महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (031)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय
तो वही ईश्वर करुणालय‘योगमायामुपाश्रितः’- वही योगमाया का आश्रय लेकर के यह रासलीला करता है। अब योगमाया का आश्रय लेकरके रासलीला करना क्या है? देखो, संसार में लोग रास्ते पर चलते रहते हैं, कोई दुकान में लगा है, कोई अपने रास्ते चला जा रहा है। लेकिन मदारी को जब खेल दिखाना होता है तो महाराज! डमरू बजाता है, खंझरी बजाता है, और लोग दुकानों में से निकल आते हैं, रास्ता चलना बन्द कर देते हैं, खड़े होकर मदारी का तमाशा देखने लगते हैं। ईश्वर जब देखता है कि ये जीव अपनी वासना के रास्ते पर चल रहे हैं, ये ईश्वर की तरफ देखते नहीं है, ये तो जहाँ पैसा मिले उसको देखते हैं जहाँ भोग मिले उसको देखते हैं, जहाँ कारखाने खुले उसको देखते हैं, जहाँ कोई काम न करना पड़े उसको देखते हैं; तो खंझरी लेकर जैसे कोई नट आ गया हो- ऐसे ये नटवर श्याम योगमाया या माया तां उपाश्रितः- योग के लिए संसार में बिखरे हुए संसार में फँसे हुए वासना के भिगोये हुए जीवों को अपनी ओर खींचने के लिए योगमाया का आश्रय ग्रहण करके नाट्यलीला- रासलीला दिखाते हैं।
अरे भाई! मजा तो हमारे पास है। तुम सुख चाहते हो? आओ, हमारे पास लो। रस चाहिए तुमको? हमारे पास लो। प्रेम चाहिए तुमको? हमारे पास लो, है। आनन्द लेकर, रस लेकर, प्रेम लेकर, संसार में भटकते हुए जीवों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए अनादि काल से बिछुड़े हुए, जन्म- जन्म से बिछुड़े हुए जीवों को अपनी ओर खींचने के लिए यह देखो- परमानन्दकन्द, नन्दनन्दन व्रजचंद, श्यामसुन्दर को जो ‘योगमायामुपाश्रितः’- माया माने कृपा-कृपा को स्वीकार करके धरती पर आया है।
हमको याद है, बचपन में जब स्कूल में, विद्यालय में पढ़ने जाते थे तो बहुत लोग वैसे तो हनुमान जी के मंदिर में न जाँय लेकिन परीक्षा का दिन आ जाए तो बोलें- हे हनुमानजी! पास कर देना। ये मतलबी यार हैं।
मतलबी यार किसके! दम लगाय खिसके ।
ये जो जीव हैं वे कोई मतलब पड़े तो ईश्वर का नाम लें और वैसे प्रगतिशील लोगों के दल में सम्मिलित हैं। आजकल तो महाराज पढ़े-लिखे लोगों के बीच में कोई ईश्वर का नाम ले तो उसका नाम बुर्जुवा हो जाता है।*
एक बहुत बड़ा नास्तिक था विलायत का। जिन्दगी भर उसने ईश्वर का खण्डन किया; अंतिम समय में जब मरने लगा तो किसी पानी के जहाज में यात्रा कर रहा है था। जहाज टूट गया और जब वह एक लकड़ी का टूटा पल्ला लेकर समुद्र में डूबने-उतराने लगा, जब लहरें उसको थपेड़ा मारने लगीं, तब बोला- हे ईश्वर! बचाओ, अब तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा आश्रय नहीं है, शरण नहीं है। यह ईश्वर डूबते के लिए सहारा है। ईश्वर से प्रीति होवे, ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। यह जो रासलीला है न, यह आस्तिक बनाने के लिए नहीं है, यह हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम जगाने की विद्या है। रासलीला पराविद्या है, ईश्वर के प्रति प्रेम जगाने वाली विद्या है। इसका फल क्या होता है अपने जीवन में? डरना मत भला। रूप गोस्वामीजी महाराज थे वृन्दावन में। उनका एक श्लोक है- हे मेरे दोस्त। तुम वृन्दावन में कभी आना तो यमुनाजी के किनारे की ओर मत जाना और अगर भूले-भटके कभी वंशी-वटकी ओर भी जाना तो गोविन्ददेव जी का दर्शन तो बिल्कलु मत करना।
गोविन्दाख्याहरितनुमित एष तीर्थोऽपिकण्ठे ।
मा प्रेक्षष्ठास्तव यदि सखे बन्धुसंगेतिरंगः ।।
