Niru Ashra: 🌲🌲🌻🌲🌲
!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 128 !!
अब अर्जुन बरसानें आये…
भाग 1
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ललिता सखी जू के ही चरणों में, पड़े रहे थे अर्जुन ।
मुस्कुराते हुये उठाया था अर्जुन को ललिता सखी नें ।
चलो अब श्रीधाम वृन्दावन ……….दर्शन करो श्रीजी के ।
वो विरहाकुल हैं ……….वो उन्मादिनी हैं यहाँ ………..लीला ही ऐसी है युगल की ………..ललिता सखी नें कहा ।
अर्जुन शान्त हैं …………निकुञ्ज की सारी घटनाएं अब एक सुन्दर सपना जैसा लग रहा है अर्जुन को ………….ललिता सखी के पीछे पीछे चल पड़े हैं अर्जुन………ये है बरसाना……….ललिता बरसानें में ले आयीं थीं अर्जुन को …… भूमि को प्रणाम किया अर्जुन नें ………..ललिता सखी एक शिला पर बैठ गयी थीं …………अर्जुन भी वहीँ बैठ गए ।
“निकुञ्ज की सुगन्ध हैं यहाँ” …………..अर्जुन नें कहा ।
फिर कुछ ही देर बाद अर्जुन का प्रश्न शुरू हो गया ।
ललिता नें विनोद में कहा भी …..वासुदेव के मुख से गीता सुनकर भी तुम्हारे प्रश्न शान्त नही हुए ………….अर्जुन नें इसका कोई उत्तर नही दिया था ।
प्रेम मार्ग में चलनें के लिये आवश्यक साधन क्या है ?
पृथ्वी में ही उतरा निकुञ्ज है ये बरसाना – वृन्दावन ….मुझे अनुभव हो रहा है……इसलिये मैं ये प्रश्न कर रहा हूँ……अर्जुन नें कहा ।
शरणागति…….प्रपत्ती ………ये आवश्यक साधन है प्रेम मार्ग में ।
ललिता सखी नें बताना शुरू किया था ।
“सबसे पहले साधक अपनें प्रारब्ध को भोग द्वारा समाप्त कर दे ……..क्यों की पहले प्रारब्ध को मिटाना आवश्यक है …….प्रारब्ध मिटेगा सहन करो…….सुख दुःख शान्त भाव से भोग लो……..फिर प्रतीक्षा करो कि ……..भगवान के चरणों में नित्य सेवा का फल हमें प्राप्त होता रहे………यही मुख्य है इस प्रेम साधना में ।
शरणागति का स्वरूप क्या है ? अर्जुन नें फिर पूछा ।
तीन प्रकार की शरणागति होती हैं ………..ललिता सखी नें समझाना शुरू किया अर्जुन को ।
शरणागति……….
फल शरणागति, भार शरणागति, और स्वरूप शरणागति ।
फिर कुछ देर बाद ललिता सखी बोलीं……….
