श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “देखन दै वृन्दावन चन्द” – माथुर ब्राह्मणियों का प्रेम !!
प्रेम में अधीरता ही धीरता है …….आहा ! प्रेम की अधीरता का रस वही ले सकता है ….जिसनें प्रेम को झक कर पीयो हो ……जीया हो ।
एक क्षण भी युगों के समान लगे , एक पल भी काटे न कटे …….लगे की काल ठहर गया क्या ? फिर इतना समय क्यों लग रहा है प्रियतम के मिलन में ! उफ़ ! तात ! ये अनुभव की बातें हैं ।
उद्धव विदुर जी को बता रहे हैं ।
आज – गौ चारण करते करते मथुरा की सीमा में नन्दनन्दन पहुँच गए थे …….आज कुछ नही हैं पास में…….माखन मिश्री भी नही …..और घर से छाक भी अब आ नही सकता ……क्यों की दूर आगये हैं ।
क्या करें ? मथुरा की सीमा में ही नन्दनन्दन बैठ गए ………….
ग्वाल बाल सब थक गए थे वो सब भी बैठ गए ।
मनसुख के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे ……….वो बारबार पोंछ रहा है ।
क्या हुआ मनसुख ! क्यों रो रहे हो? नन्दनन्दन नें बड़े प्रेम से पूछा था ।
“तुझे भूख लगी है”……ये कहते हुए फिर रोनें लगा ।
पर मुझे भूख नही है …….नन्दनन्दन हँसे ।
तू झूठ बोल रहा है………मनसुख के साथ सब ग्वाल सखा कहनें लगे ।
हमें भूख लगे कोई बात नही …..पर हमारा प्राण प्रिय सखा भूखा रहे !
श्रीदामा भी भावुक हो उठे थे ।
अच्छा ! अच्छा सुनो ! कन्हाई नें सबको शान्त किया ……..फिर इधर उधर देखनें लगे ……….सुगन्धित धूआँ उड़ रहा था पास में ………
कन्हैया बोले – वो देखो ! पास में यज्ञ हो रहा है ……….स्वाहा स्वाहा करके यज्ञपुरुष ब्राह्मण आहुति डाल हैं …..तुम जाओ ! और जाकर उनके पास जो जो खानें की सामग्रियाँ हैं मांग कर ले आओ !
लकड़ी अग्नि, यही सब खाओगे ? तोक नें कहा ।
हट्ट पागल ! खीर भी होगी ……हलुआ भी होगा ….क्यों की यज्ञ में इसकी भी आहुति दी जाती है ……….मनसुख थोडा समझदार बनकर सबको समझानें लगा ।
जाओ ! और माँग कर लाओ ……..हम यहीं बैठे हैं ।
कन्हैया इतना कहकर शान्त भाव से आसन बांध कर बैठ गए ।
सब ग्वाल सखा चल दिए उस ओर …..जिधर से धूम्र निकल रहा था ।
माथुर ब्राह्मण , पता नही कैसे प्रसन्न हो गया आज ये राजा कंस !
ब्राह्मण तो इसके शत्रु थे ……….एकाएक समस्त ब्राह्मणों को बुलाकर राजा कंस नें यज्ञ करनें की आज्ञा दे दी ……….और धन, धान्य स्वर्ण इत्यादि सब भरपूर दे दिया था ……..पर स्थान यज्ञ के लिये दिया ……….वृन्दावन और मथुरा की सीमा में ।
ब्राह्मण भोले थे ही …………आज राजा कंस प्रसन्न है उन्हें तो इसी बात से ही प्रसन्नता हो गयी थी ……….वृन्दावन के निकट यमुना के तट पर यज्ञ का आयोजन…………उनका परिवार भी वहीं रह रहा था …..क्यों की भोजन प्रसाद की व्यवस्था भी तो करनी थी ।
राजा कंस नें सम्पत्ती अकूत दे डाली थी ब्राह्मणों को ……….पता नही क्यों ? नही तो राजा कंस विप्र द्रोही ही तो था ।
स्वाहा ! स्वाहा ! स्वाहा ! सस्वर वैदिक मन्त्रों से यज्ञ हो रहा था …..ब्राह्मण शताधिक थे ……………….
