महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (033)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
कृपायोग का आश्रय और चंद्रोदय
भगवान तो क्या, हम लोग भी अफवाह, प्रवाद उड़ा देते हैं कि हा, हा, हम भी भगवान का मजा ले रहे हैं। और हमको अपनी इसमें बड़ी प्रतिष्ठा मालूम पड़ती है, इज्जत मालूम पड़ती है। एक हमारे साधु हैं, बिहार में रहते हैं। जब किसी मिनिस्टर के घर में ब्याह हो, जनेऊ हो, होम हो, तो वहाँ पहुँच जाते हैं। फोटोग्राफर अपने साथ ले जाते हैं और जाकर- ‘आओ! आओ बेटा आओ। आओ बेटा आओ। करके मिनिस्टर के सिर पर हाथ रख देते हैं और फोटो खिंचवा लेंगे बाद में जाकर दिखावेंगे कि देखो- ये मिनिस्टर हमको नमस्कार करते हैं। उनके पास सबके फोटो हैं- राष्ट्रपति राधाकृष्णन के हैं, राजेंद्र बाबू के हैं, नेहरूजी के हैं।’
तो देवता लोग कृष्ण के साथ झूठा संबंध होने पर भी अपने को धन्य मानते हैं। एक गोपी थी व्रज में- ऐसी गोपी थी कि और सबको तो कृष्ण के साथ संबंध लगाकर कलंक भी लगता था परंतु इसके बारे में कभी ऐसी बात नहीं चलती थी। अब उसको बड़ा दुःख हो, कि हे भगवान। सब लोग यही कहेंगे कि यह इतनी अभागिन है कि कृष्ण इसकी ओर देखते नहीं, इसका कृष्ण से प्रेम नहीं. एक दिन क्या हुआ- भाद्र शुक्ल चतुर्थी थी- उसदिन सायंकाल चौथा का चंद्रमा देखना वर्जित है वरना मिथ्या कलंक लगता है। परंतु वह गोपी शाम को बाहर निकली और घर के बाहर जाकर चंद्रमा की ओर देखे और अर्घ्यदान करे। चतुर्थ्य-निशाशशांक- प्रार्थना की- ‘हे चतुर्थी के चंद्रमा! हमारे ऊपर कृपा करो, अनुग्रह करो।
शास्त्र में जो तुम्हारे दर्शन का फल लिखा है सो हमको मिले।’ इतने में नारदजी वहाँ आ गये- वीणा बजाते, हरिगुम गाते। उन्होंने पूछा- अरी ओ ग्वालिनी। क्या कर रही है? आज तो कोई चंद्रमा की ओर देखता नहीं है और तू अर्घ्य दे रही है और चंद्रमा से प्रार्थना कर रही है। बोली- महाराज। चुप रहो, भले मैं इतनी अभागिनी रहूँ कि ये श्यामसुन्दर हमारी ओर न देखें और भले मेरी आँखें इतनी अभागिनी रहें कि ये श्यामसुंदर की ओर नहीं देख पाती हैं; गाँव में बस मैं ही ऐसी अभागिनी हूँ कि कृष्ण के साथ मेरा कलंक नहीं लगा; तो मैं चंद्रमा को देखकर अर्घ्य दे रही हूँ कि हमको सच्चा न सही, झूठा ही कलंक कृष्ण के साथ लग जाय, तो हम छाती तानकर गाँव में निकलेंगी कि तुम्हीं लोग सुन्दरी नहीं हो, मैं भी हूँ, तुम्हीं लोग प्रेमिका-प्रेयसी नहीं हो, मैं भी हूँ!