हे अर्जुन ! “फल शरणागति” उसे कहते हैं….जो ऐश्वर्य चाहता है ….कैवल्य मोक्ष चाहता है…..वह यथा क्रम से स्वर्ग के भोगों को भोग कर …..उच्च पद लाभ जनित सुख, और आत्मसुख की कामना करता है ……..किन्तु जो भगवान की शरणागति ले चुका है…….वह ये बात अच्छे से समझ जाता है कि ……..भगवान अंशी हैं …..और मैं उनका अंश हूँ ……वो अंगी हैं मैं उनका अंग हूँ……….ये बात शरणागति ले चुके साधक के समझ में आजाता है कि …….अंशी को प्रसन्न करना ही अंश का लक्ष्य है…….अंगी को सुख प्रदान करना ही अंग का ध्येय है…..आत्मसुख पाना ध्येय नही है…….भगवान को सुख मिले हमारे द्वारा ……..और यही चिन्तन धीरे धीरे साधक के मन से फल की आकांक्षा मिटा देता है ……..कुछ और पानें की कामना खतम होती चली जाती है ……अपना कर्तृत्व, ममत्व, एवम् स्वार्थ लिप्सा छोड़ देता है वह साधक ……इसे ही कहते हैं …..”फल शरणागति” । ललिता सखी नें समझाया ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
🌻 राधे राधे🌻
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (078)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन
शुश्रूषध्वं पतीन् सतीः- क्रन्दन्ति बालाः वत्साश्च हे सत्याः पतीन् शुश्रूष्ध्वं- इसका जो अर्थ हमने कल सुनाया था उसको अब बन्द कर देते हैं। क्यों? उसमें नारायण! गोपियों के लिए जो बात कही गयी है- तब चिरं मा यात- तुम चिरकाल तक मत जाओ और गोष्ठ में मत जाओ, पतियों की सेवा मत करो, सतियों की सेवा मत करो, माने यहीं हमारे पास ही रहो- गोष्ठं मा यात पतीन् मा शुश्रूषध्वं, सतीन् मा शुश्रूषध्वं जिसमें माम्, सबके साथ जुड़ जायगा वह केवल संस्कृत के पण्डितों के लिए छोड़ देते हैं।
अच्छा, अब भगवान् गोपी में माया- मोह पैदा करते हैं, स्नेह पैदा करते हैं-
अथवा मदभिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशयाः ।
गोपी को आया क्रोध, और आँख टेढ़ी करके क्षुब्ध दृष्टि से उसने कृष्ण को देखा। मानो कहती हैं- देखो, ना, आज यह धर्मशास्त्री जी बन गये। पहले तो बाँसुरी बजा-बजाकर, नाच-नाचकर, मुस्कराकर, इशारा कर-करके हम लोगों को मोहित किया, अपनी ओर आकृष्ट किया, बुलाया और अब बुलाकर हमको धर्मोपदेश कर रहे हैं? हम धर्म जैसे व्रत का पालन करने वाली नहीं हैं, हम तो हैं भक्ति-प्रेम के मार्ग पर चलने वाली- अतिहि कठिन है निगमपथ चलिबो हम कोमल चित्त की गोपियाँ, कोमल वृत्तिवाली, और अर्थ का, भोग का, धर्म का उल्लंघन करके प्रकृति से परे जो परम मधुर परम सुन्दर सच्चिदानन्दघन मूर्त परमात्मा है, उससे प्रेम करने के लिए यहाँ आयीं संन्यासिनी होकर और अब यह हम संन्यासी को फिर से गृहस्थी करने का उपदेश करते हैं? अगर संन्यासी फिर से गृहस्थी करे तो वह तो स्वधर्म से भ्रष्ट हो जाता है। हम तो अर्थसंन्यासिनी, कामसंन्यासिनी, धर्मसंन्यासिनी, मोक्षसंन्यासिनी अपना लोक-परलोक सब छोड़कर तुम्हारे प्रेम की पगली, तुम्हारे पास आयी हैं और तुम हमको धर्म का उपदेश करते हो?
