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August 1, 2025 8:02 am

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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 130 !!(2),!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!,& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 130 !!(2),!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!,& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 130 !!

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कराहते हुए बोले कृष्ण चन्द्र – अब एक ही उपाय है ………मेरा कोई “प्रेमी” अगर अपनी चरण धूल मुझे दे दे …..और उसे मैं अपनें उदर में लगा लूँ ………तो ठीक हो जायेगी मेरी यह पीड़ा ।

तो प्रेमी !

नारद जी सोचनें लगे – और उस प्रेमीभक्त को अपनी पैर धूलि देनी है आपको ………यही ना ? नारद जी कुछ देर सोचते रहे …..फिर बोले …….प्रेम तो आपको यह रानियाँ भी करती हैं ……तो क्यों न इनसे ही माँग लूँ …….इनके पाँव की रज ।

कन्धा उचका दिया था कृष्ण नें ………….देख लो नारद ।


सुनो ! सुनो ! द्वारिकाधीश की उदर पीड़ा ठीक हो जायेगी ।

बाहर आकर नारद जी नें रानियों को बताया ।

जय हो नारद जी महाराज की “

…..रूक्मणी नें आनन्दित हो प्रणाम किया ।

पर ठीक करना आप लोगों के हाथों में है ……नारद जी आँखें मटकाते हुए बोले । हाँ हाँ आप बताएं हम वही करेंगीं …….देवर्षि जो करना पड़े हम करनें के लिए तैयार हैं …….आप बताइये ! रुक्मणी नें जोर देकर पूछा ।

आप विचार क्यों कर रहे हैं …….जो बात है बता दीजिये ना ! हम करेंगीं ……हम अपनें प्राण भी दे देंगी……..सत्यभामा क्यों पीछे रहतीं, वह भी बोल दीं ।

हे रानियों ! प्राण नही चाहियें …….आप लोगों की चरण धूलि चाहिये…….पाँव की मिट्टी चाहिये ……..उसका लेप करेंगें कृष्ण …..और तुरन्त ठीक उदर पीड़ा ………….

रानियों नें एक दूसरे के मुख को देखना शुरू किया ………अपनें पाँव की मिट्टी …….? द्वारिकाधीश को ? रुक्मणी सोच में पड़ गयीं ।

आइये आगे …………बारी बारी से आगे आइये ……और मिट्टी में अपनें पांवों को मलते हुए………..नारद जी बोल रहे थे ।

पर कोई आगे नही आया ………………..

नारद जी नें रुक्मणी की ओर देखा – सिर झुकाकर खड़ीं हैं ।

महारानी रुक्मणी !
आप दीजिये अपनें चरण रज को ………नारद जी नें फिर कहा ।

मर्यादा भूल गए क्या देवर्षि ! पत्नी अपनें पति को पांव की मिट्टी दे ……….और उस मिट्टी को उदर में लगायेंगें आर्यपुत्र ………..हाँ हाँ लगाने से ठीक नही हुआ तो ……थोड़ा खायेगें भी …….ये कहते हुए हँसे नारद जी ।

हे नारद जी ! तुम्हारे लिए ये सब हँसी – ठट्ठा होगा … पर हमारे लिये ….ये सुनना भी पाप है ………..ये पाप होगा हमसे ।

नारद जी ! हमें नर्क नही जाना ……….हमें नर्क में जाकर सड़ना नही है ।

सत्यभामा बोलनें लगीं थीं ।

तो फिर आप लोग नही दोगे अपनें पैर की मिट्टी …द्वारिकाधीश को !

नही ……..आप बता दीजिये ……….रानियों की बातें सुनकर नारद जी फिर कक्ष में कृष्ण के ……………

क्या हुआ नारद ! कहाँ है रज ? लाओ ना !

नही दिया किसी नें रज ….. नही दिया ………..

रानियाँ भीतर कक्ष में ही आगयी थीं ……….हे नाथ ! हम कैसे दें ? हमें नरक मिलेगा……..रानियाँ और भी कुछ कहनें जा आरही थीं ……पर कृष्ण चन्द्र नें नारद की ओर देखकर कहा ……….वृन्दावन में, “श्रीराधारानी” के पास हो आओ न नारद !

रानियों नें नाक भौं सिकोड़ा ।

हाँ ……..वृन्दावन तो मुझे याद ही नही रहा …….और श्रीराधारानी !

