!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 42 – “जहाँ अनुत्तर ही उत्तर है” )
गतांक से आगे –
यत्रानुत्तरमेव प्रत्युत्तरम् ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) अनुत्तर को ही उत्तर माना जाता है ।
*मैंने उस दिन अपने पागल बाबा से पूछा था ….बाबा ! हमारे भागवत जी में लिखा है कि आसक्ति पतन का कारण है …मेरी बात को बड़ी गम्भीरता से बाबा सुन रहे थे ….मैंने कहा – किन्तु बाबा ! भागवत आगे कहती है – अगर साधु , सन्त, गुरु से वही आसक्ति हो तो वही आसक्ति मुक्ति के द्वार भी खोल देती है ? आप इस पर कुछ कहें ? मैंने पूछा तो बाबा ने मेरी ओर देखा और बस मुस्कुराये …वो समझ गये थे कि मैं कहना क्या चाहता हूँ इसलिए उन्होंने केवल मुस्कुराकर मेरी बात का अनुमोदन किया …किन्तु बोले नही ।
हे रसिकों ! ये मैंने आपको सहज उदाहरण दिया है इस सूत्र का ….कि प्रेम में , बोलकर उत्तर देने की प्रथा नही है …..यहाँ तो बस मौन हैं हमारे प्रश्न पर प्रीतम , वही मौन ही तो उत्तर है ।
क्यों कि क्या बोलें ? बोलते ही प्रेम उड़ जाता है ……
****प्रीतम आए महल में …प्रेयसी प्रतीक्षा में थी जैसे ही आये ….प्रेयसी ने देखा ….प्रीतम ने द्वार पर खड़े होकर पूछा …क्या मैं भीतर आसकता हूँ ? प्रेयसी प्रीतम को देखते ही अति आनन्द के कारण भीतर भागी ….उसने कोई उत्तर नही दिया ….ये नही कहा कि – आओ , या मत आओ …..हे रसिकों ! यही उत्तर है । प्रेम को समझना नही है …प्रेम में जीना है …और जो प्रेम में जीने लगता है ….उसके लिये शब्द महत्वपूर्ण नही होते , उसके भाव महत्व रखते हैं ।
एक दिन निकुँज में श्रीराधारानी मानवति हो गयीं ….श्याम सुन्दर मना कर हार गये , थक गये …और कुँज से बाहर जाकर बैठ गये । ललिता सखी ने देखा तो वो गयीं पास में ..और जाकर पूछने लगीं …क्या हुआ ? मानीं क्या प्रिया जू ? श्याम सुन्दर ने सजल नेत्रों से ललिता की ओर देखा बस …ललिता समझ गयी उन्होंने पूछा …आपने क्या किया था मनाने के लिए ।
श्याम सुन्दर बोले …सखी ललिते ! मैंने उनको बहुत सफाई दी …मैंने उनसे कहा …ये कृष्ण सिर्फ आपका ही है ….आप विश्वास करो । तो प्रिया जू ने क्या किया ? ललिता ने पूछा ।
कुछ नही ….शुक पिंजरे को आगे रखकर वो उसे ही देखती रहीं ..उससे ही खेलती रहीं ।
श्याम सुन्दर की बातों को गम्भीरता से सुनकर ललिता सखी बोली ….
हे श्याम सुन्दर ! अब जाओ ..और अपना अहंकार पूर्ण उतार कर जाओ ।
श्याम सुन्दर फिर गये अपनी प्यारी के निकट ….इस बार उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे …उन्होंने देखा प्रिया जू अभी भी शुक पिंजरे से ही खेल रही हैं …..श्याम सुन्दर ने हाथ जोड़े …इस पर भी प्रिया जू कुछ नही बोलीं ….श्याम सुन्दर ने कहा ….प्यारी ! मैं जैसों हूँ तिहारो हूँ” । ये सुनते ही प्रिया जू ने श्याम सुन्दर की ओर देखा …..श्याम सुन्दर चरणों में झुके हुए थे ….उसी समय प्रिया जू ने शुक पिंजरे को अपने सामने से हटा दिया । बस …श्याम सुन्दर आनन्द के कारण झूम उठे …क्यों की शुक पिंजरे को हटाना …ये इस बात का उत्तर था कि …आजाओ ..मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है ।
प्रेमियों की ये भाषा है …तो क्या ये भाषा हमें सीखनी होगी? नहीं , बस प्रेम में जीना होगा …बाकी ये सब भाषा अपने आप आजाएगी …अगर नही आरही है …तो फिर प्रेम में अभी जीना आया ही नही है ।
“मैं तुझे देखूँ , तू मुझे देख”
बोलना क्यों ? प्रेम तो संकेत से होता है ….संकेत भी मौन संकेत । उस मौन संकेत को प्रेम ही सिखा देता है ….ये प्रेम नगर की भाषा है …इस बात को बताया गया है ।
जहाँ अनुत्तर ही उत्तर है । कुछ न बोलना ही यहाँ बोलना है ।
मैं तुझे देखूँ , तू मुझे देख ,
देखते देखते हो जायें एक ।।
जब एक हो गये तो बोलना क्या ? जब एक हो गये तो उत्तर कौन दे ?
शेष अब कल –


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