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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 104 !!
गहवर वन में जब “रात” ठहर गयी…
भाग 2
रंग देवी ! कहाँ हो तुम ? मैं यहाँ अकेले ? रात हो रही है !
ओह रंग देवी ! पता नही क्यों मुझे रात्रि से डर लगता है …..मैं डरती हूँ ……..क्यों की रात्रि को मेरा उन्माद बढ़ जाता है …………और रात्रि का समय कटता भी नही है ………..काटे नही कटता ।
मैने अपना हाथ दिया……….मेरे हाथों को छूते हुए –
मेरी सखी रंगदेवी ! सुना ! तुमनें सुना ! मेरे श्याम कुछ कह रहे हैं !
आहा प्यारे ! तुम्हारी इच्छा पूरी हो …………….
मुझसे कह रहे हैं मेरे प्राणेश ……..कि राधे ! बहुत दिनों से मैने वीणा नही सुनी है …….मुझे वीणा सुना दो …………..
रंगदेवी ! अपनें प्रिय कि बात न मानना ये तो अपराध होगा …….
जाओ ! मेरी वीणा ले आओ ………..आज मैं इस गहवर वन में फिर वीणा बजाऊंगी ……………मेरे पिय भी प्रसन्न होंगें और उनकी प्रसन्नता में मेरी ही तो प्रसन्नता है ।
देख रंगदेवी ! ये वृक्ष भी सुनना चाहते हैं मेरी वीणा को ……..ये लताएँ…..और ये मोर भी…….जाओ रंगदेवी ! मेरी वीणा ले आओ ।
पर रात हो गयी है …….आप महल नही चलेंगीं ?
क्या रात यहीं बितानी है ?
हँसी श्रीराधारानी ………….मुझे नींद आती कहाँ है ? मुझे तो लगता है कि ये रात होती क्यों है ! दिन ही हो तो ठीक है ।
अब तू जा …….और मेरी वीणा ले आ ………..आज रात भर मैं वीणा सुनाऊँगी अपनें श्याम सुन्दर को ।
मैं क्या करती ……..श्रीजी की आज्ञा का पालन ही हमारा धर्म था ।
मैं वीणा लेनें चली गयी थी महल में ।
गहवर वन……….घना वन है …..मध्य में सरोवर है ……….चाँद खिला है ………पूर्णता से खिला है…….मानों वह भी तैयार होकर आया है वीणा सुननें के लिये……….लताएँ झूम उठीं थीं तब, जब श्रीजी नें वीणा के तारों को झंकृत किया था ।
आह ! हृदय विदीर्ण हो जाए…….ऐसा राग छेड़ा था श्रीप्रिया जू नें ।
अपनें आपको भूल गयीं थीं वीणा बजाते हुये ………अश्रु बह रहे थे नयनों से …………बहते बहते कंचुकीपट को गीला करनें लगे थे ।
मोर शान्त होकर श्रीराधारानी के पीछे खड़े हो गए ………
कोई कोई मोर तो अश्रु बहानें लगे थे ………..पक्षी भी श्रीराधा की विरह वेदना को अनुभव कर रहे थे …………..
पर ये क्या ? वीणा बजाते बजाते रुक गयीं श्रीराधारानी ………
और अपनें बड़े बड़े नयनों से चन्द्रमा की ओर देखा था ।
हे स्वामिनी ! क्यों वीणा को रोक दिया ? बजाइये ना ?
रंगदेवी नें प्रार्थना की ।
चन्द्रमा रुक गया रंगदेवी ! मेरी वीणा सुनते हुए ये रुक क्यों गया ?
ये क्या कह रही थीं ? मैं चौंक गयी ……मुझे घबराहट होनें लगी ।
आपको क्या हो गया एकाएक ? मैने पूछा ।
मुझे क्या होगा रंगदेवी ! हुआ तो इस बाबरे चन्द्रमा को है ।
श्रीराधारानी नें रँगदेवी से कहा …………और फिर बड़े गौर से चन्द्रमा को देखनें लगीं ।
ओह ! चन्द्रमा नही रुका रंगदेवी ! अब मैं समझी………..चन्द्रमा को चलानें वाला जो हिरण है ना वो रुक गया है …….देख !
हाँ अब समझी मैं रंगदेवी ! हिरण को तो वीणा की ध्वनि मुग्ध कर देती है ना…….हाँ मेरी वीणा सुनकर ये चन्द्रमा में काला काला जो दिखता है यह हिरण ही तो है…….जो इस चन्द्रमा को खींचकर चलाता है ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
👏 राधे राधे👏


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