Niru Ashra: 🍃🍁🍃🍁🍃
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 127 !!
निकुञ्ज का धर्म – आनन्द और उत्सव
भाग 2
🌲🌺🌲🌺🌲
और उन विषयी जीवों का ध्यान इस तरफ भी पड़े……..ललचा उठें वो पामर जीव भी ……इस आनन्दमय लोकों की बातें सुनकर …..और फिर कुछ जीव ये समझनें लगते हैं कि ……हम तो आनन्द स्वरूप थे …..फिर कहाँ फंस गए………हमारा लोक तो आनन्द था …….हमारा धर्म तो उत्सव था ……..फिर किस विषाद के शिकार हो गए ।
ये बात विषयी जीवों के समझ में आजाये…….और ये जीव ऊपर उठनें की सोचें………दुःख , विषाद, तनाव ये सब हमनें ओढ़े हैं ……….इसे छोड़िये……..और चूनरी प्रेम की ओढ़ीये …….तब देखिये आपका स्वरूप प्रकट होगा …………ये सब आपके रूप नही हैं …..दुःख, विषाद, तनाव , नही ……ये आरोपित हैं …….आप नें स्वयं अपनें ऊपर इन्हें ओढ़ा है……….आप तो आनन्द स्वरूप हैं …..देखिये ! पहचानिये अपनें आपको …………….
नित्य लोक का जीव समय समय पर “युगल” के संकल्प से अवतरित है…….ये करुणा है चौरासी में भटक रहे जीवों के ऊपर ।
ललिता सखी नें बड़ी ही शान्ति से ये सब बातें अर्जुन को बतायीं ।
( साधकों ! हमारे यहाँ समय समय पर निकुञ्ज की सखियों के धरा पर अवतरण का इतिहास प्रचलित है ही जैसे – रंगदेवी सखी के अवतार श्रीनिम्बार्काचार्य……ललिता सखी की अवतार स्वामी श्री हरिदास …..विशाखा सखी के अवतार श्रीहरिरामव्यास जी इत्यादि ।
साधकों ! समय समय पर इन निकुञ्ज वासियों के भी अवतार होते हैं ……ताकि वहाँ के रहस्यों को बतानें वाला यहाँ कोई तो होना चाहिये ।
वेदों की तो वहाँ तक पहुँच ही नही हैं……रसिक सन्तों नें तो यही कहा है …..और सत्य है …..और वैसे भी प्रेम पर “वेद” क्या बोलें ? )
आनन्द हमारा स्वरूप है………तो उत्सव हमारा धर्म है ।
उत्सवधर्मिता निकुञ्ज की थाती है……..आनन्द और उत्सव ये निकुञ्ज का वैभव है …………हाँ ये सत्य है ……जहाँ आनन्द होगा …..वहाँ उत्सव होगा ही ……….हे अर्जुन ! नित्य उत्सव निकुञ्ज में चलते रहते हैं ………देखो ! वर्षा होनें लगी है ………….ललिता सखी नें अर्जुन को दिखाया ……….काले काले बादल निकुञ्ज में छा गए …..नन्ही नन्ही बुंदियाँ पड़नें लगी थीं ………..हवा शीतल चल रही थी ।
बस युगलवर को सखियों नें हिंडोरे में विराजमान किया ।
ये सब क्षण में ही हो गया था ……….बस संकल्प से ही ……..बादल भी इन सखियों के संकल्प से …….बूँदें भी पड़नें लगीं मात्र संकल्प से …..सुवर्ण का हिंडोला भी लग गया ………..सखियाँ युगल सरकार को ले भी आईँ ……..और झूला झूल रहे हैं युगलवर ।
सखियाँ नाच रही हैं …..मल्हार गा रही हैं ………..पूरा निकुञ्ज उत्सवमय हो उठा था ………..आहा !
अर्जुन ! अर्जुन !
झँकझोरा ललिता सखी नें अर्जुन को ।
हाँ ….क्या हुआ ? पर अभी तो झूला झूल रहे थे युगलवर, आकाश में काले काले बादल छा गए थे , आहा ! कितना आनन्द आरहा था ।
ललिता सखी नें अर्जुन से कहा………….अब देखो ये फागुन ।
फागुन ? पर अभी तो श्रावण चल रहा था ……..झूला और मल्हार चल रहे थे …….।
क्रमशः ….
