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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 107 !!
ग्वाल सखाओं के मध्य बलराम ..
भाग 1
मैं श्रीदामा ………..
राधा का बड़ा भाई………….राधा मुझ से छोटी है ।
पता नही और कितना कष्ट लिखा है हम वृन्दावन वालों के भाग्य में !
और यही कष्ट शताधिक गुना बढ़ जाता है तब, जब मैं अपनी बहन राधा को देखता हूँ……वर्षों हो गए कन्हैया के गए हुए……मुझे याद नही है कि मेरी बहन कभी सोई भी हो ……….निरन्तर कन्हैया के लिये रोती रहती है …………मैं ज्यादा इसके पास जाता नही हूँ ……..क्यों की उसे संकोच होता मुझे देखकर …..तुरन्त अपनें आँसुओं को पोंछ लेती है …..और मुस्कुरानें का जबरदस्ती प्रयास करती है ………श्रीदामा भैया ! उठ नही पाती फिर भी गिरते हुए उठती है …………..पर मैं ऐसे अपनी बहन को देख नही सकता …………तुरन्त चल देता हूँ ।
महर्षि भी क्या क्या कहते रहते हैं ……………महर्षि शाण्डिल्य कह रहे थे …….कि मैने ही श्राप दिया है अपनी बहन राधा को …….?
मैने उनसे पूछा तो कहनें लगे ………गोलोक की लीला है ……..तभी ये कृष्णावतार हुआ है……….और ये लम्बा वियोग भी उसी शाश्वत लीला का ही एक भाग है ……..मैने महर्षि से पूछा भी कि – महर्षि ! अपनें ही दिए गए श्राप को मैं ही काटता चाहता हूँ ………..क्या करूँ ?
ये लीला है श्रीदामा ! और उस अनन्त की लीला का पार आज तक किसनें पाया है ……लीला में ही तो संयोग वियोग चलता है ।
इससे ज्यादा कुछ बताते नही हैं महर्षि शाण्डिल्य ।
दाऊ आये हैं………..सूचना मिली है आज……..चलो ! स्वयं नही आये अपनें अग्रज को ही भेज दिया……….नन्दभवन में सखाओं नें मुझे बुलाया है ………अब ज्यादा नन्दभवन में जानें की इच्छा भी नही होती ……….क्या जाएँ ? वहाँ की दीवारें कन्हैया की याद बहुत दिलाती हैं ………मैया यशोदा की तो हर समय मुझ से एक ही शिकायत रहती है ………श्रीदामा ! तू क्यों नही आता ।
पर …………।
हे वज्रनाभ ! इस तरह अपनें सखा कन्हैया का स्मरण करते हुये ……नन्दभवन पहुँचे थे श्रीदामा ।
दाऊ !
मन प्रफुल्लित हो उठा , बलराम भैया को देखते ही ।
मैं दौड़ पड़ा था ………ग्वालों के मध्य में बैठे थे दाऊ भैया …………..मुझे देखते ही वो भी उठकर खड़े हो गए ……….और अत्यधिक प्रसन्नता से मुझे अपनें हृदय से लगा लिया था ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
👏 राधे राधे👏


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