Niru Ashra: !! “श्रीराधाचरितामृतम्” 141 !!
रुक्मणी राधा भेंट भई ….
भाग 1
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आज्ञा मिल गयी है सत्यभामा ! स्पष्ट कहा है द्वारिकाधीश नें कि “तुम्हे राधा से मिलना चाहिये”………सत्यभामा ! मैं तुमसे ही कह रही हूँ ……..जिस राधा के लिये हमारे नाथ …..”राधा राधा राधा” कहते हुये भावुक हो उठते हैं ……..देखें तो सही …….कि कितनी सुन्दरी है वो राधा ! देवर्षि नारद जी झूठ नही कहते ………उन्होंने एक बार भरी सभा में कहा था ……कि पृथ्वी की कन्याओं में , देव कन्याओं में …….नाग कन्याओं में ……….महारानी रुक्मणी के समान कोई सुन्दर नही है ………और मैं ही क्यों तुम भी अतीव सुन्दरी हो ……….अन्य रानियाँ भी किसी से कम तो नही है……..सत्यभामा को कह रही थीं महारानी रुक्मणी ।
सोचती हूँ सत्यभामा ! कि मिल ही लूँ राधा से ……देख तो लूँ कि कैसी है वो राधा ।
और फिर द्वारकेश के बालापन की जोरी को देखनें का अवसर हमें खोना नही चाहिये ।……..बात को समाप्त करते हुए चलनें की तैयारी करनें लगीं थीं रुक्मणी ।
जीजी ! खाली हाथ जाना उचित न होगा ……….गौ का दुग्ध ले लें …..राधा को पिला देंगे…….अच्छा भी लगेगा……….सत्यभामा की बात ठीक लगी रुक्मणी को …….उष्ण करके दुग्ध एक पात्र में रख लिया …………..और पात्र को ढँककर ले चलीं सत्यभामा ……….आगे आगे रुक्मणी चल रही थीं ।
“वृन्दावन शिविर”
हँसता खेलता उत्सव मनाता ये शिविर है………..पूरे कुरुक्षेत्र में ऐसा प्रेमपूर्ण शिविर शायद ही होगा ।
गीत गाये जा रहे हैं ………..ग्वाल बाल आनन्दित हो नाच रहे हैं ।
तभी रुक्मणी और सत्यभामा नें प्रवेश किया ………
सब लोग स्तब्ध से हो गए ………………
भाभी ! राम राम ! विचित्र है मनसुख ………सबके सामनें आगे बढ़कर “भाभी” कह रहा है ?
फिर बृजभाषा में सबसे बोला – अपनें कन्हैया की पत्नियाँ हैं ।
बस मनसुख नें जैसे ही ये कहा ……..सब देखनें के लिये आगये ……….शिविर के जो लोग थे ……”.कन्हैया की बहु आयी है”……….बस इतना सुनना काफी था …..सब उठ उठकर आये थे देखनें के लिये ।
माता यशोदा कहाँ हैं ? रुक्मणी नें बड़े आदर से पूछा था ।
बहु ! वो सो गयी है…………थक जाती है जल्दी ……….आज उसका कन्हैया आकर गया है ना ……तो सो गयी ……..तुम्हे जानकर आश्चर्य होगा कि सौ वर्षों से वो सोई नही थी …………
नन्दबाबा आगये थे ……….और रुक्मणी को देखकर प्रसन्न थे ।
भाभी ! यही है तुम्हारे ससुर जी ! हँसते हुये मनसुख नें कहा ।
सिर ढंकते हुए नन्द राय को वन्दन करना चाहा रुक्मणी और सत्यभामा नें……..पर – ये पगला है मनसुख………बहू ! ये सब कुछ करनें की जरूरत नही है……सुनो ! सामनें चली जाओ ……राधा वहीँ पर है ………..मिल लो उससे………..तब तक यशोदा भी जग ही जायेंगीं…..नन्द बाबा नें राधा के पास भेज दिया था रुक्मणी और सत्यभामा को ।
एक अत्यन्त सुन्दरी……गौरवर्णी है ……पीली साड़ी धारण की हुयी है ……रुक्मणी चौंक गयीं ……..सत्यभामा ! देख ! वो रही राधा……..बहुत सुन्दर है ये तो ………इनके आगे हम तो कुछ नही हैं …….रुक्मणी दुःखी हो गयीं थीं ।
फिर भी आगे बढ़ना तो था ही……जब आही गए हैं तो मिलना था ही ।
आगे चलीं रुक्मणी और सत्यभामा…………सामनें जो सुन्दरी थी ……..उनके आगे नतमस्तक हुयीं दोनों ही ……….