धर्म नीति उपदेसिय ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही ।।
हम प्रभु शिशु सनेह प्रतिपाला। मन्दर मेरु कि लेई मराला ।।
हंस के लिए मंदर और सुमेरु को अपने ऊपर उठाना नहीं होता। हमारे तो गुरु, माता, पिता, स्वामी सब तुम्हीं हो। श्रीकृष्ण ने कहा- सब ठीक है, प्रेम में ऐसे ही लगता है गोपियों- अथवा मद्भिस्नेहाद् भवत्यो यन्त्रिताशया आगताः हमारे प्रति स्नेह है तुम्हारे हृदय में, माना उसके परतंत्र होकर तुम हमारे पास आयीं यह भी माना, स्नेह माने घी की तरह, मक्खन की तरह, दिल का हो जाना। +
यह गोपियों का हृदय जो है वह असल में घी की तरह नहीं है, शहद की तरह है। दो तरह का प्रेम होता है- एक घृत और एक मधुप्रेम। घृतप्रेम गर्मी लगने पर पिघलता है और मधुप्रेम गर्मी लगने पर नहीं पिघलता है। एक बात और, घृत का अपना स्वाद नहीं- शक्कर डालो तो शक्कर, नमक डालो तो नमक; पर शहद की मिठास जो है वह अपना स्वाद होता है। एक घृत प्रेम होता है और एक मधुप्रेम होता है। तो मधुप्रेम पर सर्दी-गर्मी का असर नहीं होता है, एक जैसा होता है, और घृतप्रेम जो है वह ठंडक मिली तो जम जाता है और गर्मी मिली तो पिघल जाता है, वह एकरूप नहीं रहता। स्नेह के दो रूप माने जाते हैं और तीन रंग माने जाते हैं- एक कुसुम्भ राग एक नीली राग और एक मंजिष्ठ राग। जैसे वेदान्त की प्रक्रिया होती है- आभासवाद, प्रतिबिम्बवाद, अवच्छेदवाद, दृष्टि-सृष्टिवाद, ऐसे ये आनन्दवाद की भी प्रक्रिया होती है। सच्चिदानन्द में से जब चित् को प्रधान और सत् तथा आनन्द को गौण कर दिया तब क्या हुआ तो सांख्य का विवेक हो गया।
अस्ति प्रत्यय का विषय और प्रिय दोनों चले गये दृश्य में और केवल चिन्मात्र द्रष्टा रह गय। योग की प्रक्रिया सत्प्रधान है। चिन्मात्र को और आनन्दमात्र को गौण कर दिया और सन्मात्र को प्रधान कर दिया तो निर्विकल्प समाधि में स्थिर हो गया। भक्ति की प्रक्रिया में आनन्द को प्रधान कर दिया और सत्-चित् को गौण कर दिया। आनन्दमात्र प्रिय हो गया। वेदान्त की प्रक्रिया में यह बात समझने की है कि सत्-चित्-आनन्द ऐसे नहीं है कि इसमें गौण-मुख्यभाव किया जा सके। अतः जब गौणता-मुख्यता की बात आवे तो इनको सच्चिदानन्द के वाच्यार्थ लेते हैं; और अद्वैत वेदान्त में सच्चिदानन्द का लक्ष्यार्थ लेते हैं अर्थात् केवल असत् की निवृत्ति के लिए सत्, अचित् की निवृत्ति के लिए चित्, दुःख की निवृत्ति के लिए आनन्द इस रूप से परब्रह् परमात्मा को समझाते हैं।
मुख्य वृत्ति से, अभिधावृत्ति से ब्रह्म सच्चिदानन्द भी नहीं है, लक्ष्यार्थ की दृष्टि से सच्चिदानन्द है। यह विवेक की बात आपको सुनायी। तो सत् पृथक्, चित् पृथक्, आनन्द पृथक्- ऐसे नहीं; और सच्चिदानन्द का वाच्यार्थ एक और सच्चिदानन्द का लक्ष्यार्थ प्रत्यक् चैतन्याभिन्न ब्रह्म। इस प्रकार से इनका विवेक होता है। ये प्रक्रिया भी जानने की होती है। तो- मदभिस्नेहाद्- यहाँ जो सच्चिदानन्द हैं श्रीकृष्ण, वह झिलमिल-झिलमिल नन्दनन्दन, यशोदानन्दन हैं। यशोदानन्दन होने से व्यापक हैं और नन्दनन्दन होने से आनन्द हैं। यशोदा यश देती है, तो यश का स्वभाव व्यापक होता है। देश में परिपूर्ण कर देना यह यशोदा का स्वभाव है और आनन्द से परिपूर्ण कर देना नन्द का स्वभाव है। अब ये महाराज गोपी जो हैं, उसका दिल तो पिघल गया प्रेम में और वह गलकर बहा जा रहा है कृष्ण में। ++
