Niru Ashra: 🌲🌻🌲🌻🌲🌻🌲
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 129 !!
रुक्मणी ! मोहे “राधा” कि याद सतावे
भाग 3
🌸🌸🌸🌸🌸
पर नाथ ! ये श्रीराधा कौन है ? रुक्मणी नें पूछा ।
मुझे बहुत नींद आरही है ……..मैं सो रहा हूँ ………..कृष्ण चन्द्र फिर सोनें लगे …………..
मुझे आपनें बताया नही ……..कि ये श्रीराधा कौन है ?
हम सब अत्यन्त सुन्दरी हैं ……शायद स्वर्ग की अप्सरायें भी हमारे सामनें कुछ नही …….फिर आपको ये राधा ही क्यों याद आरही हैं ?
बताइये ! रुक्मणी नें जिद्द की ……….उठ कर बैठ गए थे कृष्ण ।
इधर उधर देखनें लगे ………..रुक्मणी नें कहा …….मेरी ओर देखिये …..अब बताइये …..कौन है ये राधा ?
बस , बहुत रोकना चाहते थे अपनें आपको …..अपनें हृदय के भाव को ……….पर प्रेम छुपा कब है …………..प्रकट होना था , हो गया ।
रुक्मणी ! मुझे श्रीराधा की याद बहुत रुलाती है ।
इतना बोलनें में भी समय लगा था कृष्ण को ।
राधा कौन है ? ये पूछ रही हो , तो सुनो –
राधा प्रेम है , राधा प्रेम की छुअन है , राधा प्रेम का साकार रूप है , राधा आस्तित्व है , राधा अलौकिक नीरवता है और राधा मेरी प्राण है …..राधा , कृष्ण की सर्वेश्वरी है …….राधा क्या नही है ? राधा सब कुछ है ………..इतना बोलते हुए भावातिरेक में डूब गए थे कृष्ण ।
पत्नी कैसे स्वीकार करे……कि अर्धरात्रि में पति अपनी प्रेयसि को स्मरण कर रो रहे हैं ।
रुक्मणी को क्रोध भी आया ………पर क्रोध करना कोई समाधान नही था …………।
रुक्मणी चिन्ता में डूब गयी थीं …………….कुछ समझ में नही आरहा था रुक्मणी के ……….कि राधा में ऐसा क्या है …..जो हम द्वारिका की रानियों में नही है ! ठीक है प्रेम करती है राधा …….पर हम भी तो करते हैं …….और बहुत करते हैं ………फिर राधा राधा , क्यों ?
कृष्ण चन्द्र सो गए थे ……….पर नींद कहाँ अब रुक्मणी को ।
बाँहों में हमारे ………और यादों में कोई और !
पर खीज और बढ़ गयी रुक्मणी की ……….जब फिर कृष्ण के रोम रोम से “श्रीराधा श्रीराधा श्रीराधा” की ध्वनि गूंजनें लगी थी ।
अर्जुन आया है आज……और सुभद्रा कह रही थीं कि …..वृन्दावन गए हैं आर्यपुत्र अर्जुन …….हाँ …..वही राधा की बातें बता गए हैं ।
बता दिया, कोई बात नही ……..बचपन का प्यार था दोनों का ….कोई बात नही ……..पर अब मेरे होते हुए ………महालक्ष्मी की अवतार हूँ मैं ……….मेरे होते हुए……..और मेरे ही क्यों ? मेरे जैसी और भी हैं यहाँ…..सत्यभामा, भद्रा सत्या …….ये सब सुन्दरी हैं ……ब्रह्माण्ड में इनके जैसी कोई नही ……….फिर क्यों हमारे आर्यपुत्र के अन्तःकरण में वो राधा बैठ गयी है …………मुझे जानना होगा कि ……राधा में ऐसा क्या है …..जो हममें नही ! रुक्मणी रात भर सोचती रहीं थीं ।
शेष चरित्र कल –
❤️ राधे राधे❤️
Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! निज निज भावन सों निरखो री !!
गतांक से आगे –
ओह ! वो दिव्यातिदिव्य महल है …नव निकुँज महल । सुन्दर-सुखद शैया पर युगलवर विराजमान हैं ….मत्त हैं , छिन छिन में इन्हें एक दूसरे को देखकर और स्पर्श से रोमांच हो रहा है ….स्वामिनी जू का मुख चन्द्र है तो नयन चकोर हैं श्यामसुन्दर के । मुख से दृष्टि हटती है तो उनके पादपद्म में जाकर टिक जाते हैं …वहाँ इनके नयन भ्रमर बनकर मंडरा रहे हैं । अद्भुत ! तभी प्रिया जू की सुन्दर जघन रूप पुलिन में श्याम सुन्दर के नयन मीन बनकर तैरने लगते हैं ….इस तरह श्याम सुन्दर जब सम्पूर्ण प्रिया जू के श्रीअंगों को देखते हैं ….तब वो मृग बनकर इनके देह कान्ति के सुखद विपिन में विहार करने लगते हैं ।
वहीं हैं श्याम सुन्दर , सटे बैठे हैं , किन्तु रति रस जब बढ़ रहा हो ….तो जैसे आँखें चढ़ जाती हैं ..वैसे ही इनकी भी आँखें चढ़ गयीं हैं ….कुछ भी तो इन्हें इधर उधर का ध्यान नही है …सखियाँ क्या सोचेंगी …अजी ! सामान्य प्रेमी ये नही सोचता तो ये प्रेम स्वरूप ये सोचेंगे ? फिर सखियाँ सोचें तो सोचें ….इनसे छिपा ही क्या है ?