बेचारे ये ग्वाल सखा वहाँ पहुँचे ………..पहले तो जाकर इन्होनें धरती में अपना मस्तक रखकर यज्ञ को और यज्ञ के देवता ब्राह्मणों को बड़ी श्रद्धा से नमन किया था ।
पर ब्राह्मणों नें ध्यान नही दिया ……….वैसे भी कोई छोटे छोटे बालकों पर कौन ध्यान देता है …………नही दिया ।
ये सब अहीर कुमार वहीं खड़े रहे …..इधर उधर देखते रहे ।
तोक सखा ने देखा ………खीर और हलुआ रखा हुआ है …और उसे भी यज्ञ कुण्ड में डालकर सब ब्राह्मण स्वाहा ! स्वाहा ! बोल रहे हैं ।
तोकसखा से रहा नही गया ………आहा ! हमारा कन्हैया वहाँ भूखा है और ये लोग अग्नि में डाल रहे हैं हलुआ खीर ?
हमें ये हलुआ दे दो ………बेचारे भोले बालक थे ये ………हमारे कन्हैया को भूख लगी है……….आप थोडा सा हलुआ दे दो ……….तोक नें विनती की ।
पर ब्राह्मणों नें सुनी नही ………सुनी भी तो कोई ध्यान नही दिया …..उपेक्षा कर दी इन बालको की ।
सुनो ! मेरी बात तो सुनो ! तोक सखा फिर बोलनें लगा …..तो श्रीदामा नें रोक दिया उसे ………ये लोग नही सुनेगें ! चलो यहाँ से !
श्रीदामा सबको लेकर वापस कन्हैया के पास लौटे ।
क्या लाये ? कुछ लाये ? कन्हैया नें उत्सुक हो पूछा ।
अग्नि कुण्ड का अंगार लाये हैं खाओगे ? श्रीदामा को गुस्सा आरहा था।
भाई ! हुआ क्या कुछ बताओ तो ? नन्दनन्दन नें जानना चाहा ।
अरे भैया ! क्या बतायें ……..हमारी ओर उन पण्डितों नें देखा भी नही ……..हमनें बारबार कहा ……..पर उन्होनें हमारी उपेक्षा कर दी ….
तोक सखा के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे ………….तुझे भूख लगी है ……हमारा क्या है ? पर वहाँ कुछ नही मिला !
उठे कन्हाई ……तोक सखा के कन्धे में हाथ रखते हुए बोले ……सही स्थान पर नही गए तुम लोग ………अब मैं जहाँ बताता हूँ वहीं जाओ …….मुस्कुराते हुये कन्हैया बोले – उनकी पत्नियों के पास जाओ ……मेरा नाम लो …………
पर वहाँ भी हमनें तुम्हारा नाम लिया था ……..तोक आँसुओं को पोंछ कर बोला ।
सूखा है उनका हृदय …..आग में बैठ बैठकर सूख गया है उनका हृदय ….इसलिये मेरा नाम लो तो भी कोई असर नही होगा …….हाँ तुम जाओ अब यज्ञ पत्नियों के पास …..उन ब्राह्मण की ब्राह्मणियों के पास ।
तोक कुछ और बोलनें जा रहा था ……पर कन्हैया नें चुप करा दिया …..जाओ ………..मैं यहीं बैठा हूँ ।
सब सखा फिर चले गए थे वहीं यज्ञ मण्डप में ।
अरे ! ये लोग फिर आगये ? ब्राह्मण इन अहीर बालकों को देखकर क्रोध से इस बार भर गए थे ………इन्होनें अगर हमारी सामग्री छू ली तो सब अपवित्र हो जायेगा । पर इस बार ये सब कृष्ण सखा इनके शिविरों में गए ……….जहाँ इनकी पत्नियाँ यज्ञ के लिये भोग तैयार करती थीं ।
कौन हो तुम लोग ? कहाँ से आये हो ?