बोले- वाह-वाह। प्रेम का यह स्वभाव ही है कि जिसके हृदय में आता है उसको पराधीन कर देता है। यही देखो- ज्ञान और प्रेम के स्वभाव में फर्क। ज्ञान हृदय में आता है उसको स्वतंत्र कर देता है और प्रेम जिसके हृदय में आता है उसको परतंत्र कर देता है। अगर तुम्हें प्रियतम के परतंत्र होने में डर लगता है तो प्रेम के रास्ते में पाँव नहीं रखना, भला। वह तो तुमको नचावेगा, गवावेगा, बैठावेगा, वह तुमको जो उसकी मौज होगी आटे की तरह तुमको गूँध देगा। यदि परतंत्र होने में डर लगता तो प्रेम के रास्ते पर नहीं जाना। ज्ञान का स्वभाव है स्वातंत्र्य और प्रेम का स्वभाव है प्रियतम्-पारतंत्र्य। दूसरे की परतंत्रता नहीं, अपने प्रियतम की परतंत्रता। यह प्रेम का स्वभाव है।
तो बोले- ठीक है- तुम हमारे प्रेम में परंतत्र हो करके हमारे पास आयीं। ठीक है गोपियों- आगता ह्युपत्रं वः प्रीयन्ते मयि जन्तवः आगताः आ गयी हमारे पास, बिलकुल युक्तियुक्त है; हम तुम्हारी निन्दा नहीं करते। यह नहीं कहते कि तुमने कुछ गलती की है। तुम्हारे सरीखे प्रेमियों के लिए तो ये बिलकुल ही ठीक लगता है कि तुम प्रेम के पराधीन हो करके हमारे पास आ जाओ। अरे गोपियों! तुम्हारी बात तो क्या करें, तुम तो मनुष्य हो, और मनुष्य ही नहीं, हमारी जाति की अहीर हो, अहीर में भी कुमारी हो; किशोरी! तुम हमारे ऊपर प्रेम करके आ गयी हो तो क्या बड़ी बात है- यहाँ- प्रीयन्ते मयि जन्तवः- क्या तुमने देखा नहीं है कि गौएं भी हमसे प्रेम करती हैं, भैंसे भी हमसे प्रेम करती हैं- प्रीयन्ते मयि जन्तवः भौंरे भी हमे पीछे-पीछे डोलते हैं, चिड़ियाँ भी हमसे प्रेम करती हैं, मोर भी हमको देखकर नाचता है, कोयल भी हमको देखकर कुहुक-कुहुक करती है।
हम जानते हैं कि संसार के सब प्राणी हमसे प्रेम करते हैं। तुम्हीं कोई प्रेम करने वाल नहीं आयी हो, भला! जो-जो हमसे प्रेम करे सबको ब्याह-ब्याहकर घर रखें तो कितनी गायें रखें, कितनी भैंसे रखें- प्रीयन्ते मयि जन्तवः जन्तुपद का अर्थ देखो ना। संसार के सब जन्तु। अरे बाबा। हम रास्ते में चलते हैं तो भी हमारे आसपास चलते-मँड़राते हैं, उनको भी हमारा ही रस प्यारा लगता है। तो जब भँवरे-भँवरी ही हमारे चारों तरफ मँड़राते हैं, गाय हमको देखना चाहती है, हरिणी हमको देखना चाहती है, सारस, हंस, विहंग हमको देखना चाहते हैं, तो कोई हमसे प्रेम करे यह हमारे लिए आश्चर्य की बात नहीं है। अरे। तुमने प्रेम किया, बहुत बढ़िया है, हम तुम्हारे प्रेम का अभिनन्दन करते हैं, तुम बिचारियाँ प्रेम से परतंत्र होकर हमारे पास आ गयीं।
क्रमशः …….
!!”श्रीराधाचरितामृतम्” 128 !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! रसात्मकता !!