हे राधा ! मैं द्वारिका की महारानी रुक्मणी हूँ ………..और ये सत्यभामा हैं ……..आपको हम नमस्कार करते हैं …..रुक्मणी नें आगे बढ़कर ये सब कहा था ……और प्रणाम भी किया ।
नही नही ……..आप से गलती हो गयी……….”हम राधा नही है” ………….वो सुन्दरी बोल रही थी ।
फिर कौन हैं आप ? ऐसी सुन्दरता तो हमनें कहीं नही देखी …..कौन हो आप ? रुक्मणी नें पूछा ।
मैं ? मैं तो श्रीराधारानी की दासी की भी दासी हूँ …..आप अंदर चलें …….हमारी स्वामिनी भीतर बैठी हैं ………उस प्रेमपूर्ण सेविका नें बड़ी विनम्रता से कहा था………….
स्तब्ध हो गयीं रुक्मणी सत्यभामा ……….दासी की दासी इतनी सुन्दरी है तो वो श्रीराधा महारानी कितनी सुन्दर होंगी !
सामनें एक दिव्यआभा से भरी………सुन्दरी इतनी कि ….सुन्दरता भी सकुचा जाए…………
उनके आस पास चार चार सखियाँ थीं…….दिव्य सखियाँ…….
हे राधिके ! मैं द्वारिका की महारानी रुक्मणी ………….इतना कहते हुए जैसे ही झुकीं रुक्मणी………..तभी ललिता सखी नें उठा लिया रुक्मणी को……….अपराध न कीजिये ………मैं श्रीराधा नही हूँ …….मैं तो उनकी सेविका हूँ …………पर मेरी स्वामिनी नें आज तक किसी को अपनी सेविका माना ही नही है…………..वो तो सबको “सखी” कहती हैं ….”सहचरी” कहती हैं …….ये उनकी महानता है ।
ललिता सखी जब बोल रही थीं…….तब उनके गुलाबी अधर , पतले पतले अधर……और उनका मुखमण्डल दिव्य तेज़ से दमक रहा था ।
चलिये मेरे साथ ………इतना कहकर रुक्मणी और सत्यभामा को अपनें साथ लेकर चल दीं ललिता …….श्रीराधा रानी के पास ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल-
🎈 राधे राधे🎈
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 27 )
गतांक से आगे –
॥ पद ॥
सदा सुदंपति कें मन मानी। महल टहल में महा सयानी ॥
डोलत बोलत कोकिल बानी । रमझमाति रति रस में रानी ॥
परम चतुरि जिय की सब जानें। समझि समझि सोई बिधि बानें ॥
मुख तें जोइ जु वचन बखानैं। जाकों सुनि दोऊ रुचि मानैं ॥
छिन छिन प्रति नव नेह जनावैं। बिबिधि बिनोद मोद उपजावैं ॥
नवल जुगलबर कैं मन भावैं। अंग अनंग तरंग बढ़ावैं ।।
दुतिय सुदेवी सहचरि जानों। महामोहनी मन की मानों ॥
काबेस्यादिक आठ बखानों। तिनकी आठ आठ परिवानों ॥
****ये श्रीसुदेवी जी हैं” मुझे दर्शन कराये हरिप्रिया जी ने । और ये भी बताया कि अष्ट सखियों में ये दूसरी सखी हैं । इनका मुखमण्डल तो श्रीरंगदेवि जी से मिलता है ! मैंने जब कहा तो….क्यों नही मिलेगा ….दोनों बहनें हैं …और जुड़वा हैं । हरिप्रिया जी ने मुझे बताया । ओह ! मैंने श्रीसुदेवी जी के चरणों में प्रणाम किया …बड़ी श्रीरंगदेवि जी हैं ये छोटी हैं …कुछ घड़ी का ही अन्तर है । ये प्रिया प्रियतम को आनन्द देती हैं , विशेष – प्रिया जी की लाड़ली तो ये हैं हीं , किन्तु लाल जी को भी ये बहुत प्रिय हैं …बहुत प्रिय । हरिप्रिया जी एकाएक उत्साहित हो उठीं …और चहकती हुई बोलीं …सुनो , सुनो …ये उस दिन की घटना है …फिर मुझे बताने लगीं ।
उस दिन थकीं थीं …श्रीसुदेवी जी । क्यों की उत्सव में बहुत नृत्य किया था इन्होंने ….