अब देखिए यहाँ ..सखियाँ दम्पति को निहार रही हैं …झूम रही हैं ….क्यों की इन दोउन को जो देख लेता है …वो मदमत्त हो जाता है । उसे इनके सिवा कुछ देखना-सुनना सूझता ही नही है ।
“निज निज भावन सों निरखो री”…..ये बात हरिप्रिया सखी अपनी सखियों को कहती हैं ।
हरिप्रिया सखी हमारी आचार्या हैं ….इसलिए ये सूत्र मानों सखी जू हमें ही दे रही हैं ।
“अरी ! इन युगल के सौन्दर्य को अपने अपने भावों के अनुसार निहारो”।
जो आज्ञा सखी जू !
हम भी साष्टांग प्रणाम करके हरिप्रिया सखी जू को कह रहे हैं ।
॥ दोहा ॥
अली निरखि नव सेज-सुख, मत्त मुदित रस पिज्ज।
कहत परस्पर प्रेममय, निरखौ भावनि निज्ज ॥
निज निज भावनि सों सबै, नैननि निरखौ रीय।
कैसी बिराजति आजु की, सुंदर बर जोरीय॥
|| पद ||
निज निज भावन सों निरखौ री, कैसी बिराजत सुंदर जोरी ॥
करन कामना पूरन मन की जन जीवनि तन घन गोरी।
सहज सलोनी सोभा सरसत बरसत रंग अनंगन को री ॥
अनियारी अंजन जुत अँखियाँ चंचल चितवनि चितचोरी।
दोउ दोउन के प्रीतम प्यारे न्यारे होत न इक छिन होरी ॥
नित्यनवीन किसोर लाडिलौ नित्यनवीनी नित्य किसोरी।
कोटि कोटि कंदर्प दर्प की कोटि कोटि रति की मति मोरी ॥
भुजा परस्पर अंसन दीने रसभीने छबि फबी न थोरी।
निरखि नैंन श्रीहरिप्रिया सहचरी दंपति पर डारति तन तोरी ॥१७२ ॥
*ये अद्भुत जोरी , रसीली रंगीली जोरी , जिनका दर्शन कर सखियाँ प्रमुदित हो रही हैं ।
ये युगलवर सुरत सेज पर विराजे हैं ….इन्हें ही इकटक सखियाँ देख रही हैं ….कुछ न भान है ..न इन्हें कुछ भान रखना है । बोलती नही हैं किन्तु “सुरत सूचक संकेत” युगलवर जब एक दूसरे को करते हैं तो एक सखी दूसरे को कहती है कि – देखो ।
उस समय हरिप्रिया सखी अपनी सखियों को कहती हैं ….इधर उधर मत देखो ….प्रेम सिन्धु में निमज्जित इन युगलवर को ही देखो । कैसे सुन्दरता को भी सुन्दरता प्रदान करने वाले आज सुन्दरता की अद्भुत मूरत बनकर बैठे हैं ।
हे सखियों !
हरिप्रिया अपनी सखियों को सम्बोधित करते हुये कहती हैं ……
अपने अपने भावों के अनुसार इन सुन्दर जोरी को निहारो । अब किसी के मन में दास्य भाव है , वो अपने को दासी ही मानती हैं …तो दास्य भाव से ही , और अगर सख्य भाव से तो मित्र जानों , और सख्य भाव ही हृदय में रखो , अगर वात्सल्य , तो यही भाव सही है ….हरिप्रिया कहती हैं ये तो रस सागर हैं …पूरे के पूरे सागर में स्नान करना , सागर के पूरे जल में स्नान सम्भव नही है …इसलिए “अपने अपने भाव अनुसार”…..ये अगाध प्रेम सिन्धु हैं …इनके प्रेम का कोई थाह नही है ।
सखियाँ सुनती हैं हरिप्रिया सखी जू की बात ……
एक सखी पूछती है ……हमारे मन में जो भाव होगा ये उसी अनुसार पूर्ण करेंगे क्या ?
