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August 1, 2025 8:07 am

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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 130 !!,!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (085)& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 130 !!,!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (085)& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🙏🙏🙏🙏

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 130 !!

“तत् सुखे सुखित्वम्” – प्रेम की अद्भुत कहानी
भाग 3

🦜🦜🦜🦜🦜

नही ……..आप बता दीजिये ……….रानियों की बातें सुनकर नारद जी फिर कक्ष में कृष्ण के ……………

क्या हुआ नारद ! कहाँ है रज ? लाओ ना !

नही दिया किसी नें रज ….. नही दिया ………..

रानियाँ भीतर कक्ष में ही आगयी थीं ……….हे नाथ ! हम कैसे दें ? हमें नरक मिलेगा……..रानियाँ और भी कुछ कहनें जा आरही थीं ……पर कृष्ण चन्द्र नें नारद की ओर देखकर कहा ……….वृन्दावन में, “श्रीराधारानी” के पास हो आओ न नारद !

रानियों नें नाक भौं सिकोड़ा ।

हाँ ……..वृन्दावन तो मुझे याद ही नही रहा …….और श्रीराधारानी !

हाँ ………नारद जी प्रणाम करके चल दिए थे वृन्दावन के लिए ।


देवर्षि आये हैं ? ललिता सखी नें श्रीराधा रानी को कहा ।

महाविरह सागर में डूबीं हैं श्रीराधिका जू ।

प्यारी जू ! देवर्षि आये हैं………और श्याम सुन्दर से मिलकर आये हैं……..द्वारिका से आये हैं ।

बस , इतना सुनना था कि……..श्रीराधारानी उठकर बैठ गयीं ।

कैसे हैं मेरे श्याम सुन्दर ? आप द्वारिका से आये हैं ?

कुशल तो है ना वे वहाँ ? और मेरे श्याम सुन्दर स्वस्थ और प्रसन्न तो हैं ना ? कोई बात तो नही है ? श्रीराधारानी पूछती जा रही थीं ।

सब ठीक तो है…………पर ……..नारद जी बोले ।

पर ? पर क्या नारद ?

उनके उदर में पीड़ा है ? उन्हें बहुत असह्य पीड़ा हो रही है ।

बस इतना सुनना था कि ……..श्रीराधा रानी तो मूर्छित ही हो गयीं ।

हे श्याम सुन्दर ! क्या हुआ आपको ?

सखियाँ पुकारनें लगीं ……वृन्दावन रो उठा ……..वृक्ष लता पता सब रो रहे थे ……..नारद जी चकित हैं ये सब देखकर ।

कुछ देर में श्रीराधारानी की मूर्च्छा टूटी …………

हिलकियों से रो रही थीं श्यामा जू ।

कैसे ठीक होंगें वे ? कैसे स्वस्थ होंगें नारद ? बताओ ?

श्रीराधा रानी आक्रामक हो उठी थीं ।

मेरे नाथ वहाँ अस्वस्थ हैं …..और राधा तू यहाँ खुश है ?

धिक्कार है तुझे !

ओह ! अपनें आपकी ही धिक्कारनें लगी थीं श्रीराधारानी ।

कैसे ठीक होंगें वे ? बताओ ? जल्दी बताओ नारद ?

सखियाँ भी पूछ रही थीं …..गोपियाँ भी कह रही थीं ।

बस एक उपाय है ……….नारद जी नें बताना शुरू किया ।

आप लोग प्रेमी हो ……अगर अपनें चरण की धूल आप लोग दे दें …..और उस धूल को कृष्ण अपनें उदर में लेप लें ……..तो दर्द ठीक हो जाएगा ……नारद जी नें कहा। ।

पर ये क्या ? नारद जी के मुख से ये सुनते ही ……….सखियाँ दौडीं यमुना के किनारे ……..सबसे पहले तो श्रीराधारानी ही दौड़ीं थीं ……

नारद जी को बुलाया ……..और स्वयं बृजरज में अपनें पैरों को रगड़ते हुए, उस “रज” को भर भर कर नारद को देंनें लगीं….लो ! नारद ! लो …….जितना चाहिए उतना ले लो ।

नही नही ………..बस काफी है इतना रज ……नारद जी नें रज को एक कपड़े में बाँधा और जानें लगे ……..तो फिर कुछ सोचकर रुके ……

प्रश्न किया ……….और प्रश्न ये था ……….पाप का डर नही लगता ? ………नरक का डर नही लगता ? आपको पता है कृष्ण चन्द्र जू को आप लोग अपनें पैर की मिट्टी दे रही हो …..नरक में सड़ना पड़ेगा तो ?