द्वार खटखटाया ग्वालों नें तो ब्राह्मणियों नें द्वार खोल दिया था ।
हम वृन्दावन से आये हैं ………….हम वृन्दावन में ही रहते हैं …….हमारे साथ हमारा “वृन्दावन बिहारी” भी आया है ……वो हमारा सखा है …उसे भूख लगी है ………….कुछ हो तो हमारे सखा के लिये दे दो !
सब सखाओं नें जल्दी जल्दी अपनी बात रख दी थी ।
आहा ! नेत्र सजल हो गए यज्ञ पत्नियों के ………..भाव उमड़ पड़ा ये नाम सुनते ही ………..क्या ! सच ! वृन्दावन बिहारी यहाँ आये हैं ?
तुम लोग सच कह रहे हो ? अरी ! सुन ! ये लोग सखा हैं श्रीकृष्ण के ? एक दूसरी से कहनें लगी ……..वो इन सबको देख रही है ……तुम सच कह रहे हो ? क्या श्रीकृष्ण यहीं हैं आस पास ?
सखाओं को अब आनन्द आनें लगा …….वाह ! बड़ा प्रभाव है हमारे कन्हैया का ? उसे भूख लगी है …..तोक नें फिर स्पष्ट कहा ।
ओह ! भूख लगी है उसे……….तो चलो ! ये जो भात है ……..इसे ही लेकर चलो ……..मेरे पास खीर भी है ….दूसरी यज्ञपत्नी बोली ।
मेरे पास साग भी है …………..तीसरी आगयी ……इस तरह सब ब्राह्मणियां एकत्रित हो गयीं ………..
पर ये सब तो “यज्ञ पुरुष” के भोग के लिये है ………..अगर हमनें ये सब सामग्री नन्दनन्दन को खिला दिया तो बड़े नाराज होंगें हमारे पतिदेव !
तब दूसरी हँसती हुयी बोली …….”.वो खुश कब थे हमसे ……वो नाराज ही रहते हैं …..इसलिये ये सब आज मत सोचो…………आज तो इन नयनों को धन्य बनाओ………आज तो इस जीवन को सार्थक करो …….चलो ! धर्म, नीति, मर्यादा , शील सबकुछ यहीं त्याग दो …..और नन्द नन्दन को निहारो …………आहा ! उनके चरणों में ये सब अर्पित !
ये कहते हुये भात, साग, खीर, सब लेकर चलीं ।
पर उनके पतियों नें यज्ञ करते हुए भी अपनी पत्नियों को उन ग्वालों के साथ जाते हुए देख लिया ।
अनुष्ठान है उससे उठ सकते नहीं हैं ये लोग ……पर एक ब्राह्मण उठ गया …….अपनी पत्नी को पकड़ लिया ……..और तो आगे चल दीं थीं ……पीछे कौन छूट गयी ये किसे परवाह ?
केश पकड़ कर बेचारी को वो ब्राह्मण अपनें घर में ले आया …….कमरे में बन्द कर दिया …………..बाहर से जंत्रित ताला लगा दिया ।
वो चीख पड़ी ……..एक झलक तो देखनें दो कन्हैया की, पतिदेव !
वो माधुर्य से भरा मुखारविन्द ! एक बार तो देखनें दो ……….हे पति ! क्या रखा है इस मिथ्या जाति के अभिमान में ? क्यों नही छोड़ देते ये मिथ्या दम्भ ? आप तो विद्वान् हो ! मेरे मन के प्रेम को तो देखो ……विशुद्ध प्रेम है ……….नन्दनन्दन को मैं देखना चाहती हूँ …….मैं भी उन्हें खीर खिलाना चाहती हूँ ………
पर उस ब्राह्मण का हृदय पसीजा नहीं ……….वो ब्राह्मणी रोते रोते वहीं मूर्छित हो गयी थी ।
*क्रमशः …


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