यदि तुम चाहते हो कि पैसे में तुम्हारा प्रेम बना रहे, परिवार में तुम्हारा प्रेम बना रहे, संसार में तुम्हारा प्रेम बना रहे, तो उस तिरछी आँखवाले, उस मोरमुकुटधारी, उस पाँव पर पाँव रखे हुए, मुरली अधरों पर धरे हुए गोविन्ददेव का दर्शन मत करना; क्योंकि अगर उसका दर्शन करोंगे तो सब छूट जाएगा तुम्हारा, सबसे प्रेम छूट जाएगा।तो यह जो रासलीला है महाराज- वह सोते हुए प्रेम को जगाने के लिए है, दुनियाँ जो बिखरा हुआ प्रेम है उसको समेटने के लिए है, जो दूसरे में लगा हुआ है उसको ईश्वर की ओर खींचने के लिए है। श्रीराधास्वामी ने अपनी टीका मं लिखा है- वस्तुतो निवृत्तिपर्य पञ्चाध्यायी- ये रास- पञ्चाध्यायी संसार में प्रवृत्त करने के लिए नहीं है, निवृत्त करने के लिए है। इसका अर्थ क्या हुआ? यह नहीं कि आप भी घाघरा पहनकर नाचने लगे जाय बल्कि रास-पञ्चाध्यायी सुनकर कटिकाछनी पहनकर मुरलीमनोहर आपके हृदय में नाचने लगे और आपका नाचना बन्द हो जाय, यह इसका फल है।*
कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय
संसार में आपका जो नाचना है उस नाचने को बंद कर देता है और मुरलीमनोहर को हृदय में नचा देता है। संसार की वासना को मिटा देता है, यह कामना को मिटा देता है, क्रोध को मिटा देता है, लोभ को मिटा देता है। योगमायामुपाश्रितः योगाय अनादिकालतः वियुक्तानां जीवानां स्वस्मिन् योगाय या माया कृपा तां उपाश्रितः – अनादि काल से संसार में जो भटकते हुए जीव हैं, ईश्वर से विमुख हुए जीव हैं, बिछुड़े हुए जीव हैं जब उन्होंने वदे की आज्ञा से कि-अमुं यज-अमुंयज- ईश्वर की उपासना करो, भगवान का भजन नहीं किया तब मत्स्य, कच्छप, वराह, नृंसिंह वामन बनकर भगवान आये और लोगों ने तब भगवान का भजन नहीं किया; जब लाख-लाख संतों को भगवान ने संसार में भेजा और उनकी आज्ञा मानकर लोगों ने भजन नहीं किया- बोले- हाँ-हाँ भगवान की भक्ति बहुत अच्छी है, लेकिन हमस बनती नहीं; तब भगवान ने कहा- अब मैं स्वयं चलूँगा और नाचकर, गाकर बजाकर, नैना चमकाकर, मन्द-मन्द मुस्कराकर, पाँव से ठुमुक-ठुमक नृत्य करके लोगों के मन को अपनी ओर खीचूँगा। इसलिए अपने हृदय में अनन्त करुणा धारण करके संसार में भटके हुए जीवों को अपनी ओर खींचने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया आश्रय लिया।
योगमायामुपाश्रितः का अनेक भाव महात्माओं ने निकाला है। एक रामनारायण मिश्र हुए हैं- अभी नये नहीं, पुराने उन्होंने अयोगमायामुपाश्रितः, योग मायामुपाश्रितः, यो अगमायां उपाश्रितः यो गमायां उपाश्रितः ऐसे करके केवल- योगमायां उपाश्रितः इसी को चौंसठ प्रकार से उन्होंने व्यक्त किया है। जब भगवान ने संकल्प किया- ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ हम विहार करेंगे, तो मन बन गया, जब मन बन गया तो सबसे खुशी एक व्यक्ति को हुई संसार में; वह था चंद्रमा। क्यों? तो आप जानते हैं जब राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति हुए, तो भारतवर्ष भरके कायस्थों ने खुशी मनायीं कि हमारी जाति का राष्ट्रपति हुआ है। लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधान मंत्री हुए, तब श्रीवास्वत धन्य हो गये। क्यों? इतना बड़ा आदमी हमारा रिश्तेदार! तो संबंध जोड़ना है तो भगवान के साथ संबंध जोड़ो- दुनिया के सब संबंध फीके पड़ जाएंगे। जब भगवान ने मन बनाया, तो मन का देवता है चंद्रमा। उसने कहा कि मैं सबके मन का देवता तो रहा, परंतु भगवान के तो मन ही नहीं; भगवान के मन का देवता मैं कैसे बन सकता था। तो आज हमारा सौभाग्य है, आज हमारे भाग जागे कि भगवान ने रासलीला करने के लिए, विहार करने के लिए मन बनाया।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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