इसका उत्तर श्रीराधा रानी नें दिया था ……..नारद जी नें वह उत्तर जब सुना ……..साष्टांग लेट गए थे श्रीराधिका जू के चरणों में ।

आहा ! क्या प्रेम है !


आगये नारद जी ! आकाश मार्ग से आगे थे …रानियों नें देख लिया ।

नारद जी उतरे …………..

क्या मिट्टी लाये ? राधा नें मिट्टी दी अपनें पैरों की ?

रुक्मणी नें पूछा ।

हाँ हाँ …..दे दी ……ये कहते हुए तेज़ चाल से कृष्णचन्द्र के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे नारद जी ।

उन्हें नरक से डर नही लगता ? वेदों और शास्त्र की मर्यादा, सब बेच खाईं है उन वृन्दावन की नारियों नें ………..ये क्या ? नरक में सड़ना पड़ेगा उन्हें तो ? रुक्मणी नें कहा ।

नारद जी को अच्छा नही लगा……..वे रुके ………मुड़कर रुक्मणी को देखा ……..फिर उत्तर दिया ।

“मैने भी यही कहा था श्रीराधारानी से ……….पर महारानी रुक्मणी ! उन्होंने जो उत्तर दिया…….सजल नयन हो गए थे नारद जी के ।

श्रीराधारानी नें कहा ……..नारद ! करोड़ों वर्षों तक भी नरक में सड़ लेंगीं ……..हमें कोई आपत्ति नही है……..पर हमारा कृष्ण तो ठीक हो जाएगा ना ! बस हमारे लिए यही काफी है ।

हमें शास्त्र से क्या मतलब ? हमारे “प्राणधन” ठीक हो जाएँ ….बस ।

ऐसी मर्यादा का क्या करना ……..कि हमारे प्रियतम तड़फ़ रहे है दर्द से …..और हम शास्त्र और वेद की दुहाई देकर दूर हो रहे हैं ।

भाड़ में जाए ऐसी मर्यादा …….भाड़ में जाये शास्त्र और वेद ……..”हमारा श्यामसुन्दर ठीक होना चाहिये ….बस ” ।

नारद जी रो गए ……….ये बताते हुए…………उच्चतम प्रेम है ये महारानी रुक्मणी ! ……….जहाँ किंचित् भी “अपनी” सोच नही है ……..बस “प्रिय” की सोच है …….वो कैसे भी हो …..खुश रहें……..प्रसन्न रहें ….इसके लिये हमें जो करना है करेंगीं ……..ये कहा …..श्रीराधारानी नें ।

नारद जी इतना कहकर जैसे ही चलनें लगे कृष्ण के कक्ष की ओर ……तो सामनें कृष्ण चन्द्र खड़े थे ……..नारद ले आये रज ?

आप यहाँ आगये ? आप लेटिये ! आप विश्राम कीजिये …….

नारद जी पास में गए …..रज दिया ……..

उन्हें पाप नही लगेगा ? हँसे कृष्ण चन्द्र !

रुक्मणी का सिर झुक गया था ……..समस्त रानियों का मस्तक झुक गया था ……..अब कोई नही कह सकता कि – राधा क्या है ?

उदर पीड़ा तो थी ही नही ……….अपनी “प्रिया की महिमा” दिखानी थी द्वारिकाधीश को ………वो दिखा दी ।

पर रानियाँ उस समय चकित हो गयीं ……जब रज को उदर में ही क्या सम्पूर्ण शरीर में लगानें लगे थे कृष्ण……….माथे में लगाते हुए तो भावातिरेक में डूब गए द्वारिकाधीश ।

कृष्ण पत्नियाँ स्तब्ध थीं …….रुक्मणी को भी समझ आगयी थी कि – राधा के सामनें हम कुछ नही हैं ……..राधा , राधा है ।

शेष चरित्र कल –

🦚 राधे राधे🦚
Niru Ashra: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! अद्भुत झाँकी !!

