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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 103 !!
जब ललिता सखी नें देखा…..
भाग 3
हमारा राजा अब जरासन्ध ! ओह !
श्यामसुन्दर अपनें परिवार, समाज के सहित मथुरा छोड़कर जा चुके थे………..कहाँ ? पर ये बात श्रीदामा भैया नें हमें नही बताया ।
मैं किंकर्तव्य विमूढ़ सी हो गयी थी ……..क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ?
किससे कहूँ ?
हिलकियों से रो पड़ी थी मैं ……………धरती में अपना सिर पटक रही थी मैं …………..हाय ! ये क्या हो गया ?
हम लोग वृन्दावन वाले कमसे कम ये सोचकर तो सन्तुष्ट थे कि …….मथुरा में हमारा श्याम सुन्दर है …..और मथुरा हमसे पास ही है …..हम न भी जाएँ तो क्या हुआ …….वृन्दावन के कुछ लोग हैं जो मथुरा जाते आते हैं ……उन्हीं से समाचार तो मिल जाता था कि “श्याम कैसा है” पर अब ?
हे श्याम ! हे श्याम सुन्दर ! हे प्रियतम ! हे प्राणेश !
ओह ! श्रीराधारानी की मूर्च्छा टूट गयी थी ।
मैं दौड़ी दौड़ी गयी ……..जल पिलाया उन्हें …………
ललिते ! चन्द्रावली जीजी ! कहाँ हैं ?
स्वामिनी ! आपको क्यों चाहिये चन्द्रावली ?
ललिते ! वह कह रही थीं कि ……….मैं मथुरा जाऊँगी और श्याम सुन्दर से मिलकर आऊँगी ………कह तो मुझे भी रही थीं चलनें के लिए। …..पर मैं नही जारही मथुरा …………..
मेरी ललिते ! जा ना ! बुलाकर ला ना …….जीजी चन्द्रावली को ….और उनसे पूछ ……….कि मथुरा वो जाकर आईँ हैं ! ………तो हमारा श्याम सुन्दर कैसा है ? वो ठीक है ना ? पता नही क्यों ललिते ! आज मुझे घबराहट हो रही है ………..मेरे श्याम सुन्दर कुशल तो हैं ना मथुरा में ? जा ! चन्द्रावली जीजी से पूछ कर आ ।
मैं रो गयी ……….पर आँसुओं को छुपा लिया ………क्यों कि मेरे आँसू अगर लाडिली को दींखें …….तो वो और दुःखी हो जाती हैं ।
मैने तभी देखा ………..सैनिक बदल गए थे ……….सत्ता ही बदल गयी थी ………..बरसानें में सैनिकों की जो टुकड़ी आरही थी ………पर ।
हर ग्वाल बाल के मन में यही प्रश्न अब उठ रहा था कि ……क्या सत्ता बदल गयी ? सब डरे हुये से थे भोले भाले बृजवासी ।
ललिता ! तू जा ना चन्द्रावली जीजी के पास ………और सुन उनसे अच्छे से पूछियो ……….मेरे श्याम सुन्दर कैसे हैं ?
जा ! जा ललिता जा !
मैं चल रही थी …….पर कहाँ ? मैं आगे बढ़कर रो गयी ……….और वहीं बैठ गयी।
हे वज्रनाभ ! सत्ता बदल गयी थी मथुरा की ………..आक्रमण कर दिया था जरासन्ध नें ………..और इतना ही नहीं ……….विश्व का सबसे बड़ा आतंककारी “कालयवन” को अपनें साथ में करके ……..ये और उग्र हो उठा था …………कृष्ण नें स्थापत्य कला की एक अद्भुत कृति सागर के बीचों बीच द्वारिका में बना ली थी …….रातों रात ……..इसमें देव शिल्पी विश्वकर्मा नें अपनी सेवा दी थी कृष्ण को ।
और इधर मथुरा में आधिपत्य हो गया था जरासन्ध का ………
और वृन्दावन के ये प्रेमी लोग अभी भी प्रतीक्षा में हैं कि – “कन्हाई आएगा”………………अब इनको कौन समझाये कि …….जिस कन्हाई को तुम अपना मान कर खिलाते पिलाते नचाते थे ……..वह अब द्वारिकाधीश बन चुका था ।
शेष चरित्र कल-
🦚 राधे राधे🦚
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