!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 52 – “जहाँ हानि ही लाभ है” )
गतांक से आगे –
यत्र व्यय एव लाभ : ।।
अर्थ – जहाँ ( प्रेमनगर में ) व्यय को ही लाभ समझा जाता है ।
हे रसिकों ! आज आरम्भ में एक पद सुनो, सुन्दर पद है ।
एक सखी दूसरी से कहती है …अरी ! प्रेम मत कर , इस कपटी श्यामसुन्दर से प्रेम मत कर ।
क्यों ? उसकी सखी पूछती है ….
तो ये कहती है …प्रेम करने से हानि ही हानि है …अपना व्यय ही है मिलना कुछ नही है । क्या हानि है ? अपना घाटा क्या है ?
“”सखी मत कर यासौं प्रीत, नही पछतावेगी ।
मन कपटी , मुख मीठो बोले , कली कली रस चाखत डोले,
ऐसे सौं कर प्रीत कहा फल पावेगी ।
मेरी कही तू चित न धरत है , यासौं मोहि जान परत है,
“नारायण” या सुन्दर तन रोग लगावेगी ।
सखी मत कर यासौं प्रीत, नही पछतावेगी ।””
हुआ कुछ यूँ ….कि बृज की एक गोपी के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम जागृत हो गया …गौचारण करते हुए नन्दनन्दन को इसने निहार लिया , बस फिर क्या था …प्रेम होना ही था, हो गया ।
अब तो ये हा श्याम ! हा श्याम ! पुकारने लगी ….अनुराग बढ़ता गया तो इसकी स्थिति भी सोचनीय होने लगी ….इसकी सखियों ने इसे एक दिन श्रीवृन्दावन घुमा दिया …और श्रीवन की शोभा देखते ही …वहाँ नित्य व्याप्त बसन्त और शरद ऋतु का अनुभव करते ही …इसे तो अब श्याम सुन्दर और याद आने लगे …इसकी स्थिति और प्रेमोन्मत्त हो गयी । वो लम्बी लम्बी स्वाँस लेकर कहने लगी ….सखी ! श्याम सुन्दर से मिलाओ , श्याम सुन्दर और मेरा मिलन करवाओ ।
उसकी सखी ने कहा …ये सोच भी मत ….इन प्रेम आदि के चक्करों से छुड़ाने के लिए …तेरा मन बहलाने के लिए तो तुझे हम यहाँ श्रीवृन्दावन लेकर आयीं और तू यहाँ आकर फिर उन्हीं बातों को दोहरा रही है । वो प्रेम विरहिणी बोली …मैं कुछ नही जानती …मुझे प्रीतम चाहिये । उसकी सखी ने कहा …बाली उमर है तेरी …काहे रोग लगा रही है ….ये तो तेरे खाने पीने खेलने की आयु है ….इन प्रेम के झंझटों से दूर रह । वो विरहिणी बोली ….पहले समझाना था ना ! अब तो हो गया ….अब कुछ भी हो श्याम सुन्दर ही चाहिये मुझे । उसकी सखी बोली ….देख ! ज़्यादा मत सोच …तेरा इतना सुन्दर देह है ….सब सूख जायेगा अगर प्रेम में उतरी तो । तुझे क्या लगता है – प्रेम से लाभ है ? प्रेम में लाभ है ? विरहिणी को समझाते हुए उसकी सखी ने कहा ……हानि ही हानि है ….तुझे अपना तन देना पड़ेगा ….ये तन तेरा नही होगा फिर …तेरा प्रीतम अपना बना लेगा ….वो विरहिणी बोली …कोई बात नही …वो ले जायें इस तन को ।
उसकी सखी ने फिर समझाया ….मात्र तन देने से चल जाता तो भी कोई बात नही थी….किन्तु मन भी देना पड़ेगा ….विरहिणी बोली …मन भी दे दूँगी । सखी ने कहा …..वो तेरे चित्त पर भी छा जायेगा …यानि तेरे चित्त पर भी उसका अधिकार होगा । विरहिणी बोली ….मुझे यही चाहिये ….अन्तिम में उसकी सखी ने कहा …..तेरा सब कुछ वो ले लेगा …यहाँ तक कि तेरे प्राण भी ….विरहिणी बोली ….ले जायें वो मेरे प्राण भी । सखी माथा पकड़ते हुए बोली ….तुझे तो घाटा ही घाटा है ….इसमें लाभ तो है ही नही । विरहिणी बोली ….तेने प्रेम नही किया ना , इसलिए तुझे पता नही है ….प्रेम में घाटा ही तो लाभ है । प्रेम में बर्बाद होना ही तो आबाद होना है ….प्रेम में लुट जाना ही तो सब कुछ पा जाना है । वो विरहिणी कहती है …हे सखी ! प्रेम नगर में हानि ही लाभ है । सखी ! अपना सिर देकर भी अगर श्याम सुन्दर मिल जायें ….तो भी बड़ा सस्ता सौदा है । मुझे लुटना है ….मुझे श्याम के हाथों बिकना है ।
हे रसिकों ! ये है प्रेम नगर ….यहाँ हानि में ही लाभ है ।
मैं मर रही हूँ …मेरे प्राण छूट रहे हैं …मेरे प्रीतम को मुझ से मिला दो ।
वही विरहिणी फिर पुकार रही है ….उसकी सखी समझा कर हार चुकी है …अब तो उसके प्राण छूटेंगे …ऐसा उसकी सखी को पक्का लगता है …तो वो बोली ….सखी ! ऐसा मत कर …अपने प्राणों को मत छोड़ …वो विरहिणी बोली …..फिर मैं इन प्राणों को किसलिए रखूँ ? विरहिणी का ये प्रश्न सुनकर उसकी चतुर सखी कहती है – अरी ! तेरे पास श्यामसुन्दर आयेंगे , प्रथम मिलन होगा तो तू उन्हें भेंट में क्या देगी ? इन प्राणों को सुरक्षित रख ….यही प्रीतम को भेंट देने के काम आयेगा । ये सुनते ही वो विरहिणी मुस्कुराने लगी ….हाँ , मैं अब इन प्राणों को सम्भालकर रखूँगी ….इन्हें चढ़ा दूँगी प्रीतम को । ये कहते हुये वो नाचने लगी थी ।
आहा ! हे रसिकों ! ये है प्रेम !
अपना सब कुछ लुटाकर भी ….सब कुछ पा लेना ….ये प्रेमनगर में ही सम्भव है ।
शेष अब कल –


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