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August 1, 2025 3:41 am

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-!! मूर्तिमान श्रृंगार रस – “गोपिकागीतम्” !!-भाग 2 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्-!! मूर्तिमान श्रृंगार रस – “गोपिकागीतम्” !!-भाग 2 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्

!! मूर्तिमान श्रृंगार रस – “गोपिकागीतम्” !!

भाग 2

मानों श्रीजी से वार्तालाप हो रही है श्यामसुन्दर की ………

हाँ, हाँ हमें पता है …..प्यारे ! हमें सब पता है ……….पर क्या करें ! तुम्हे जादू जो आता है ………….उसी जादू नें तो हमें फाँस लिया …..और हम फंस गयीं………देखो ! आज हमारी स्थिति !

फिर कुछ देर रुक कर श्रीजी हँसती हैं ………………

श्याम सुन्दर ! और जादूगर तो एक ही जादू में पारंगत होते हैं …….और उसी से अपना काम चलाते हैं ……..पर तुमको तो जादू ही जादू आते हैं …………पहला जादू – मधुर बोलते हो ……..कुछ ज्यादा ही मधुर …..

मीठा ही नही……….उसमें नशा भी होता है ………जो सुनें उसे मीठा भी लगे और वो सबकुछ भूल कर तुम्हारा हो जाए ……….अद्भुत जादू जानते हो सखे ! श्रीराधा जी भाव में डूबी हुयी बोलती हैं ।

और केवल मधुर ही नही बोलते …….उस बोलनें में भी सुन्दर शब्द रचना तुम्हारी होती है ……….रस से भरी हुयी ……अलंकार से मिश्रित …………नही नही हम स्त्रियों को ही मोहित करनें वाली वाणी नही है तुम्हारी …..प्रिय ! बड़े बड़े बुधजन भी…..बड़ेबड़े बुद्धपुरुष भी मोहित हो जाएँ ऐसी वाणी है यार ! तुम्हारी । ये अद्भुत है तुममें गुण प्रियतम !

तो ? खिलखिलाते हुये श्याम सुन्दर लापरवाही से बोले ।

वाह ! हम मर रही हैं तुम्हारे वियोग में …..और तुम हँस रहे हो !

क्यों कटे पर नौंन छिडक रहे हो प्यारे ! वैसे ही हमारा हृदय घायल है ……..उसपर क्यों अपनी मुस्कुराहट की पैनी छुरी चला रहे हो ……

तो ? अरे ! आओ और हमें जिन्दा करो …………हम तो मर गयीं हैं ।

कैसे जिन्दा होओगी ? श्याम सुन्दर मानों पूछ रहे हैं ।

“हमें जीवन दान मिलेगा ……..अपनें अधरामृत का पान कराओ”

श्रीजी बोल उठीं ।

और ये अधर तुम्हारे जो हैं ना …….इसी में हमारे प्राण बसते हैं …….इनको पान करके ही हम जीवित रह सकतीं हैं …………

अधर ! आहा ! ये जो तुम्हारे अधर हैं ……..और पता है प्यारे ! इन अधर तक कोई कैसे पहुँचता है ……..सारे धर्मों को पार करना पड़ता है ………लौकिक धर्म ……और पारलौकिक धर्म …..दोनों धर्मों को त्यागना पड़ता है …….स्वर्ग नर्क को ठोकर मारना पड़ता है ………..पाप पुण्य की होली जलानी पड़ती है……….और उस भस्म में स्नान करके तब प्यारे ! तुम्हारे ये अधरामृत प्राप्त होते हैं………अधर हैं ये ………ये सामान्य नही हैं ……ये धरा का अमृत नही है….ये पृथ्वी का अमृत नही है…जो नाशवान है…….जिनसे बड़ेबड़े प्रेमी होनें का दम्भ करनें वाले भी कुछ दिनों में ही बोर होकर छोड़ देते हैं …………..ये तो भगवद्रुप अमृत है ……….इसे सब कहाँ पी पाते हैं ……देवता भी स्वर्ग का अमृत पीते हैं ……पर वो भी लौकिक अमृत है ……पर ये ? ओह! प्यारे ! ये तो अधरामृत हैं …………अलौकिक अमृत ………..इसे पिलाओ हमें तभी हम जीवित होंगीं, नही तो हम तो गयीं ।

श्रीराधारानी इतना ही बोल पाईँ और फिर मूर्छित हो गयीं थीं ।

*शेष चरित्र कल –

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