भाव रस की परिपक्वता से ही रसात्मकता आती है । और इसी स्थिति में पहुँचाने के लिए हम लोगों को श्रीमहावाणी ने ये पद्धति दी । श्रीमहावाणी जी के पद गाइये …इसमें जो झाँकी हैं …उसका चिन्तन कीजिए । चिन्तन में सेवा लीजिए – निकुँज की वीथिन में सोहनी लगाने की …या आपको जो रुचे । इसी को प्रगाढ़ कीजिए …इसी भावना के प्रवाह में बहिये ….ये तो कर सकते ही हैं आप और हम , नही ? तब देखना एक स्थिति बनेगी ….आपका हृदय शुद्ध होता जाएगा ….हृदय में संस्कारों की जितनी गाँठें हैं , सब छिन्न भिन्न हो जाएँगीं ….आप संसार की क्रिया करोगे तो ….किन्तु बाध्य होकर …करना ही है ….कहकर । आपका हृदय अब शुद्ध पवित्र हो गया है ….नाम जाप कीजिए …..उससे प्रगति और होती ही जाएगी …फिर नेत्रों से अश्रु बहेंगे ….दुःख के नही …सुख के …आनन्द के ….अपने भाग को मनाते हुए कि …आहा ! श्यामा श्याम के ब्याहुला में हम शामिल हैं ! और हमारे सामने युगल सरकार दुलहा दुलहन के रूप में विराजे हैं ….कीजिए दर्शन ! रसात्मक युगल सरकार को ऐसे देखना है जैसे पी जाओगे क्या नयनों से …..और जिह्वा से उनका युगल नाम मन्त्र …..बस ….बस ….ये दो चीज़ आपने पकड़ ली कि …नेत्र से उनका रूप दर्शन ….भावना के द्वारा ….और नाम का वास आपकी जिह्वा में ।
मैं सच कह रहा हूँ ….चिन्तन हृदय से …और वाणी से नाम जाप ….फिर ये निकुँज की लीला आपके सामने प्रकट है ….प्रत्यक्ष है ….मेरा विश्वास कीजिए ।
॥ दोहा ॥
मोहें बने निकुंज में, दंपति रति झूल्हैं।
हास बिनोदनि रँग रँगे, श्रीदुलहनि दूल्हें ।
दूलह दुलहनि जुगल कौ, रूप अनूप सिंगार ।
निरखि निरखि सुख बरनहीं, बिधिवत अमित अपार ॥
अति अपार को कहि सके, अद्भुत आभाऊप ।
को मर्कतमनि दामिनी, सहजानंद स्वरूप ॥
सहजानंद स्वरूप की, अहलादिनि अवतारि ।
विद्युतबरनी लाड़िली, मृगर्नैनी सुकुँवारि ॥
*दिव्य दम्पति , पुष्पों से सजे उस दिव्य सिंहासन में विराजमान हैं …चारों ओर सखियाँ हैं ….कोई चँवर ढुरा रही हैं तो कोई सौंज लेकर खड़ी हैं ….गायन और नृत्य तो चल ही रहा है ……और बड़े ही उन्मद रूप से चल रहा है । अब यहाँ श्याम सुन्दर ने अपनी प्रिया जू को छूने के बहाने से उनके हृदय के हार को ठीक किया ….श्याम सुन्दर के स्पर्श करते ही रोमांच हुआ प्रिया जू को और उन्होंने हाथ हटा दिया । ये सब सखियाँ देख रही हैं …सखियों से भला कुछ छिपा रह सकता है क्या ! वो यहीं हैं …और यहीं रहेंगीं । प्यारे जू ! यहाँ रस लगा है ….हरिप्रिया सखी गम्भीर बन कर श्याम सुन्दर को कहती हैं । कहाँ ? श्याम सुन्दर पूछते हैं ….यहाँ इनके अधरों में ….हरिप्रिया अभी भी गम्भीर ही हैं ….वो प्रिया जू के अधरों को बताती हैं ….श्याम सुन्दर की रति में मती है इसलिए वो ये समझ नही पाते कि सखी विनोद कर रही है…प्रिया जी ने भी अधरों को पोंछ लिया ….अब हो गया ? प्रिया जू ने पूछा …तो हरिप्रिया प्रिया जी को उत्तर न देकर …लाल जू को बोली …आप देखिए । लाल जू ने प्रिया के अत्यन्त अरुण रस भरे अधरों को छूआ …..तो प्रिया जी को और रोमांच हुआ …रोमांच तो लाल जू को अधिक हुआ …..”अब यहाँ भी है” …हरिप्रिया रसमयी है …रस केलि में इन रसिकों को कैसे उतारना है …..इसे आता है । “स्कन्ध में” ….हरिप्रिया गम्भीर ही है ….क्या है प्रिया जू के स्कन्ध में ? श्रीरँगदेवि जू ने हरिप्रिया से पूछा ….तो हरिप्रिया बोलीं ….”कमल का पराग”….हरिप्रिया ने श्रीरंगदेवि जू को बताया ….तो श्रीरंगदेवि जू समझ गयीं …वो मुस्कुराते हुए चंवर ढ़ुराने लगीं ….अन्य श्रीललिता जू आदि ने पूछा …तो श्रीरंगदेवि जू ने कहा …”दम्पति रति झूल्हैं”….अरी सखियों ! अब रतिरंग में ये प्रवेश करना चाह रहे हैं ….और इनकी चाहना देखकर ही हरिप्रिया इन्हें प्रेरित कर रही है । ये सुनकर सब सखियाँ हंस पड़ीं …और प्रिया जी शरमा गयीं ।
