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November 21, 2024 1:14 pm

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इति श्रीराधाचरितामृतम् (3),!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (141) & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

इति श्रीराधाचरितामृतम्  (3),!! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (141) & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

] Niru Ashra: 🍁🍁🙏🙏🍁🍁

( इति श्रीराधाचरितामृतम् )

भाग 3

👏👏🌹🌹👏👏

ये कालीदह है ………..और ये चीर घाट !

      वहीँ यमुना जल पान करते हुये    महर्षि शाण्डिल्य बैठ गए  थे  उनके चरणों में वज्रनाभ  ।

यहीं कालीनाग को नाथा था ……….महर्षि बोलते चले जाते हैं ।

दिव्य है श्रीधाम वृन्दावन ! वज्रनाभ नें कहा ।

मुस्कुराये महर्षि – प्राचीन भक्ति आचार्यों नें सत् चिद् और आनन्द की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है …….वज्रनाभ ! सुनना चाहोगे ?

फिर उत्तर की प्रतीक्षा बिना किये महर्षि बोले – प्रेम रस सिद्धान्त में सत् चिद् आनन्द को……श्रीवृन्दावन, श्रीकृष्ण, श्रीराधा कहते हैं ।

सत् है वृन्दावन…….चिद्, चैतन्य के प्रतीक श्रीकृष्ण हैं …….और श्रीराधा ? आहा ! वो तो आनन्द स्वरूपा हैं……वृन्दावन के बिना रस बरसेगा कहाँ ? पहले भूमि तो हो……इसलिए धाम की अपनी महिमा होती है…..धाम सत् तत्व है ।

बरसाना !

   महर्षि के  इतना  कहते  ही   चिन्मय बरसाना प्रकट हुआ  .......धाम    सत् तत्व है ..........धाम और धामी में भेद कहाँ ? नाम और नामी में भेद कहाँ  ?      

युगल सरकार प्रकट हो गए…….क्यों की धाम और धामी में भेद नही है । बरसाना है तो युगल वर हैं हीं ।

चारों और से यही ध्वनि गूँज रही थी…………

जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! ! !


( साधकों ! “श्रीराधाचरितामृतम्” को दुःखी मन से विश्राम देते हुए मन में आया …….अब क्या ? अब क्या लिखें ? फिर मन में दूसरे ही क्षण आया ……”युगलवर” जो लिखायें……तू क्यों सोचता है हरि !

आनन्द सिन्धु में डूब जाता था मैं…….बस यही कहूँगा मेरे सखा नें मुझ से लिखाया…..उसको मुझे और खींचना था …..अपनी ओर )

मैं ये तो अवश्य कहूँगा अपनी श्रीजी से …

सहज स्वभाव पर्यो नवल किशोरी जू को ,
मृदुता दयालुता कृपालुता की राशि हैं ।

राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे !
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे !!

इति श्रीराधाचरितामृतम् !

🌹 राधे राधे🌹
] Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 67 )


गतांक से आगे –

॥ पद ॥

प्रथमहि जुगल चरन चित लाऊँ। जिहि बल सकल मनोरथ पाऊँ ॥
निज उरके अभिलाख पुराऊँ। अँग संगनि जस बरनि सुनाऊँ ॥
सुनाऊँ जस अँग संग सहचरि चतुर्बिधि संकर्तिनी ।
प्रिया प्रीतम की सदा अंतरंगिनी समवर्तिनी ॥
दंपति रिझावें सहज सेवा सुरत उत्सव सजि सदा।
परम प्यारी काहु विधि करि न्यारी होत नहीं कदा ॥
समरयंत्रिनी तिलक रूप धरि । बाल भाल पर रही रंग भरि ॥
हरि मन हरनी हार हिये परि। सदा बिराजत कुचन बीच ररि ॥
ररि कुचन बिचि रुचिर रोचनि श्रवन ताटंका बनी।
सिंगार छत्रनि सीसफूल स्वरूप है सिर पर तनी ॥
गंजना उड़ मुक्तमँगा पंच सारनि पच सिरी।
मंडला मनि है हमेल सुरेलि रस हिय पर ढरी ॥
चंद्रकांतिका सहचरि सरसी। है उरबसी सदा उर परसी ॥
रुचिर सुमनिका पोति सुहाई। प्रभाकरा बेसरि छबि छाई ॥
छाइ छबि महा मदन मंजरि पदिक रूप रसालिनी ।
संखचूड़ा सहचरी सीमंतमनि गुनजालिनी ।।
चटक रावा है सुकंकन केयुरामनि कर्बुरा।
बूंद बलयावलि सु चूरी लसति बाहुन चित चुरा ॥
है करपत्र रत्न वैधाना। सेवति प्रिया सुकर सुख साना ॥
बिपछ मर्दनी मदसहचारी। होय मुद्रिका सोभित भारी ॥