गतांक से आगे –

जै जै !

  • आज निकुँज में सखियाँ जै जै कार कर रहीं थीं …..नृत्य और गायन भी कर रहीं थीं ….रसाक्रान्त हो ब्याहुला का पूर्ण आनन्द ले रहीं थीं । कि तभी प्रेम अपनी पराकाष्ठा में पहुँच गया । क्या हुआ ? हुआ ये कि सखियाँ उत्सव में खो गयीं , इधर श्याम सुन्दर को अवसर मिला और वे अपनी प्यारी को निहारने लगे …अपलक , मानों त्राटक ही लग गया हो । अब श्याम सुन्दर ही निहार रहे हों ऐसा नही है ….लाड़ली जू भी उसी त्वरा से निहारने लगीं थीं । कि तभी दोनों बदलने लगे ….प्यारी जू गौर हैं और श्याम सुन्दर श्याम हैं ….एक दूसरे को देखते देखते …ये एक दूसरे में ही खो गये और वही बन गये थे । प्यारी जू श्याम सुन्दर बन गयीं …यानि उनका गौर वर्ण श्याम हो गया और श्याम सुन्दर का वर्ण गौर हो गया । ये देखते ही देखते हुआ था ।

सखियाँ जै जै कार करने में मग्न थीं …नृत्य और गायन में ये सब डूबी हुईं थीं कि …जब दोनों का रँग बदला तो ढंग भी बदल गया । हंसते हुए प्यारी जू ने अपने प्यारे को अपनी चूनर ओढ़ा दी और प्यारी को श्याम सुन्दर ने अपनी पीताम्बर । चंद्रिका श्याम ने धारण कर लिया और मुकुट प्यारी जू ने । लो जी ! प्रेम की पराकाष्ठा …ये तो एक दूसरे में ऐसे खोए कि पूरे ही बदल गये….

“हरि बने भामिनी , भामिनी हरि बनीं”

जै हो !

!! दोहा !!

जै जै कहि सहचरी सबैं, अबै देहु सुख एह।
बना बनी गति अंक पुनि, निरखैं नैंनन नेह ।।
बना बनी की जोरि बर, बनी जु अद्भुत नीय।
हरिजु बनी श्रीभामिनी, भामिनि हरि जु बनीय ॥

॥ पद ॥

हरि बने भामिनी भामिनी हरि बनी जोरि अद्भुत बनी बना बनी की।
बिसदबर धाम वृंदाबिपन नित्य नव कुंज में केलि कमनीय नीकी ॥
मुकुट रचि मौर सिर मोहनी कें लसै मदनमोहन कें सिरमौरी सोहैं।
अंग छबि जगमगै कौन घन चंचला कामरति की कला कोटि मोहैं।
हार हिय लालकें बाल कें माल उर मौक्तिकी मंजु मनि पट सहाने।
अमल उद्योतकर आभरन हरन मन माधुरी मदन तन लहलहाने ॥
पीय को सुरँग उतरीय लै उमँग सों रंगदेवी रुचिर गाँठ जोरी।
चपल चखि चितवनी तिरछि करि अति लसी मंद मुसकै हँसी नवकिसोरी ॥
गारि गावैं सहेली सखी सहचरी सुंदरी सुरमिली टोल टोलैं।
नूत नवमंजरी चाखि मधुरितु मनो कंठ कल कोकिला बोल बोलें ॥