हाँ ………नारद जी प्रणाम करके चल दिए थे वृन्दावन के लिए ।


देवर्षि आये हैं ? ललिता सखी नें श्रीराधा रानी को कहा ।

महाविरह सागर में डूबीं हैं श्रीराधिका जू ।

प्यारी जू ! देवर्षि आये हैं………और श्याम सुन्दर से मिलकर आये हैं……..द्वारिका से आये हैं ।

बस , इतना सुनना था कि……..श्रीराधारानी उठकर बैठ गयीं ।

कैसे हैं मेरे श्याम सुन्दर ? आप द्वारिका से आये हैं ?

कुशल तो है ना वे वहाँ ? और मेरे श्याम सुन्दर स्वस्थ और प्रसन्न तो हैं ना ? कोई बात तो नही है ? श्रीराधारानी पूछती जा रही थीं ।

क्रमशः …
शेष चरित्र कल –

आज के विचार

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! नित नव कुँज निवासी जै हो !!

19, 1, 2024


गतांक से आगे –

श्रीमहावाणी के पदों को श्रीवृन्दावन के रसिक सन्त, एक सिद्ध परिपाटी के अनुसार गाते रहते हैं ….वो सिद्ध परिपाटी क्या है ? श्रीमहावाणी के पदों को कैसे गाया जाना चाहिए …और कैसे उनका अनुसंधान करना चाहिए …ये बात श्रीवृन्दावन के रसिक जन हम सबको बताते हैं ।

एक पद का गान किया ….फिर दूसरा पद ? नही , ऐसे नही …उसी एक पद को पुनः पुनः गाया जाता है ….उसी पद में से नवीन भाव प्रकट होते रहते हैं ….फिर उनका चिन्तन चल पड़ता है….फिर वो रसिक जन युगल सरकार के लीला-चिन्तन में इतने डूब जाते हैं …कि वो स्वयं रसमय होकर भावना से निकुँज की वीथियों में युगल सरकार की एक झलक देख भी आते हैं । उस समय उनका मन पूर्ण रसमय बन चुका होता है ।

अद्भुत चिन्तन करते हैं ये रसिक जन ।

“निकुँज में प्रिया प्रियतम विराजमान हैं , वो रसाक्रान्त हैं ….मिले हैं किन्तु मिले भी नही हैं …संयोग हैं …नित्य संयोग है ….पर क्या करें उस संयोग में भी महावियोग छिपा हुआ है ।
तृप्ति और प्यास ये दोनों ही हैं यहाँ , एक साथ । जैसे – प्यासे व्यक्ति को कोई जल दे …और वो सुख का अनुभव करते हुए उस जल का पान करे । किन्तु अभी ही जल पीया है और प्यास तुरंत फिर लग गयी ….ये स्थिति प्रेम की चरम है । श्याम सुन्दर तड़फ रहे हैं मिलने के लिए ..किससे ? अपनी ही आल्हादिनी से , मिल लिए …हो गए एक …किन्तु जैसे ही फिर अपने स्वरूप में आए …फिर तड़फ ….कि मिलें “ ।

इस तरह अद्भुत प्रेम तत्व का श्रीवृन्दावन के रसिक जन चिन्तन करते हैं ।

आप भी इन पदों का गायन कीजिए , और चिन्तन को उसी ओर ले जाइये …उसी ओर …निकुँज में जहां हमारे दम्पति किशोर विराजमान हैं , सुरत सेज में ।

॥ दोहा ॥

प्रान त्रान दोउ दोउन के सखियन सुख अमितू।
सबै मिली रस रँग रिली, हिली झिली निज हितू ॥
हितू अलिन के उरनि में, अति आनंद प्रकास ।
नवकिसोर सुखरासि जै, नवनित कुंजनिवास ॥

॥ पद ॥

नित नव-कुंज-निवासी जै जै ।

नवल किसोरी गोरी श्रीराधे नवकिसोर सुखरासी जै जै ॥
नवल नागरी नागर दोऊ नवल-बिहार बिलासी जै जै ।
नवल हितू श्रीहरिप्रिया हिये में नव आनंद प्रकासी जै जै ॥ १७४ ॥

अनन्त सखियाँ एक साथ बोल उठीं ……जै हो !
लतापत्रादि भी बोल उठे ….जै हो !
यमुना की लहरों में गूंज उठी ….जै हो !
पक्षी, शुक पपीहा आदि सब कुहुक उठे …..जै हो !

ओह ! कैसा अनुपम दृष्य था वो …जब अनन्त गोरे हाथ और मीठी ध्वनि नभ की ओर उठी थी …

बोलो – नव निकुँज निवासी की ….जै हो ।

हरिप्रिया ही रसोन्माद फैला रही है ….यही सबको रस में डुबो रही है …अति आनन्द में उछल उछल कर कह रही है , और अन्य सखियों को जैकारा लगाने के लिए प्रेरित कर रही है …उन्हें भी जोर से बोलने के लिए कह रही है ।

हुआ ये ….कि श्रीहरिप्रिया के द्वारा जब इन युगल को “एक”सिद्ध किया ….और बताया कि ..ये दो नही हैं एक हैं , ( कल के पद में ) । और अन्तिम में ये हरिप्रिया सखी जब बोलीं ….