फिर सेवा में भी उत्साह से भाग लिया था …हाँ , उस दिन ब्याहुला उत्सव था ….कुछ स्मरण करके हरिप्रिया बोलीं थीं । रात हो गयी , रात क्या अर्धरात्रि हो गयी थी । युगलवर को शयन कराकर सब सखियाँ अपने अपने महल में आगयीं । यहाँ हरिप्रिया कुछ देर के लिए चुप हो जाती हैं ….फिर आगे बोलती हैं …..श्रीसुदेवी जी अपने पर्यंक में लेट गयीं ..उनकी पलकें भारी हो गयीं तो नेत्र बन्द कर लिए …तभी किसी के हाथों ने श्रीसुदेवी जी के पाँव दबाने शुरू कर दिए थे…कौन ? श्रीसुदेवी जी ने एक बार अपनी आँखें खोलकर देखीं ….तो श्रीरंगदेवि जी दिखाई दीं । आपस में सखियाँ एक दूसरे की सेवा करती ही थीं …आज श्रीरंगदेवि जी ने की ….ऐसा सोचकर श्रीसुदेवी जी ने अपने नेत्र बन्द कर लिए ….और कुछ देर में उनको पता नही क्या कुछ स्मरण आया ….उन्होंने नेत्र खोले तो वहाँ कोई नही है ….फिर श्रीसुदेवी जी ने अपने नेत्र बन्द कर लिए …उन्हें लगा श्रीरंगदेवि जी चली गयीं होंगी अपने महल में …तभी कुछ देर में श्रीरंगदेवि जी आयीं ….श्रीसुदेवी जी ने अपने नेत्र खोलकर ….”पाँव अच्छे से दबा दिए आपने”…श्रीरंगदेवि जी से कहा , इधर उधर देखते हुए श्रीरंगदेवि जी बोलीं …मैं तो आयी नही , मैंने कहाँ पाँव दबाये !
क्या ? आप अभी नही आयीं ? आपने ही मेरे पाँव नही दबाये ? स्पष्ट कहा श्रीरंगदेवि जी ने …”नहीं”। अरे ! ये मुंदरी ? श्रीरंगदेवि जी को श्रीसुदेवी के पर्यंक में मिली एक मुंदरी , उसे उठा ली थी , श्रीसुदेवी जी भी उठ गयीं । “ये तो स्वामिनी जू की मुंदरी है ना ? हाँ , ….श्रीरंगदेवि जी ने कहा । पर ये यहाँ कैसे ? तभी – ओह ! श्रीसुदेवी जी के नेत्रों से झर झर अश्रु बहने लगे थे …..आप ने मेरे पाँव नही दबाये ? श्रीरंगदेवि जी ने कहा …सुदेवी ! तुम्हारी सौं मैंने नही दबाये । बस , हिलकियों से रोती हुई श्रीसुदेवी जी बोलीं …करुणामयी आयीं थीं ….और तुम्हारे रूप में आयीं थीं मेरे पाँव दबाकर चली गयीं । ओह ! अब दोनों बहनें रोने लगीं …और यही कह रहीं थीं कि …..कितना ध्यान रखती हैं स्वामिनी हम दासियों का भी ।
हरिप्रिया अपने अश्रु पोंछते हुये कहती हैं – किन्तु स्वामिनी ने कभी हम सबको दासी माना ही नही …वो अपनी सखी कहती हैं ….उनका वश चले तो अपने पास ही वो बैठायें । वो तो हम हैं जो जोर-ज़बर्दस्ती से उनके चरणों में ही बैठती हैं ।
यही श्रीसुदेवी जी हैं ……इनके मन में बस प्रिया लाल ही समाये हुए हैं ….और हाँ , ये श्रीसुदेवी जी जैसी हैं वैसी ही इनकी सखियाँ भी हैं …..अष्ट सखियाँ हैं इनकी भी …ये अपनी सखियों को बहुत प्यार करती हैं …युगल की सेवा में अपनी सखियों को आगे रखती हैं …ताकि सेवा करने का सुख उन्हें भी मिले । प्रेम रस में निमग्न होकर झूमती आनन्द रस में डूबती ये बस -राधा , राधा राधा ही पुकारती रहती हैं, हरिप्रिया जी बोलीं – प्रतिक्षण इनका प्रेम नवनवाय मान होता रहता है ।
अब श्रीसुदेवी जी की अष्ट सखियों का नाम सुनो …और मेरे साथ बोलो …….