इस तरह हास्य विनोद चल पड़ा है …और दुलहा दुलहन रति रँग में अब डूबने लगे हैं ।
सखियाँ इन्हीं को निहारकर मुग्ध हैं ….ये ऐसे लग रहे हैं जैसे नीलमणि और बिजली …नील मणि नीली है …और दामिनी में अद्भुत आभा । जो इनको देखे वो सब कुछ भूल रहा है …बस यही यही उनके हृदय में बस गये हैं । हरिप्रिया यहाँ एक बात कहती हैं अपनी समस्त सखियों से …कि देखो जो हमारे दुलहा सरकार हैं …ये सहज आनन्द रूप हैं ….और दुलहन सरकार आनन्द की आल्हादिनी हैं …सखियों ! ये आनन्द और आह्लाद के मिलन की वेला है । देखो तो ! आल्हादिनी कितनी तेजपूर्ण माधुर्य से भरी हैं ..विद्युत वरण है उनका, कोई भी देखे तो बस मोहित ही हो जाए । हरिप्रिया फिर कहती हैं …कोई भी क्यों ? स्वयं आनन्द को ही देख लो …कैसे अपनी आल्हादिनी पर मुग्ध हैं …और बस देखे ही जा रहे हैं । हरिप्रिया की बात सुनकर सब हंस पड़ती हैं ।
क्रमशः …
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
श्लोक 5 . 14
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: |
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते || १४ ||
न – नहीं; कर्तृत्वम् – कर्तापन या स्वामित्व को; न – न तो; कर्माणि – कर्मों को; लोकस्य – लोगों के; सृजति – उत्पन्न करता है; प्रभुः – शरीर रूपी नगर का स्वामी; न – न तो; कर्म-फल – कर्मों के फल से; संयोगम् – सम्बन्ध को; स्वभावः – प्रकृति के गुण; तु – लेकिन; प्रवर्तते – कार्य करते हैं |
भावार्थ
शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है | यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है |
तात्पर्य
जैसा कि सातवें अध्याय में बताया जाएगा जीव तो परमेश्र्वर की शक्तियों में से एक है, किन्तु वह पदार्थ से भिन्न है जो भगवान् की अपरा प्रकृति है | संयोगवश परा प्रकृति या जीव अनादिकाल से प्रकृति (अपरा) के सम्पर्क में रहा है | जिस नाशवान शरीर या भौतिक आवास को वह प्राप्त करता है वह अनेक कर्मों तथा उनके फलों का कारण है | ऐसे बद्ध वातावरण में रहते हुए मनुष्य अपने आपको (अज्ञानवश) शरीर मानकर शरीर के कर्मफलों का भोग करता है | अनन्त काल से उपार्जित यह अज्ञान ही शारीरिक सुख-दुख का कारण है | ज्योंही जीव शरीर के कार्यों से पृथक् हो जाता है त्योंही वह कर्मबन्धन से भी मुक्त हो जाता है | जब तक वह शरीर रूपी नगर में निवास करता है तब तक वह इसका स्वामी प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में वह न तो इसका स्वामी होता है और न इसके कर्मों तथा फलों का नियन्ता ही | वह तो इस भवसागर के बीच जीवन-संघर्ष से रत प्राणी है | सागर की लहरें उसे उछालती रहती हैं, किन्तु उन पर उसका वश नहीं चलता | उसके उद्धार का एकमात्र साधन है कि दिव्य कृष्णभावनामृत द्वारा समुद्र के बाहर आए | इसी के द्वारा समस्त अशान्ति से उसकी रक्षा हो सकती है |

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