!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 44 – “जहाँ अन्धा ही आँख वाला है”)
गतांक से आगे –
यत्राचक्षुष एव सहस्रचक्षुष : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) अन्धा ही हजार आँख वाला है ।
*बाबा ! मुझे मेडिटेशन सिखाइये । पागलबाबा से उन दिनों थोड़ा मुँह लगा हुआ था मैं ।
प्रातः पाँच बजे यमुना स्नान करके हम लौट रहे थे ….ये प्रश्न मैंने वहीं किया था ।
बाबा हंसे …..शायद मेरे मुख से ये ‘मेडिटेशन’ शब्द सुनकर ।
उन्होंने उन्मुक्त हंसते हुए इन शब्दों को भी दोहराया ..’मेडिटेशन’। मैंने फिर बाबा से कहा ….प्रेम का ध्यान क्या है वो बताइये ।
बाबा चलते हुए ही मुझ से बोले…..तुम तो भागवत की कथा कहते हो ….फिर भक्ति का ध्यान मुझ से क्यों पूछ रहे हो ? मैं कुछ कहता उससे पहले ही बाबा बोले ….भागवत में “वेणु गीत” है ना …वही प्रेम योग का ध्यान है । मैं स्तब्ध था । उन्होंने फिर आगे कहा …गोपियाँ जो वर्णन करती हैं “वेणु गीत” में …वो देखकर तो कर नही रहीं ….क्यों की उस समय तो श्रीकृष्ण वन में जा चुके हैं ….गौचारण के लिए । तो गोपियाँ घर में अपना काम निपटा लेती हैं ….फिर बैठ जाती हैं आपस सब । उनका ध्यान शुरू हो जाता है ….बाबा फिर मेरी ओर देख कर पूछने लगे ….अच्छा बताओ …वेणु गीत क्या है ? गोपियाँ क्या कहती है उसमें ?
मैंने वेणु गीत के कुछ श्लोक गा कर सुनाये , फिर बाबा ने मुझे उनका अर्थ बताने के लिए कहा ।
मैंने कहा – गोपियाँ कहती हैं …आहा ! नेत्रों की सफलता तो इन श्रीधाम वृन्दावन के वन्य जीवों ने प्राप्त कर ली है , हमारे नेत्र हैं …किन्तु ऐसे नेत्रों का होना भी न होने के समान हैं …क्यों ? क्यों की सखी ! जिन नेत्रों ने मुरली मनोहर के दर्शन नही किये, वो तो अन्धे ही हैं । मैं भाव में वेणु गीत बोल रहा था तो बाबा वहीं एक शिला पर बैठ गये, और मुझे संकेत किया कि तुम बोलते रहो ।
गोपियाँ कहती हैं …जब ये नेत्र श्यामसुन्दर को देखते हैं ना …तो ये दो नही रह जाते … हजारों नेत्र बन जाते हैं ….देखों इन पक्षियों को …श्रीवृन्दावन के पक्षियों को ….कैसे पागल से हो गये हैं श्याम सुन्दर को देखकर …चहकना भी छोड़ दिया है ….तो दूसरी सखी कहती है …दो नेत्रों से ही ये नही देख रहे …इनके तो हर अंग चक्षु बन गये हैं ….तो तीसरी गोपी तुरन्त कहती है ….जंगली भीलनियों को भी देख लो ….अंधी तो हम हैं ….क्यों कि श्याम सुन्दर को नही देख पा रहीं ….भीलनीयों को देखो …..( यहाँ मैंने बाबा से कहा , ये गोपियाँ घर में हैं …किन्तु मन इनका वहीं श्याम सुन्दर के पास जा चुका है ) एक भीलनी श्याम सुन्दर को देख लेती है ..नेत्रों से उस रूप सुधा का पान कर लेती है …किन्तु तभी अतिप्रेम के कारण उसकी आँखें बन्द हो जाती हैं …वो गिर पड़ती है । किन्तु गोपी कहती है …दो आँखें बन्द हो गयीं , भीलनी की आँखें बन्द हो गयीं ….तो क्या हुआ ? अन्य आँखें तो उसकी खुल गयीं …. ( यही तो , प्रेम नगर में जो अन्धा हो जाये उसी की हजारों आँखें खुल जाती हैं ) कृष्णरूप में पागल हुयी वो भीलनी उस रूप को देखकर नयन को तो मूँद लेती है …किन्तु अब उसका रोम रोम नयन बन कर प्रकट हो जाता है ।