शेष चरित्र –
🌲 राधे राधे🌲
Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! प्रेम विह्वल , आनन्द निमग्न !!
गतांक से आगे –
सच पूछो तो , सखियों का प्रेम ही युगल को विह्वल बना देता है । यही सखियाँ हैं जो दो को एक कर देती हैं । आनन्द निमग्न हैं नवल दम्पति , इनको आनन्द मग्न करने वाली कौन हैं , ये सखियाँ ही तो हैं । ब्याहुला हुआ , उत्सव क्या महामहोत्सव हुआ । इस महामहोत्सव की रचयिता कौन ? ये सखियाँ । अब देखिए ! मण्डप में सुन्दर विवाह सम्पन्न हुआ …उसके बाद सखियाँ इन्हें लेकर गयीं रंगमहल में । वहाँ भी सखियों ने युगल के चित्त को रस रंग से भर दिया …..किन्तु अब सखियों ने विचार किया की इन्हें दिव्य कुँज में ले ज़ाया जाए …जहाँ इनका मिलन हो । उधर – सुन्दर से सुन्दर कुँज तैयार हो गया । उस कुँज के चारों ओर सरोवर हैं …कमल के पुष्पों का खिलना वो बड़ा मधुर लग रहा है …उससे सुगन्ध की वयार चल रही है ।
सखियाँ दम्पति युगल को उठाती हैं …..और चलने के लिए कहती हैं । युगल मुस्कुराते हैं ….और चल देते हैं । हरिप्रिया पाँवड़े बिछा रही हैं …अष्ट सखियाँ चारों ओर से चँवर ढुराती हुई चल रही हैं । ऊपर से लताएँ पुष्प बरसा रहे हैं । आगे आगे सखियाँ नृत्य करती हुई चल रही हैं …इस तरह उस दिव्य रंग भरे कुँज में सखियाँ युगल को लेकर आयीं । युगलवर के प्रवेश करते ही वो कुँज तो और शोभायमान हो गया था । सामने एक सुन्दर पुष्पों का सिंहासन था , वो सिंहासन पूर्ण रूप से पुष्पों का ही बना था …और पुष्पों में भी कमल का । उसी में सखियों ने जाकर युगल को विराजमान कर दिया । अब सखियाँ दर्शन करने लगीं …सिर में मुकुट इनके कितना सुन्दर लग रहा था …और प्रिया जू के शीश में चंद्रिका ! उसकी शोभा का क्या वर्णन किया जाए ।
दोनों दुलहा दुलहन रस रंग से भरे दिखाई दे रहे हैं …रति रस इनके हृदय में ही बढ़ रहा था उसी का दर्शन सखियों को दोनों के नयनों में हो रहे थे …अरुण नयन हो गए ।
सखियाँ कुँज के लता छिद्रों से , कोई वृक्ष की ओट से , कोई दूर , तो कोई पास …इस तरह सब दर्शन कर रही हैं …..और अपने नयनों को धन्य बना रही हैं ।
॥ दोहा ॥
करि प्रवेस निज कुञ्जबर’, राजत बनारू बनी ।
रसरंगनि रस बिलसहीं, मोहत मुकुटमनी ॥
मुकुट मनी धन धनी दोउ दूलह दुलहनि बाल ।
मंजु कुंज में बिलसहीं, मोहनि मोहन लाल ॥
॥ पद ॥
बना बनी की जोर बनी।
नित नवकुंज मंजु मंदिर में दूलह रसिक रसिक दुलहनी ॥
मोहन मोहन मैंन मुकुटमनी मुकुटमनी स्यामा धन-धनी ।
श्रीहरिप्रिया प्रति प्रति छिन प्रमुदित निरखि निरखि सोभासुखसनी ॥१६६॥
****क्या जोरी बनी है आज तो । हरिप्रिया कहती हैं ।
ये नव दुलहा हैं और इनके साथ इनकी नव दुलहिन हैं ….और ये कुँज भी नव कुँज हैं …..यहाँ सब कुछ नवीन है , नया नया है । हरिप्रिया ही रीझ रीझ कर अपनी सखियों को बता रही हैं ।
सखियाँ झूम झूम कर इन नवेली नवल के सौन्दर्य सुधा का पान कर रही हैं । हरिप्रिया कुछ देर के लिए रुक जाती हैं ….फिर बोलना शुरू कर देती हैं ।