***हे सखियों ! जै जैकार खूब हो गया …नृत्य और गायन भी हो गया …अब थोड़ा इन नव दम्पति पर भी ध्यान दो ….हितू सहचरी जू ने ये बात कही थी ….तो सब युगलवर की ओर देखने लगे …..किन्तु कुछ बदल गया है …हरिप्रिया ने कहा । श्रीरँगदेवि जू बोलीं – सब कुछ बदल गया है । देखो तो श्याम सुन्दर भामिनी बने हैं …और भामिनी प्रिया जी श्याम सुन्दर बन गयीं हैं ….ये कहते ही ….वहाँ से युगल दम्पति चले गये ….अब सखियाँ इधर उधर देख रहीं हैं …..दूर देखा तो उधर श्रीवन की शोभा विशेष खिल गयी हैं …ये देखते ही सारी सखियाँ उस ओर चल दीं ….जब उस कुँज में गयीं तो चकित ! ये क्या हो गया था ….उस कुँज में विहार कर रहे थे ये दम्पति ….किन्तु दोनों बदल गये थे ……ये बात अब हरिप्रिया सखी ने स्पष्ट किया था ।

भाग तो हमारे हैं सखी ! कि ऐसी विलक्षण झाँकी को निहारने का अवसर हमें मिला है ।

कैसी विलक्षण झाँकी ! अहो ! श्याम सुन्दर जो हैं वो प्रिया जी हैं और प्रिया जी श्याम सुन्दर हैं ….ये एक दूसरे के रँग में रँग चुके हैं ….और एक दूसरे ही बन गये हैं । हंसती हैं हरिप्रिया …तो अनन्त सखियाँ भी अपने आनन्द को छिपा नही पातीं …और उनकी प्रसन्नता खिल जाती है । उन्मद होकर हंसती हैं ।

हरिप्रिया देख रहीं हैं …और सभी सखियों को बता भी रहीं हैं ….देखो ! ये जो पुष्पों का चयन कर रहे हैं श्याम सुन्दर के भेष में , ये हमारी स्वामिनी जू हैं …और जो इनके पीछे पीछे चल रहीं हैं प्रिया जू के भेष में , वो श्याम सुन्दर हैं ।

“ये दुलहा दुलहन तो बड़े ही रसीले हैं”…..अन्य सखियाँ अति आनन्द से बोलीं थीं ।

हरिप्रिया कहती हैं …रसीले क्यों न होंगे ….ये रस से ही तो बने हैं । और विपरीत भेष धारण करके इन्होंने ये भी अब बता ही दिया है कि “रस केलि” अब उद्दाम खिलेगी । अरी सखियों ! अपने नयनों को सफल करो और इन दोउ लालन और लाड़ली के विपरीत रूप को निहारो । ये लाभ हमको ही प्राप्त है और किसी को नही । अपनी हरिप्रिया सखी जू की बात सुनकर सब सखियाँ भाव में डूब गयीं । ये झाँकी तो सच में अद्भुत थी …श्याम सुन्दर ने चोली कसी थी और प्रिया जू ने श्याम सुन्दर का शाही पोशाक …..प्रिया जी का हार श्याम सुन्दर ने और श्याम सुन्दर की माला प्रिया जी ने । और बीच बीच में ये मुस्कुराते हुए भी जा रहे थे , जब मुस्कुराते , तब बिजली सी चमकती है …..चारों ओर आभा फैल जाती है । ये इतने सुंदर लग रहे हैं जिसकी कोई सीमा नही है ..कामदेव तो पहले ही मूर्छित पड़ा है और रति तो प्रिया जी की चरण किंकरी ही हो गयी थी ।

तभी – श्रीरंगदेवि जू हंसती हुयी आगे आयीं ..और श्याम सुन्दर की चूनर लेकर प्रिया जी के पीताम्बर से गठजोर कर दिया ..ये देखते ही सारी सखियाँ करतल ध्वनि करके उन्मद हो गयीं ।

तभी प्रिया जी की ओर टेढ़ी नज़र से श्याम सुन्दर ने देखा तो प्रिया जी जोर से हंसीं ….उनकी हंसी में माधुर्य सार था ….जिससे पूरा निकुँज ही मधुर रस में डूब गया ।