मिथ्यापवादवचसाप्यभिमानसिद्धि।
यदि गाँव में कृष्ण के साथ मिथ्यापवाद मुझे लगेगा, तो हमें अभिमान होगा कि वाह! वाह! में भी सुन्दरी हूँ, तब लोग कृष्ण के साथ कलंक लगाते हैं! आप फिर अपने प्रसंग पर आ जाओ। व्रजवासियों के साथ ब्रह्मा, इंद्र, चंद्र, रुद्र आदि देवता अपना झूठा संबंध बना करके अपने को कृष्ण के पास पहुँचाना चाहते हैं। झूठ-मूठ, लोग चाहते हैं कि कृष्ण के साथ झूठा कलंक भी लग जाए! जब श्रीकृष्ण चंद्र के मन में रमण का, विहार का संकल्प उदय हुआ, मन आया, तब चंद्रमा ने कहा- कि हम तो मनके देवता बनेंगे। जब मन हुआ तो चंद्रमा जरूर रहेगा। मन बनता है औषधि वनस्पतियों से जैसा अन्न वैसा मन। और औषधि वनस्पतियों के राजा चंद्रमा हैं, जब चंद्रमा शैत्य बरसाते हैं, अमृत बरसाते हैं तब जौ में गेहूँ में, अंगूर में अनार में शक्ति का संचार होता है। और वही अन्न जब आदमी खाता है तब मन बनता है। तो जैसे चंद्र देवता का अनुग्रह अन्न द्वारा मन पर है; तब मन में संकल्प करने की शक्ति आती है, इसलिए मन का देवता है चंद्रमा।
तो बोले भाई। अन्न से यदि मन बना हो तब त उसका देवता चंद्रमा हो और भगवान् का मन तो अन्न से बना ही नहीं है, वह तो बिलकुल सच्चिदानन्दघन ही है। तो वहाँ चंद्रमा कहाँ से आयेगा? चंद्रमा ने कहा- भले श्रीकृष्ण का मन अन्न से न बना हो; परंतु उनके मन का नाम मन है कि नहीं? हम मन पर अपना दावा रखते हैं, जहाँ मन होगा वहाँ चंद्रमा होगा। बोले- अरे, भगवान् का मन अप्राकृत और तू प्राकृत चंद्रमा वहाँ कैसे पहुँचेगा? कहाँ- पहुँचे चाहे न पहुँचे; हमने युक्ति निकाल ली है। क्या? कि ठीक उसी समय जब भगवान् का मन उदय हुआ, उसी समय हम भी उदय हो जाएंगे। लोग कार्य कारण संबंध जरूर जोड़ लेंगे। दुनिया में हमारी प्रसिद्धि भी हो जाएगी।
तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।
सचर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन् प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः ।।
बड़ा अद्भुत है। इस श्लोक में कितनी बातें ऐसी हैं कि जो भरी सभा में लोगों के बीच में कहने पर अगर वे लोग उसको ठीक न समझें तो उसका मतलब उलटा पकड़ जाएंगे। वक्तुरेव हि तज्जाङ्यं श्रोता यत्र न बुध्यते- अगर कोई बात श्रोता के समझ में न आवे तो वक्ता की जड़ता है।
तदोडुराजः- यहाँ ‘उडुराज’ शब्द एक तो चंद्रमा का वाचक है- उडुषु उडुगणेषु नक्षत्रेषु राजते इति उडुराजः उडूनाम् राजा, उडुराजः। दूसरे उडुराज माने श्रीकृष्ण ही हैं स्वयं। कैसे? उरुषु राजते इति उरुराजः; उरुषु गोपी- जनेषु- बहुत सी गोपियों में जिनकी शोभा हो, उनका नाम ‘उरुराज’- उडुराज. तो उडुराज चंद्रमा नहीं, कृष्ण चंद्रमा हैं। सफेद चाँद नहीं है, काला चाँद है। अद्भुत है यह तो, सब चंद्रमा-सूर्य का तिरस्कार करने के बाद यह काला चाँद मिलता है। काला चाँद इसको बोलते हैं, श्यामचंद्र-श्यामात् शबलं प्रपद्ये, सबलात् श्यामं प्रपद्ये अरे बाबा इस कृष्ण से प्रेम हो जाय न, सबनिधि मिल गयी। अच्छा एक बात आपको और बतावें अज्ञान के नाम प्रेम नहीं है। पत्थर को अज्ञान है तो क्या वह किसी का प्रेमी होता है? आप जिस समय बिल्कुल अज्ञानदशा में रहेंगे, किसी को जानेंगे ही नहीं, तो क्या आपको प्रेम रहेगा? किससे प्रेम रहेगा? अज्ञान का नाम प्रेम नहीं है। जरा कभी ध्यान देना तब मालूम पड़ेगा। प्रियता विशिष्ट उल्लासात्मक ज्ञान का नाम प्रेम है। जहाँ ज्ञान नाचता है, जहाँ ज्ञान में उल्लास होता है वहाँ प्रेम है। नृत्यात्मक ज्ञान का नाम प्रेम है, नाचते हुए ज्ञान का नाम प्रेम है, उल्लासात्मक, सुखात्मक, रसात्मक, प्रियताविशिष्ट ज्ञान का नाम प्रेम है। ज्ञान के बिना न धर्म हो, न भक्ति हो, न प्रेम हो। ज्ञान तो रोशनी है, प्रकाश है। परंतु जैसे सूर्य की रोशनी में पत्नी भी दिखती है, बेटा भी दिखता है, गुरुजी भी दिखते हैं और इष्टदेव भी दिखते हैं, रोशनी तो सबमें है; पर वह ज्ञान जो प्रियता के संस्कार से संस्कृत होकर और उल्लसित हो रहा हो, जैसे गंगाजल में मन्दमन्द तरंग उठ रही हो, ऐसे उल्लासात्मक ज्ञान का नाम प्रेम है। इसकी कई भूमिका होती है। उरुधा राजते इति उडुराजः- यह कृष्ण बहुरुपिया है, तरह-तरह का रूप बनाता है। कैसे? कि श्रुति कहती है:
तदेजति तत्रैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ।।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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