हरिप्रिया बोल रहीं थीं सखियों के नाम ….मैं उनके पीछे बोल रहा था ।
आप रसिक जन भी बोलिए …श्रीसुदेवी जी की ये अष्ट सखियाँ हैं –
कावेरी जी , मंजुकेशी जी , सुकेशी जी , कंबरा जी , हार कंठी जी , मनोहरा जी , महाहीरा जी , और हीरा हारा जी । हरिप्रिया जी ने नाम लेकर फिर हृदय की पूर्ण श्रद्धा से इन सबको प्रणाम किया था …मैंने भी स्वाभाविक था हरिप्रिया जी का अनुसरण ही किया , प्रणाम किया ।
शेष अब कल –
] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 34
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चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||
चञ्चलम् – चंचल; हि – निश्चय ही; मनः – मन; कृष्ण – हे कृष्ण; प्रमाथि – विचलित करने वाला, क्षुब्ध करने वाला; बल-वत् – बलवान्; दृढम् – दुराग्रही, हठीला; तस्य – उसका; अहम् – मैं; निग्रहम् – वश में करना; मन्ये – सोचता हूँ; वायोः – वायु की; इव – तरह; सु-दुष्करम् – कठिन |
भावार्थ
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हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |
तात्पर्य
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मन इतना बलवान् तथा दुराग्रही है कि कभी-कभी यह बुद्धि का उल्लंघन कर देता है, यद्यपि उसे बुद्धि के अधीन माना जाता है | इस व्यवहार-जगत् में जहाँ मनुष्य को अनेक विरोधी तत्त्वों से संघर्ष करना होता है उसके लिए मन को वश में कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है | कृत्रिम रूप में मनुष्य अपने मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति मानसिक संतुलन स्थापित कर सकता है, किन्तु अंतिम रूप में कोई भी संसारी पुरुष ऐसा नहीं कर पाता, क्योंकि ऐसा कर पाना वेगवान वायु को वश में करने से भी कठिन है | वैदिक साहित्य (कठोपनिषद् १.३.३-४) में कहा गया है –
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च |
इन्द्रियाणि हयाना हुर्विषयांस्तेषु गोचरान्
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ||
“प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक शरीर रूपी रथ पर आरूढ है और बुद्धि इसका सारथी है | मन लगाम है और इन्द्रियाँ घोड़े हैं | इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों की संगती से यह आत्मा सुख तथा दुःख का भोक्ता है | ऐसा बड़े-बड़े चिन्तकों का कहना है |” यद्यपि बुद्धि को मन का नियन्त्रण करना चाहिए, किन्तु मन इतना प्रबल तथा हठी है कि इसे अपनी बुद्धि से भी जीत पाना कठिन हो जाता है जिस प्रकार कि अच्छी से अच्छी दवा द्वारा कभी-कभी रोग वश में नहीं हो पाता | ऐसे प्रबल मन को योगाभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है, किन्तु ऐसा अभ्यास कर पाना अर्जुन जैसे संसारी व्यक्ति के लिए कभी भी व्यावहारिक नहीं होता | तो फिर आधुनिक मनुष्य के सम्बन्ध में क्या कहा जाय? यहाँ पर प्रयुक्त उपमा अत्यन्त उपयुक्त है – झंझावात को रोक पाना कठिन होता है और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है | मन को वहस में रखने का सरलतम उपाय, जिसे भगवान् चैतन्य ने सुझाया है, यह है कि समस्त दैन्यता के साथ मोक्ष ले लिए “हरे कृष्ण” महामन्त्र का कीर्तन किया जाय | विधि यह है – स वै मनः कृष्ण पदारविन्दयोः – मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन को पूर्णतया कृष्ण में लगाए | तभी मन को विचलित करने के लिए अन्य व्यस्तताएँ शेष नहीं रह जाएँगी |