अब ये दोनों श्रीवन में भ्रमण करने लगे तो उनके पीछे सारी सखियाँ चल पड़ीं …..ये दोनों मुँह छिपाकर हंस रहे हैं ….प्रिया जी ने श्याम सुन्दर को लता की ओट में चूम लिया …अब सखियाँ ये समझ नहीं पायीं कि …चूमा किसने हैं …प्यारी जी ने या प्यारे ने । अद्भुत ! इस बात को भी ये सखियाँ भूल गयीं कि दोनों बदल गए हैं ….तब ….हरिप्रिया सखी पीछे पीछे चलते हुए गारी सुनाने लगीं थीं तो पीछे चल रहीं अनन्त सखियाँ उसी गारी को दोहरा रहीं थीं …क्या झाँकी थी ये ।

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (085)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं

अब समझो इसका अभिप्राय। इसमें बड़ी बिन्दी हैं श्रीकृष्ण। बिलकुल, साँवरे-सलोने बिन्दु हैं। और ये जो सैकड़ों-हजारों छोटे-छोटे बिन्दु हैं ये गोपियाँ हैं। जब तक ये पति की ओर, पुत्र की ओर, संसार की ओर मुख किए हुए थीं, तब तक उनका पहला चित्र था। औ जब उन्होंने श्रीकृष्ण भगवान की ओर अपना मुख किया, और उनको विषय करने की कोशिश की तब यह हो गया उनका दूसरा चित्र-श्रीकृष्ण की ओर उन्मुखता। धन को छोड़कर, घर को छोड़कर, भोग को छोड़कर, मोक्ष की आकांक्षा को छोड़कर अपने प्रियतम को मिलने के लिए, अपने प्रियतम को विषय करने के लिए, वे सब की सब श्रीकृष्ण के पास चली आयीं।

अहं की प्रधानता से, त्वं-पदार्थ की प्रधानता से, अध्यात्म की चर्चा होती है और श्रीकृष्ण की प्रधानता से भक्ति की चर्चा होती है। परंतु शास्त्र में त्वं-पदार्थ अध्यात्म विषय और तत्-पदार्थ प्रधान भक्तिपरक अधिदैव की चर्चा दोनों तत्त्वमसि आदि महावाक्यार्थ के लिए है। अध्यात्म और अधिदैव की एकता महावाक्य द्वारा होती है। महावाक्य जन्य जो ब्रह्माकारवृत्ति है उसको श्रीराधारानी के नाम से कहा जाता है। श्रीराधारानी ब्रह्मविद्या हैं, उनक कृष्ण ब्रह्म के साथ नित्यसंयोग है। इतनी बात तो मशहू है कि गोप की पत्नी को गोपांगना बोलते हैं, गोपी बोलते हैं। बुड्ढे, बच्चे, मूर्ख, सब जानते हैं कि गोपी माने व्रज की ग्वालिन। लेकिन विद्वान लोग एक-एक श्रुति के रूप में गोपी को पहचानते हैं। सारी श्रुतियाँ दौड़ी जा रही हैं मिलने के लिए-

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तंगच्छन्ति नामरूपे विहाय ।

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं इसका वर्णन किया है-

ता नाविदन् मयि अनुषंगबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम् ।
यथा समाधौ मुनयोऽब्धितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे ।

ग्यारहवें स्कन्ध में श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव से जब गोपियों का वर्णन किया, तो बोले- यथा समाधौ मुनयः- जैसे मुनि समाधि में स्थित होते हैं। यह अध्यात्म हो गया, अब्धितोये नद्यः प्रविश्य इव यह आधिभौतिक हो गया, जैसे नदियाँ जाकर समुद्र में मिलती है। अध्यात्म में वृत्तियाँ जाकर अहं में विलीन होती है। और ता नाविदन् मयि अनुषंगबद्ध- वैसे ये गोपियाँ सब कुछ छोड़कर मुझ श्रीकृष्ण में तन्मय हो गयीं। यह अधिदैव हो गया। अधिदैव में संपूर्ण वृत्तियाँ- गोपियाँ श्रीकृष्ण में जाकर मिलती हैं। तो संपूर्ण श्रुतियों का परम तात्पर्य परमात्मा में है।+

