप शास्त्री लोग भले ही उस रजोगुण को हेय बतावें …किन्तु हमारे लिए तो वही प्रीतम के आगमन का सन्देश है ….और उस रज के छा जाने से जो तम हो जाता है …यानि अन्धकार हो जाता है …वो तो हमारी प्रेम समाधि के लिए अति आवश्यक है ….क्यों कि हे पण्डित जी ! उसी रज से अन्धकार छा गया ना …और हम उसी का लाभ उठाकर भाग कर अपने प्रीतम के पास जाती हैं और उन्हें आलिंगन कर लेती हैं । पागल बाबा बोले ….हमें सत्वगुण नही चाहिए ..हमारे लिए तो रज और तम अन्धकार और घना अन्धकार ही प्रेय है । और हमारा श्रेय भी यही है ।
हे रसिकों ! प्रकाश ही अच्छा लगता है आपको ? तो प्रेम नगर से थोड़ी दूरी बनाकर रखना …क्यों कि यहाँ के लोगों का दिन तो रात है ….रात को यहाँ के लोग सुन्दर बनाते हैं …रात में ही यहाँ के प्रेमियों की साधना चलती है । दिन में सोते हैं ….दिन इनके लिए सोने के लिए होता है …और रात जागने के लिए । अपने प्रियतम को याद करते हुए रात भर चाँद को निहारना , यही तो यहाँ की साधना है । रात भर अकेले प्रीतम को याद करके रोना ….यही तो यहाँ का भजन है ।
ओस ओस सब कोई कहे , आँसु कहे न कोय ।
मों विरहिन के संग में , रैन रही है रोय ।।
ओस कहते हैं लोग …सुबह उठते हैं और धरती भिंगीं देखते हैं …तो लोग कहते हैं …ये ओस गिरा है …अरे बेकार की बातें करते हैं लोग ….मैंने तो देखा है ….मैं तो साक्षी हूँ …..ये ओस नही है …वो पगली प्रेमिन कहती है …ये ओस नही है …ये आँसु हैं …मैं रात भर छत पर रोती रही तो मुझे रोता देखकर रैंन ( रात्रि ) आयी और बोली – बहन ! क्यों रो रही हो ? तो मैंने अपनी दुःख भरी कहानी उस रात्रि को सुना दी तो सुनकर वो भी रोने लगी …ये ओस नही हैं …ये रैन के आँसु हैं ….मेरे साथ “रात्रि” रोती रही है ।
अब क्या कहोगे इसे ! सत्वगुणी के ही चित्त में भगवान प्रकट होते हैं ? नही जी ! यहाँ तो तमोगुण में …अन्धकार में ही उनका प्राकट्य होता है । अन्धकार में ही महामिलन होता है ।
एक झाँकी और निहार लो …..
कन्हैया भाग रहे हैं ….भाग क्यों रहे हैं ? इसलिए भाग रहे हैं कि मैया यशोदा उनको पीटने के लिए पीछे छड़ी लेकर आरही है …..आगे कन्हैया पीछे मैया यशोदा । भागते हुए एक गोपी के घर में ठाकुर जी चले गए ….गोपी ने देखा तो उसके आनन्द का कोई ठिकाना नही था ….किन्तु घबड़ाये हुए थे कन्हैया ….गोपी से बोले …मुझे छुपाओ । जल्दी छुपाओ । गोपी गदगद है …बोली – कहाँ छुपाऊँ प्यारे तुम्हें ? तो कन्हैया बोले …कोई घने अन्धकार का कोना बताओ ..मैं वहीं छुप जाऊँगा । तो गोपी आनंदित हो गयी …और हाथ जोड़कर बोली …प्यारे ! मैंने तो सुना था तुम प्रकाश में ही जाते हो …प्रकाश में ही मिलते हो ….किन्तु आज ये जानकर मन आनन्द से भर गया कि तुम अन्धकार खोज रहे हो ..तो वो गोपी कहती है …एक काम करो मेरा हृदय अन्धकार से भरा हुआ है ..उसमें ही जाकर छुप जाओ ना ।और ठाकुर जी उसी गोपी के हृदय में जाकर बैठ गये ।
हे रसिकों !
तम यानि अन्धकार ही इस प्रेम नगर का प्रकाश है ।
महारास तो रात्रि में ही होगा ना !
दिन के उजाले में नही , इसलिए प्रेमियों के लिए अन्धकार ही प्रकाश है ।
शेष अब कल –
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