इस प्रश्न को सुनकर हरिप्रिया हंसते हुये कहती हैं …..सामान्य ब्याह आदि की पूर्णता पर अपने सेवक , मित्र आदि को दुलहा दुलहन देते ही हैं कुछ न कुछ । सखियों ! जब सामान्य दुलहा दुलहन में ये दृष्टि है …ये समझ है तो अरी ! ये तो जीवन दान देने वाली जोरी है ….इसलिए ये बात समझ लो ….हम सब सखियों की मनकामना पूर्ण करने के लिए ये जोरी प्रकट हुई है …..हरिप्रिया कहती हैं – इनको निहारो …बोलो….क्या इनको देखकर प्रेम रस की वर्षा हृदय में नही होने लगती ? इनके कटीले नयन जिनमें अंजन अँजें हुये हैं वो चंचल हो रहे हैं …अपने चंचल मन को बांधने ने लिए इनके नयन ही श्रेष्ठ हैं ….इनके करुणापूरित नयनों को निहारो सखी ! हरिप्रिया इतना बोलकर यहाँ मौन हो जाती हैं ….वो झूम रही हैं ….और कुछ गुनगुना भी रही हैं । ये नव नवीन लगते हैं ना ? कुछ देर बाद फिर अपनी सखियों से हरिप्रिया पूछती हैं ।
ये नवीन ही हैं …..और हाँ , इनका प्रेम भी नवीन है ….निहारो सखी ! अभी भी अपनी प्रिया को ये श्याम सुन्दर ऐसे देख रहे हैं जैसे प्रथम बार इन्होंने देखा हो …..अनन्त काल हो गये एक दूसरे को निहारते किन्तु अभी भी इनका प्रेम नवीन है ….ऐसे नवीन प्रेम को निहारो सखी । हरिप्रिया कितननी आनंदित हैं , उन्हें कुछ सुध बुध नही है । कोटि कोटि कामदेव को मूर्छित करने वाले हैं ये श्याम सुन्दर, और हमारी प्रिया जू को देखकर तो कोटि रति की बुद्धि भी बौराय गयी है ।
तभी श्याम सुन्दर ने अपनी बाँईं भुजा प्रिया जी के स्कंध में रख दी …..प्रिया जी पहले तो थोड़ी सकुचाईं फिर वो भी सहज होकर बैठ गयीं । इस झाँकी का दर्शन करके हरिप्रिया नाचती हैं …साथ सब सखियाँ नाच उठती हैं ….हरिप्रिया नाचते हुए इन सुन्दर जोरी के पास जाती हैं और तिनका तोड़ कर दूर फेंक देती हैं …ताकि अपनी भी नज़र इन्हें ना लगे ।
पूरा निकुँज अब बस नाच रहा है ।
क्रमशः….
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 5 . 21
🌹🌹🌹🌹
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् |
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्र्नुते || २१ ||
बाह्य-स्पर्शेषु – बाह्य इन्द्रिय सुख में; असक्त-आत्मा – अनासक्त पुरुष; विन्दति – भोग करता है; आत्मनि – आत्मा में; यत् – जो; सुखम् – सुख; सः – वह; ब्रह्म-योग – ब्रह्म में एकाग्रता द्वारा; युक्त-आत्मा – आत्म युक्त या समाहित; सुखम् – सुख; अक्षयम् – असीम; अश्नुते – भोगता है |
भावार्थ
🌹🌹
ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है | इस प्रकार स्वरुपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है |
तात्पर्य
🌹🌹
कृष्णभावनामृत के महान भक्त श्री यामुनाचार्य ने कहा है –
यदवधि मम चेतः कृष्णपादारविन्दे
नवनवरसधामन्युद्यतं रन्तु मासीत् |
तदवधि बत नारीसंगमे स्मर्यमाने
भवति मुखविकारः सृष्ठु निष्ठीवनं च ||
“जब से मैं कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगकर उनमें नित्य नवीन आनन्द का अनुभव करने में लगा हूँ और मेरे होंठ अरुचि से सिमट जाते हैं |” ब्रह्मयोगी अथवा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भगवान् की प्रेमाभक्ति में इतना अधिक लीन रहता है कि इन्द्रियसुख में उसकी तनिक भी रूचि नहीं रह जाती | भौतिकता की दृष्टि में कामसुख ही सर्वोपरि आनन्द है | सारा संसार उसी के वशीभूत है और भौतिकतावादी लोग तो इस प्रोत्साहन के बिना कोई कार्य ही नहीं कर सकते | किन्तु कृष्णभावनामृत में लीन व्यक्ति कामसुख के बिना ही उत्साहपूर्वक अपना कार्य करता रहता है | यही अतम-साक्षात्कार की कसौटी है | आत्म-साक्षात्कार तथा कामसुख कभी साथ-साथ नहीं चलते | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति जीवन्मुक्त होने के कारण किसी प्रकार के इन्द्रियसुख द्वारा आकर्षित नहीं होता |


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877