श्याम सुन्दर प्रिया जू के पास खिसकते हैं ….और और …..जब उन्हें प्रिया के श्रीअंग का स्पर्श होता है …तब ये रोमांचित हो उठते हैं ….हरिप्रिया हंसती हैं ….इन्हें लग रहा है हमें पता नही …किन्तु हे रस शिरोमणि ! हम सब जान रही हैं समझ रही हैं कि तुम्हें अब काम केलि को सुसंपन्न करना है ….रति विलास में उतरना है । हरिप्रिया कहती हैं ….अपना नाम तो सार्थक करोगे ही ना ! “रसिक राई”……यही नाम अनादि है तुम्हारा । रसिकों के तुम मुकुट मणि हो …ये हम सब जानती हैं ….प्यारे ! हंसती हैं हरिप्रिया ….”ये तुम्हारी ही हैं”।
श्याम सुन्दर जब ये सुनते हैं तो प्रिया जू शरमा कर थोड़े दूर हो जाते हैं ।
हरिप्रिया के साथ पूरी सखियाँ खिलखिला पड़ती हैं …..फिर गम्भीर हो जाती हैं और बस इन शोभा निधान दम्पति को अपलक निहारती हैं , निहारती हैं और बस निहारती ही जाती हैं ।
क्रमशः…
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (077)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन
तद् यात् मा चिरं गोष्ठं…..प्रतियात ततो गृहान
तद् यात् मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत ।।
अथवा मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशयाः ।
आगता ह्युपपन्नं वः प्रीयन्ते मयि जन्तवः ।।
भर्तुः शुश्रूषणं स्त्रीणां परो धर्मो ह्यमायया ।
तद्बन्धूनां च कल्याण्यः प्रजानां चानुपोषणम् ।।
दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा ।
पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी ।।
अस्वर्गमयशस्यं च फल्गु कृच्छं भयावहम् ।
जुगुप्सितं च सर्वत्र औपपत्यं कुलस्त्रियाः ।।
श्रवणाद् दर्शनाद् ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात् ।
न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान् ।।
दृष्टं वनं कुसुमितं राकेशकररञ्जितं। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि तुम लोग वन की शोभा देखने के लिए आयी हो सचमुच प्राणी के चित्त में प्रकृति की सुषमा देखने का मनोरथ होता ही है। सुषमा परमा शोभा परम शोभा को सुषमा कहते हैं। सुषमा शब्द का मूल अर्थ यदि आपको सुनावें, तो बहुत विलक्षण है। जैसे आँख दो होती तो दोनों अगर बराबर हों और मिलकर देखें तो वे- ‘समा’ हो गयीं। और यदि एक आँख बड़ी और एक आँख छोटी हो और एक बायें देखे और एक दायें देखे तो वे ‘विषमा’ हो गयी। तो सुषमा कहाँ होती है? जहाँ दोनों दोनों कान बराबर हों, दोनों हाथ बराबर हों, दोनों नाम के छेद बराबर हों, दोनों हाथ बराबर हों, दोनों पाँव बराबर हों सौंदर्य ये जो नाप-तौलकर बनाते हैं जैसे दर्जी लोग कपड़ा सीते हैं, नाप-तौलकर बनाते हैं, वैसे विधाता ने नाप-तौलकर शरीर को बनाया है, होंठ की कट कैसी हो, कपोल कैसा हो, दोनों कपोल एक जैसे होने चाहिए। सममितता से सुषमा बनती है। तो सुषमा परमा शोभा ! +
दृष्टं वनं कुसुमितं- वन में कुसुम लगे हुए हैं- ‘राकेशरञ्जितं’ औषधि-वनस्पति का जो पति है चंद्रमा- सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा- उन्होंने अपने हाथों से रंग दिया हैं कि आओ-आओ। लता वृक्ष के साथ लिपट रही। तुमने प्रकृति की शोभा देख ली। तद् यात- अब लौट जाओ अपने घर को। मा चिरम्- देर मत करो। कहाँ जायँ तो गोष्ठं अपने घर में जाना सबसे बढ़िया है। वहाँ जाकर क्या करें? कहा- शुश्रूषध्वं पतीन्- पति सेवा करो क्योंकि स्त्री के लिए पति परमेश्वर का प्रतीक है। ऐसी सनातन धर्म की मान्यता है।