मैंने बाबा से कहा …..बाबा ! गोपियाँ कहती हैं ….उन भीलनी के नासिका भी नेत्र बन गये हैं …वो नासिका से सूंघ मात्र नही रहीं , जो सुगन्ध घ्राण शक्ति से वो ले रही है….उसी से वो मन के द्वारा दर्शन भी कर रही है …सुगन्ध को सूंघते ही मन में मुरलीमनोहर का चित्र उभर रहा है …..उसी समय बाँसुरी और बजा दी श्याम सुन्दर ने । अब तो कान भी नेत्र बन गये हैं …बाँसुरी जैसी बज रही है …वैसा ही श्याम सुंदर , मन में वो श्याम सुन्दर प्रकट हो रहा है । उसी को देख रही हैं वो भीलनियाँ । गोपियाँ आगे कहती हैं ….भीलनी ही क्यों , हिरणियाँ भी देख रहीं हैं …हिरणी तो श्याम सुन्दर के रूप को देखकर नयनों को मूँद लेती है …फिर अपने रोम रोम के चक्षुओं से श्याम सुन्दर को मन ही मन निहारती है ।
वृक्ष दर्शन कर रहे हैं श्याम सुन्दर के , श्रीवन की लताएँ श्याम सुन्दर को देखकर मुग्ध हैं ।
वृक्ष कैसे देख सकते हैं ? लताएँ कैसे देख सकती हैं ? इनके तो नेत्र ही नही हैं ।
इसका उत्तर गोपियाँ ही देती हैं…..अरी वीर ! जो नेत्र वाले हैं वो तो यहाँ अन्धे हैं …जिनके नेत्र नही हैं …उन्हीं के हजारों नेत्र हैं , वही हजारों नेत्रों से इनकी रूप माधुरी का पान कर रहे हैं । हमारे नेत्र हैं किन्तु व्यर्थ हैं …हम यहाँ बैठी हैं …वन विहार की उनकी जो अद्भुत झाँकी है वो हम कहाँ देख पा रही हैं ! तो दूसरी सखी कहती है …ठीक ही है …वहाँ होतीं तो भी ये नेत्र भाव के कारण बन्द ही होने थे …और जब ये नेत्र बन्द हों तभी रोम रोम नेत्र बन जाता है ।
हाँ सजनी ! सच कह रही हो ….तभी तो ये यमुना भी बाबरी हो गयी है ….क्यों कि इसने भी निहार लिया है अपने सहस्र नेत्रों से अपने प्रीतम श्याम सुन्दर को । गिरिराज पर्वत को भी देखो ! वो भी कैसे रोमांचित हो रहा है …मैं तो कहूँगी यही “हरिदास वर्य” है ।
गोपियाँ आगे कहती हैं –
अरे ! हमारे श्याम सुन्दर का प्रभाव पृथ्वी में ही नही है …ऊपर देखो आकाश वासियों को भी इसने पागल बना दिया है ….स्वर्ग की अप्सराएँ पगला गयीं हैं …मोर मुकुट धारी को देखकर …इनके भी दो नेत्र बन्द हो गये हैं ….विमान में गिर गयीं हैं ….देह सुध नही है । इनकी चोटियों से फूल झर रहे हैं ….वो सीधे श्याम सुन्दर के ऊपर ही गिर रहे हैं । देखो देखो सखियों ! उन अप्सराओं का अब रोम रोम नेत्र बन चुका है….और अपने रोम रोम , अंग अंग से श्याम सुन्दर को ये निहार रही हैं ।
पागलबाबा मेरे द्वारा “वेणु गीत” सुनकर आनंदित हो गये थे । वो उठे और चलते हुए बोले …यही है मेडिटेशन प्रेम का , प्रेम का ध्यान यही है । चलते चलते बाबा बोल रहे थे …कभी अकेले बैठो तो ये सोचो , एकाएक सोचो , कि हमारे श्याम सुन्दर अभी क्या कर रहे होंगे ? बाबा मेरी ओर देखकर फिर पूछने लगे इस तरह कभी सोचा है ? फिर मुझ से उन्होंने पूछा ..अभी कितने बजे हैं ? मैंने कहा छ बज गये हैं । तो बाबा बोले …मंगला आरती निकुँज में हो गयी है …अब सखियाँ युगल सरकार को वन विहार में ले जा रही हैं ।
हे रसिकों ! इन प्राकृतिक नेत्रों का कोई महत्व नही है उस प्रेम देश में …अत्यधिक प्रेम के कारण जब ये नेत्र बन्द हो जाते हैं ….तब प्रेम नगर में कुछ दिखाई देता है …फिर तो वही हजार आँख वाला बनकर अपने प्रीतम को निहारता है । अगर ये चर्मचक्षु खुले हैं ..तो आप प्रेम नगर में कुछ देख नही पाओगे ..प्रेम नगर में वही देख पाता है जिसकी ये आँखें बन्द हो गयीं हों ।
शेष अब कल


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