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (111)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों में दास्य का उदय
तत्रः प्रसीद वृजिनार्दन तेऽङ्घ्रिमूलं प्राप्ता विसृज्य वसतीस्त्वदुपाशनाशाः ।
त्वत्सुन्दरस्मितनिरीक्षणतीव्रकामतप्तात्मनां पुरुषभूषण देहि दास्यम् ।।
गोपी माने श्रीकृष्ण को रसदान करने की लालसा का मूर्तरूप। जितनी मूर्ति होती हैं वे भाव की अभिव्यक्ति होती हैं। एक मूलभाव होता है, वही मूर्तिमान होता है। जितने स्त्री हैं, पुरुष हैं, पशु हैं, पक्षी हैं, उनके रूपों में उनके पूर्वजन्मों का भाव ही मूर्तिमान हो रहा है। इसी को पूर्वजन्म का कर्म बोलते हैं। पूर्व जन्म में जैसा भाव हुआ वही भाव शरीरधारी होकर के प्रकट हुआ। गोपी प्रेम की ध्वजा-गोपी क्या है कि प्रेम की झंडा लहरा रहे हैं। श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए व्याकुलता, श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए त्याग, श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए अपने सर्वस्व को होमना, यही गोपी का स्वरूप है। यह इतना निःस्वार्थ है, इसमें इतना त्याग है कि इसमें अहं की पूजा कहीं नहीं है। यह गोपी की विशेषता है। इसके विपरीत सारी दुनिया अपने को सुखी करने के लिए धर्म करती है, अपने को सुखी करने को धन कमाती है, भोग करती है, आराम करती है, गोपी का प्रेम और सांसारिक प्रेम परस्पर विपरीत गतिवाले हैं।
भक्ति के सिद्धांत को दुनिया में बहुत थोड़े लोग समझते हैं; इसमें बड़ा भारी विवेक है। देखो, वेदान्तशास्त्र में वर्णन है कि अविद्या के कारण पहले जीव अपने को परिच्छिन्न मानता है, फिर राग-द्वेष के चक्कर में पड़ करके जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ता है। क्यों? अविद्या के कारण, यह बात वेदान्ती को बहुत जल्दी समझ में आ जाती है, यह किसकी कथा हुई कि यह त्वं-पदार्थ की कथा हुई। अब भक्तिसिद्धांत का जब वर्णन करेंगे तो ऐसे करेंगे कि भगवान जो तत्पदार्थ हैं उनमें अचिन्त्य, अनन्त, कल्याणगुण हैं, उनमें करुणा है, स्नेह है, उनमें प्रेम है, अपनी अचिन्त्यशक्ति के द्वारा, माया के द्वारा, वे करुणा-विवश होकर जन्म लेते हैं। और जीव जैसे अविद्या के वश होकर चोरी-जारी करता है, डरता-भागता है, झूठ बोलता है, नाचता-गाता है, बजाता है, वह सबका सब ईश्वर माया से करता है, क्यों करता है? जीवो को अपने साथ मिला लेने के लिए। अगर वह इस रूप में आकर जीवों में मिल न जाता, अपनी जाति की हमेशा अलग रखता, अपने व्यक्तित्व को अलग रखता, तो भला जीव ईश्वर को क्या कभी प्राप्त कर सकते? यदि कहो कि जीव में तो यह सब अविद्या से है, तो हम कहते हैं कि ईश्वर में ये सब माया से है।+
जो-जो दोष-दुर्गुण जीव पर आरोपित किये जा सकते हैं वे सबके सब ईश्वर पर भी किये जा सकते हैं। यह भक्ति का सिद्धांत है, भला! जीव बच्चा होता है, ईश्वर भी बच्चा होता है; जीव खेलता है, ईश्वर भी खेलता है; जीव के माँ-बाप होते हैं, ईश्वर के भी माँ-बाप होते हैं, जीव के सखा होते हैं, ईश्वर के भी सखा होते हैं, जीव के प्रेयसी और प्रियतमा, प्रेमिका होती है; ईश्वर के भी होते हैं। अरे जब दोनों एक हैं- यह बात घण्टाघोष से स्वीकार करते हो कि दोनों एक हैं- तो एक बात भी ऐसी नहीं जो आत्मा के बारे में कही जा सके और परमात्मा के बारे में न कही जा सके।