देखो, शालग्राम में नारायण होने का भाव करते हैं, नर्मदा-चक्र में शिव होने का भाव करते हैं और उसमें से मनुष्य अपना परम मंगल, परम कल्याण निकाल लेते हैं और तुम एक चलते-फिरते मनुष्य में परमेश्वर का भाव करके उसमें परमेश्वर को प्रकट नहीं कर सकते? भाव का बड़ा सामर्थ्य है, यह भाव ही संसार के रूप में प्रगट हो रहा है। शिष्य के लिए गुरु, पत्नी के लिए पति, बेटे के लिए माँ-बाप- ये सब परमेश्वर के प्रतीक है इनकी सेवा-सुश्रूषा करो! गोपियों ने कुछ अरुचि दिखायी- सती शुश्रूषध्वं- अरे! जाओ-जाओ, तुम्हारे गाँव में कोई सती-सावित्री हो, तो उसकी सेवा-सुश्रूषा करो, उससे फिर पति सेवा में रुचि हो जाएगी। क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत- तुम्हारे बछड़े डकरा रहे हैं और बालक जो हैं रो रहे हैं। जाओ, बछड़ों को छोड़ दो गाय के पाँवों में- से उन्हें दूध पिलाओ। बच्चों को दूध पिलाओ, गाय दुहो, अपना धर्म-कर्म पालन करो। इसको छोड़ करके तुम हमारे पास क्यों आयी हो?
गोपियाँ तो उत्तरमीमांसा का आश्रय लेकर श्रीकृष्ण के पास गयी थीं- यदहरेव विवरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्- जब वैराग्य होवे तब ही प्रव्रज्या लेनी चाहिए। श्रीकृष्ण पूर्वमिमांसा का आश्रय लेकर के उपदेश करने लगे- यावज्जीवन धर्मानुष्ठानं करना चाहिए। लेकिन सब श्रुतियों का समन्वय केवल पूर्वमीमांसा से नहीं लगता। श्रीकृष्ण का वचन ही श्रुति-विरुद्ध हो जाएगा। यदि सबको यावज्जीवन धर्मानुष्ठान करना पड़े। देखो- देवर्षि नारद ने कहा- भवतु निश्चयदाढर्यात् ऊर्ध्व शास्त्ररक्षणम्- पहले भगवान् में अपने निश्चय को दृढ़ कर लो, पक्का कर लो, भगवान् से प्रेम हो जाय; फिर जब ऐसा मालूम पड़े कि अब हमारा निश्चय दृढ़ हो गया और यह कभी टूटेगी नहीं कि हम भगवान् का भजन करेंगे। तब लोक-धर्म का ठीक-ठीक पालन करके दूसरों के लिए आदर्श बनाना चाहिए। यदि पहले ही आदर्श बनाने के चक्कर में कोई पड़ जाय और निश्चय दृढ़ न हो तो? अन्यथा पातित्यशंकया- पतित होने की आशंका है। तो क्या करो? ++
भगवान ने कहा- धर्मानुष्ठान के द्वारा अपना-अपना अंतःकरण शुद्ध करो। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में भगवद्भक्ति मिलेगी, तुम्हारा कल्याण होगा, इस जन्म में अपना धर्म मत बिगाड़ो।
तद् यात मा चिरं गोष्ठं शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः ।
क्रन्दन्ति वत्सा बालाश्च तान् पाययत दुह्यत ।।
अब यह है कि- वाचः पेशैर्विमोहयन् भगवान् की वाणी में दोनों अर्थ हैं। एक प्रकार से मजाक भी कर रहे हैं, विनोद भी कर रहे हैं, जिससे रस की वृद्धि हो। बोले- तद् यात- चली जाओ। मा चिरम्- जल्दी चली आओ और वहाँ जाकर क्या करो? देखो, यह मजाक है- शुश्रूषध्वं पतीन्- अरे बाबा! तुम लोगों के बहुत से पति हैं। पति शब्द में यहाँ बहुवचन है तो अनादिकाल से तुम संसार के प्रवाह में बह रही हो और अब तक न जाने कितने पति मिले और आगे न जाने कितने पति मिलेंगे। कहा- उनकी (ईश्वर रूप से) सेवा-शुश्रूषा करो। माने ईश्वर को भजोगी तो ईश्वर को पति के रूप में प्राप्त करोगी और फिर अनन्तकाल तक ईश्वर ही पति रहेंगे। पूर्वमीमांसा के धर्म से उत्तरमीमांसा का धर्म श्रेष्ठ है। अब दूसरा मजाक इसमें क्या निकला कि बोले- तुम्हारे जो पति हैं न, वे पहले जन्म के सती हैं। कथं भूतान् पतीन् तो सती?