इड़ा, पिंगुला, सुषुम्ना आदि, संपूर्ण नाड़ियों की अंतिम गति परमात्मा में है- ऐसा भी वर्णन है-

शतं चैका च हृदयस्य नाड्यः तासां मूर्द्धानं अभिनिः सृतैका ।
तयोर्ध्वमायम्नमृतत्त्वमेति विष्वङ् अन्या उत्क्रमणे भवन्ति ।।

सैकड़ों नाड़ियाँ हैं इस शरीर में। उनमें से एक मूर्धा में जाती है। जो उस नाड़ी से, सुषुम्ना से चलता, उसे अमृतत्त्व की प्राप्ति होती है। तो श्रुति नाड़ी और वृत्ति ये गोपियों के आध्यात्मिक रूप हैं जो अहं तत्त्व आत्मा के प्रति समर्पित होती हैं; और आधिभौतिक रूप से वही ग्वालिनी हैं, जो श्रीकृष्ण के प्रेम में, भगवान् के प्रेम में मग्न हैं।

अब जब ये वृत्तियाँ अहं के पास पहुँच गयीं, तो ठीक वैसे जब कोई नदी समुद्र में मिलने के लिए जाती हैं, एक ज्वार आया समुद्र में बड़े जोर से और महाराज नदी जी को उल्टा फेर दिया कि आओ लौट जाओ। आपने कभी देखा है संगम स्थल? नर्मदा मिलती है खम्भात की खाड़ी में, गंगाजी मिलती है बंगाल की खाड़ी में। तो जब समुद्र में ज्वार आता है तो उनको लौटाकर दूर कर देता है। और फिर थोड़ी देर में जब भाटा आता है तो नर्मदा का जल, गंगा का जल, जाकर समुद्र में मिल जाता है। मिलती हैं नदियाँ ही समुद्र में यह आधिभौतिक रूप हुआ। और ये वृत्तियाँ जो हैं एक बार विषय की ओर जाती हैं और दूसरी बार आत्मा में ही लीन होती हैं। यह आध्यात्मिक पक्ष हुआ। आधिदैविक पक्ष में ये गोपियाँ एक बार रोक दी जाती हैं कि ठहरो! तुम अपने बल पर हमको विषय करना चाहती हो? भला स्वयं प्रकाश आत्मदेव वृत्तियों के विषय कैसे हों? पर्ण स्वतंत्र, समर्थ, परमार्थ देव वृत्तियों के चपेट में कैसे आवें? इतना बड़ा जलग्रासी वह समुद्र, उसमें अपने बल पर नदी जाकर कैसे मिले?

रोक दिया- ठहरो! क्या गति हुई? कृत्वा मुखान्यव मुँह लटक गया। क्यों? क्योंकि घर तो ये छोड़ चुकी हैं, संसार तो ये छोड़ चुकी हैं, वहाँ तो अब लौटकर जा नहीं सकतीं और जिनके लिए सबको छोड़ा, उन्होंने ना कह दिया, कह दिया हम अविषय हैं। यदि वे घर को फिर लौट जायँ तो अपने लक्ष्य से, अपने साधन से च्युत हो गयीं और यदि लौटती नहीं है, तो भी लक्ष्य प्राप्त नहीं होता दिखता। विषय भी नहीं करती और लौट भी नहीं सकतीं। इसलिए मुख लटक गया।++

प्रवृत्ति भी नहीं, निवृत्ति भी नहीं, एक समता की दशा में आ गयी। ‘शुचः श्वसनेन शुष्यद् बिम्बाधराणि’ विम्बाधर में जो ब्रह्म रस था वह सूख गया। ब्रह्म विषय का रस चला गया। ‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ चरण से पृथ्वी का उल्लेख करने लगीं। कहती हैं- हे पृथ्वी, तुम फट जाओ, हम तुम्हारे अन्दर समा जायँ। पूछने लगीं कि क्या विधाता ने हमारे भाग्य में यही लिखा था? नहीं-नहीं, क्या तुम समझती हो कि हम लौट जायेंगी?