“दोउ श्रीहरिप्रिया एक प्राण”

ये कहते हुए हरिप्रिया रस में डूब गयी थी और उसे अब सुरत सेज में दो नही दिखाई दे रहे थे …एक ही । इस अनुभव को सभी सखियों ने अनुभव किया था ….तभी हरिप्रिया सखी की गुरु हितू सहचरी ….उन्हें भाव का उन्माद चढ़ गया …और वो उन्मत्त नृत्य करने लगीं थीं । वो अपने नृत्य से बता रही थीं कि ये सच में दो नही हैं एक ही हैं ।

ये नृत्य प्रेम से भरा था …पूर्ण प्रेम का प्रकाश इस नृत्य में सबको हो रहा था ।

तब हरिप्रिया ने पहले युगल सरकार को निहारा ….फिर अपनी गुरु हितू सहचरी जू को ….युगल सरकार के ब्याहुला में अपनी गुरु को इस तरह नाचते देखकर हरिप्रिया को कुछ सूझ नही रहा था ….नाचते नाचते जब युगल के चरणों में हितू सहचरी जू गिरीं ….तब हरिप्रिया ने भाव में भरकर , देह भान भूल कर …जयकार लगाना शुरू किया ।

नव किशोर सुख राशि की ….जै हो ।

नव नित कुँज निवासी की …जै हो ।

नवल नागरी नागर की …जै हो ।

नवल बिहार बिलासी की …जै हो ।

ये जयकारा हरिप्रिया सखी के साथ सब लगा रहे हैं ….और हाँ , लता पत्रादि पुष्प भी बरसा रहे हैं ….युगल सरकार के ऊपर पुष्प बरस रहे हैं ।

हितू सहचरी चरणों में पड़ीं हैं युगल के ….भाव में उनके अश्रु बह रहे हैं …..वो अब अपना मस्तक उठाकर अपने युगल सरकार को निहार भी रही हैं ।

तब …..नवल हितू के प्राण की ….जै हो । हरिप्रिया पूरी शक्ति से जयकारा लगाती हैं ।

और तब श्रीहितू सहचरी अपनी शिष्या को देखती हैं ….हरिप्रिया सिर झुका देती है ।

“हरिप्रिया हिय में आनन्द प्रकाशी की”…..जै जै जै हो ।

ओह ! हरिप्रिया चौंक गयीं …वो नमित सिर कर अब मुस्कुरा रही हैं ….क्यों कि ये जयकारा इनकी गुरु हितू सहचरी जू ने लगाई थी ।

इस जैजैकार से ….चारों ओर सुख का समुद्र लहराने लगा था ।

क्रमशः…

🦚 राधे राधे

श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 23
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शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |
कामक्रोधद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः || २३ ||

शक्नोति – समर्थ है; इह एव – इसी शरीर में; यः – जो; सोढुम् – सहन करने के लिए; प्राक् – पूर्व; शरीर – शरीर; विमोक्षनात् – त्याग करने से; काम – इच्छा; क्रोध – तथा क्रोध से; उद्भवम् – उत्पन्न; वेगम् – वेग को; सः – वह; युक्तः – समाधि में; सः – वही; सुखी – सुखी; नरः – मनुष्य |

भावार्थ
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यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है |

तात्पर्य
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यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए | ये वेग हैं – वाणीवेग, क्रोधवेग, मनोवेग, उदरवेग, उपस्थवेद तथा जिह्वावेग | जो व्यक्ति इन विभिन्न इन्द्रियों के वेगों को तथा मन को वश में करने में समर्थ है वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है | ऐसे गोस्वामी नितान्त संयमित जीवन बिताते हैं और इन्द्रियों के वेगों का तिरस्कार करते हैं | भौतिक इच्छाएँ पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है और इस प्रकार मन, नेत्र तथा वक्षस्थल उत्तेजित होते हैं | अतः इस शरीर का परित्याग करने के पूर्व मनुष्य को इन्हें वश में करने का अभ्यास करना चाहिए | जो ऐसा कर सकता है वह स्वरुपसिद्ध माना जाता है और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में वह सुखी रहता है | योगी का कर्तव्य है कि वह इच्छा और क्रोध को वश में करने का भरसक प्रयत्न करे |

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