ये वल्लभाचार्यजी महाराज ने अर्थ किया है। सुबोधिनीकारने दोनों ही अर्थ लिखा है। बोले कि जाओ, जाओ, ये जो तुम्हारे पति हैं ये बड़े सती हैं। बोले- बाबा! सती तो स्त्री होती है, कहीं पति भी सती होता है? बोले- ये पूर्वजन्म में स्त्री थे और इन्होंने खूब पतिव्रत का पालन किया है, खूब सती रहे हैं, तब देखो, अपने पति का चिन्तन करते-करते अब ये पुरुष हो गये हैं और पति हो गये हैं। नारायण। तुम भी जाकर सती-धर्म का पालन करो तो अगले जन्म में तुम भी पुरुष हो जाओगी, त कल्याण-भाजन ही जाओगी, और फिर ये तुम्हारी स्त्री बन जाएंगे और तुम्हारा संसार-चक्र चलता रहेगा।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 5 . 12
🌹🌹🌹🌹🌹
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते || १२ ||
युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; कर्म-फलम् – समस्त कर्मों के फल; त्यक्त्वा – त्यागकर; शान्तिम् – पूर्ण शान्ति को; आप्नोति – प्राप्त करता है; नैष्ठिकीम् – अचल; अयुक्तः – कृष्णभावना से रहित; काम-कारेण – कर्मफल को भोगने के कारण; फले – फल में; सक्तः – आसक्त; निबध्यते – बँधता है |
भावार्थ
🌹🌹🌹
निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है |
तात्पर्य
🌹🌹🌹
एक कृष्ण भावना भावित व्यक्ति तथा देहात्मबुद्धि वाले व्यक्ति में यह अन्तर है कि पहला तो कृष्ण के प्रति आसक्त रहता है जबकि दूसरा अपने कर्मों के प्रति आसक्त रहता है | जो व्यक्ति कृष्ण के प्रति आसक्त रहकर उन्हीं के लिए कर्म करता है वह निश्चय ही मुक्त पुरुष है और उसे अपने कर्मफल की कोई चिन्ता नहीं होती | भागवत में किसी कर्म के फल की चिन्ता का कारण परमसत्य के ज्ञान के बिना द्वैतभाव में रहकर कर्म करना बताया गया है | कृष्ण श्रीभगवान् हैं | कृष्णभावनामृत में कोई द्वैत नहीं रहता | जो कुछ विद्यमान है वह कृष्ण का प्रतिफल है और कृष्ण सर्वमंगलमय हैं | अतः कृष्णभावनामृत में सम्पन्न सारे कार्य परम पद पर हैं | वे दिव्य होते हैं और उनका कोई भौतिक प्रभाव नहीं पड़ता | इस कारण कृष्णभावनामृत में जीव शान्ति से पूरित रहता है | किन्तु जो इन्द्रियतृप्ति के लिए लोभ में फँसा रहता है, उसे शान्ति नहीं मिल सकती | यही कृष्णभावनामृत का रहस्य है – यह अनुभूति कि कृष्ण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, शान्ति तथा अभय का पद है |


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877