प्रेम में दृढ़ता चाहिए, और परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान में जो प्रीति है उसमें भी दृढ़ता चाहिए, नहीं तो लौट जाएगा विषय की ओर। लगीं और अपने पाँव से धरती खोदने, तो क्यों? बोलीं- हम गाड़ देंगी अपने पाँव धरती में; अगर हमारा मन चंचलता करेगा, तब भी हम मानने वाली नहीं है, लौटने वाली नहीं है। ‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ गोपियों ने अपने पाँव से धरती को कुरेदा और पूछा- अरी ओ धरती। क्या तुमने किसी भी कृष्णावतार में गोपियों को घर लौटते देखा है? कभी नहीं लौटते हैं तो आज भी गोपियाँ नहीं लौटेंगी। यदि श्रीकृष्ण नहीं मिले तो हमारा जन्म निष्फल है, अब मुँह में कालिख लगा लें क्या।

‘चरणेन भुवं लिखन्त्यः’ देखो, जब वृत्ति सीधे परमात्मा में नहीं लगी तब उन्होंने क्या किया कि ‘चरणेन पादकल्पनया’ भुवं सत्तां ब्रह्म विश्वतैदति प्राजारूपेण लिखन्त्यः बोले- पूरा ब्रह्म तो विषय नहीं होता, आओ पाँव से पादकल्पना करें। यह जाग्रत- अवस्थारूप विश्व, यह स्वप्नावस्थारूप तैजस, यह सुषुप्ति-अवस्थारूप प्राज्ञ, इस प्रकार पाद की कल्पना से (भू सत्तायाम्) भुवं लिखन्त्यः चरणेन माने पादकल्पना से; और पृथ्वी का अर्थात् ब्रह्म-सत्ता का उल्लेख कर रही हैं माने ब्रह्मसत्ता में पहुँचने का प्रयास कर रही हैं।

अस्त्रैरुपात्तमषिभिः कुचकुंकुमानि तस्थुर्मुजन्त्य उरुदुःखभराः स्म तूष्णीम् ।

कुचकुंगकुमानि गोपियों ने अपने वक्षस्थल पर केसर लगा ली थी जिसमें स्वेदजन्य दुर्गन्ध न आवे हमारे प्रियतम को! वक्षस्थल पर पसीना होने से जो दुर्गन्ध आती है उस दुर्गन्ध से हमारे प्रियतम को अरुचि न हो, इसके लिए केसर का लेप करते हैं। अब आँखों से आँसू की धारा बही, उसके साथ कज्जल प्रवाहित हुआ, और उससे वक्षस्थल पर जो केसर लगी थी वह धुलने लगी। काजल क्यों मिल गया आँसू में? ये आँसू जो हैं ना, ये हृदय की द्रवता को दिखाने के लिए हैं। पिघलता है दिल र गीली होत हैं आँखें।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

क्रमशः…

श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 5 : कर्मयोग – कृष्णभावनाभावित कर्म
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श्लोक 5 . 24
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योSन्तःसुखोSन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव यः |
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोSधिगच्छति || २४ ||

यः – जो; अन्तः-सुखः – अन्तर में सुखी; अन्तः-आरामः – अन्तर में रमण करने वाला अन्तर्मुखी; तथा – और; अन्तः-ज्योतिः – भीतर-भीतर लक्ष्य करते हुए; एव – निश्चय हि; यः – जो कोई; सः – वह; योगी – योगी; ब्रह्म-निर्वाणम् – परब्रह्म में मुक्ति; ब्रह्म-भूतः – स्वरुपसिद्ध; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |

भावार्थ
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जो अन्तःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्तःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है | वह परब्रह्म में मुक्त पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है |

तात्पर्य
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जब तक मनुष्य अपने अन्तःकरण में सुख का अनुभव नहीं करता तब तक भला बाह्यसुख को प्राप्त कराने वाली बाह्य क्रियाओं से वह कैसे छूट सकता है? मुक्त पुरुष वास्तविक अनुभव द्वारा सुख भोगता है | अतः वह किसी भी स्थान में सुख की कामना नहीं करता | यह अवस्था ब्रह्मभूत कहलाती है, जिसे प्राप्त करने पर भगवद्धाम जाना निश्चित है |

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