श्रीमद्भागवत में आया है कि जगत से परे जगत का अधिष्ठान है, यह तो ज्ञान है; और अधिष्ठानसहित यह जगत परमात्मा है, यह विज्ञान है। अनेक में एक परमात्मा का रहस्य यह है कि वह अपना बनकर, और बिल्कुल अपनी तरह बनकर, हमारे साथ साकार होकर, नाचने वाला होकर, गवैया होकर, बजवैया होकर, झूठा होकर, चोर होकर, भागकर हमारे साथ ऐसा मिल जाता है, ऐसा मिल जाता है कि न केवल परमार्थ में, बल्कि व्यवहार में भी हमको अपने से भिन्न नहीं रखता है। श्रीमद्भागवत में इसको ईश्वर का रहस्य बताया है-
ज्ञानं परमगुह्यं मे यद् विज्ञासमन्वितम् ।
सरहस्यं तदंग च गृहाण गदितं मया ।।
चतुः श्लोकी भागवत में प्रारंभ में इसको ईश्वर का रहस्य बताया है। आत्मा के बारे में तो तुम कह देते हो कि अविद्या से ऐसा हो गया, ऐसा हो गया, और हुआ कुछ नहीं: और तत्पदार्थ के कहने के बारे में डर लगता है कि माया से ऐसा हो गया, ऐसा हो गया, जबकि यहाँ भी कुछ हुआ नहीं। मतलब है कि तुम्हारे मत में आत्मा परमात्मा दो हैं। इसका अर्थ होता है कि सचमुच भेदवादी तुम हो। जो ईश्वर के अवतार का निरूपण करता है, वह सनातनधर्मी, भेदवादी नहीं है, वह तो अभेदवादी है। जो अवतार को नहीं मानता वह भेदवादी है।++
अब आगे यह बात है कि गोपी जो है वह रस की लालसा और तृप्ति है; प्यास और तृप्ति- ये दोनों गोपी के स्वरूप हैं। श्रीकृष्ण की प्यास लेकर श्रीकृष्ण के पास जाना और उनके लिए तृप्ति बन जाना- यह गोपी का स्वरूप है। गोपी कहती है कि यह तुम जो हमसे कहते हो कि लौट जाओ, तो कौन बोलेगा ऐसा! मिट्टी कभी कहेगी घड़े से कि तुम हमको मत मिलो? सत्ता आकार से बोलेगी कि तुम हमसे मन मिलो? स्फुरणा से कहेगा कि तुम हमसे मत मिलो? आनन्द का समुद्र तरंग से कहेगा कि तुम हमसे अलग रहो! नारायण, तो कृष्ण, प्रसीद- प्रसन्न हो जाओ; प्रसन्न होने का अर्थ संस्कृत भाषा में ऐसा होता है, हर्ष नहीं। हर्ष में राग होता है, प्रसाद में राग नहीं होता है। तो प्रसन्न होने का अर्थ है निर्मल; देखो, जैसे हम निष्कपट भाव से तुम्हारे पास आयी हैं, कि तुम भी निष्कपट भाव से हमसे मिलो। तन्नः प्रसीद।
कृष्ण की लीला बड़ी अद्भुत है। वह प्रसाद के पहले विषाद देते हैं, पहले विषाद होवे तब प्रसाद का आनन्द आवे; पर गोपियों को यह बात मालूम नहीं है कि विषाद होने से प्रसाद का रस आता है। भगवान कहते हैं कि लौट जाओ तो भला अधिष्ठान से कोई अध्यस्त लौट जायगा? यहाँ लौटने का तो सवाल ही नहीं है। परंतु गोपी इसको समझती नहीं। इसलिए यह बोली- प्रसन्न हो जाओ। प्रसाद में तीन बातें होती हैं- विशिरण, गति और अवसादन। उपनिषद में जो षद् धातु है, प्रसाद में भी वह षद् है।
बिल्कुल एक ही धातु है जिसका अर्थ होता है- विशिरण, गति और अवसादन। तो प्रसाद का मतलब यह है कि एक तो परदे को फाड़ दो (विशिरण माने फाड़ना), हमारे- तुम्हारे बीच में जो पर्दा आ गया है कि हम किसी गोप की बेटी हैं, हम किसी गोप की पत्नी हैं, हम किसी गोपी की माँ हैं; हम किसी गोप की बहन हैं, यह जो तुम हमको परायी समझकर के उनके पास लौट जाने के लिए कहते हो, और अपने पास रहने में रोकते हो, हमको परायी समझते हो, इस पर्दे को फाड़ डालो।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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