*हे रसिकों ! “रसिकत्व” बहुत ऊँची अवस्था है …इसे सामान्य व्यक्ति नही समझ सकता ….रसिक होना सिद्धावस्था से भी ऊँची स्थिति है ….कैसे ? देखो ! दो ही अवस्था हैं – एक जीव भाव और एक ईश्वर भाव …मैं जीव हूँ …ईश्वर का दास हूँ ..ये एक भक्ति की स्थिति । दूसरी स्थिति है ज्ञान की …ईश्वर भाव ….मैं ही “वो” हूँ । किन्तु इन दोनों से ही परे की स्थिति है “रसिक” होना …..इसे इस तरह समझिये जैसे …..एक व्यक्ति है कुछ होना चाहता है …और एक व्यक्ति है होना नही है …”रस लेना है”। मुक्ति से परे , अजी ! कहना ही होगा की भक्ति से भी परे …”रसिकता” है । ये रसिकत्व उस रस तत्व से रस प्राप्त करके रसमय होता रहता है । ज्ञानी और भक्त लोग जैसे साधना के आरम्भ में गुरु चरणों का आश्रय लेकर साधना आरम्भ करते हैं ऐसे ही ये रसिक सखियों को ही अपनी गुरु मानकर …गुरु को ही सखी भाव में जानकर उनके चरणाश्रृत होकर रस की उपासना में लीन हो जाते हैं । वही उपासना धीरे धीरे इन्हें रसिकत्व तक ले जाती है …..फिर तो सखी भाव से भावित हो ये उन रसमयी जोरी से , उनकी रस लीला से इनका “राग” होना आरम्भ हो जाता है । मेरे ये “राग” शब्द पर साधक ध्यान दें । ज्ञानी और भक्त श्रद्धा से अपनी साधना बढ़ाते हैं …और अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा रखते हैं …किन्तु ये रसिकता की उपासना श्रद्धा की नही है….इनमें श्रद्धा के स्थान पर “राग” को प्रधानता दी गयी है । राग तो समझ ही गये होंगें । आसक्ति । मोह । इसका प्रयोग करके रसिक साधक बहुत शीघ्र निकुँज की गैल पकड़ लेता है । शीघ्र क्यों ? इसलिए कि श्रद्धा की अपेक्षा राग ज़्यादा गहरी जाती है …..भगवान के प्रति तुम्हारी श्रद्धा है …किन्तु अपने पुत्र के प्रति तुम्हारा राग है ….बताओ ! गहरा क्या है श्रद्धा या राग ? अजी ! राग ही है । सखियाँ राग से भरी हैं अपने युगलवर के प्रति …..युगल को बिना देखे इन्हें चैन नही है । ये है रसिकता ।

  “भगवद रसिक रसिक की बातें ,  रसिक बिना कोउ समझ सके ना” 

श्रीहरिप्रिया जी जिस तरह मुझे बता रही हैं सखीभाव के विषय में …..पूर्ण अनुराग , पूर्ण समर्पण , पूर्ण निस्वार्थ ….ये कहाँ मिलता है ! सखियाँ श्रीजी की अंगसंगिनी बन जाती हैं …..यही सखियाँ हार बनकर श्रीजी के हृदय में शोभा पाती हैं ….श्रीजी के माथे की बिन्दी बन जाती हैं , माँग का सिन्दूर , सिर का शीश फूल ……मैं चकित था कि सखी भाव कितना उच्च भाव है ….सर्वोच्च भाव है …..राग प्रगाढ़ हो कर अनुराग बन चुका है ….अनुराग की इस अवस्था में अपना जैसा कुछ रहा ही नही ….अपना जैसा कहने के लिए क्या है ? सब कुछ प्रिया लाल । प्रिया लाल की प्रसन्नता ही अब ध्येय बन चुका है । मैं ये सोच ही रहा था कि तभी ….हरिप्रिया जी मुझे आगे सखीभाव की उत्कृष्टता का और वर्णन करके सुनाने लगीं थीं ।

नित्य निभृत निकुँज में , रति रन संग्राम में …..जब उन गोरे मुख चन्द्र पर एक सखी ही लट बनकर प्रिया जी के कपोल को छूने लगी….तो उस अति सुंदरतम प्रिया जी की झाँकी को देखकर लाल जी तो मूर्छित ही हो गये थे ।

अब कुछ होश आया था ….जब प्रिया जी ने लाल जी के कपोल को सहलाया ।

लाल जी ने अपने नेत्र खोले ….अपनी कमलनयनी को निहारा ….ओह ! त्राटक ही लगा बैठे थे ये तो । किन्तु उसी समय एक सखी ने तुरन्त मनोरथ करी और प्रिया जी के चरणों की नूपुर बन कर बजने लगीं । वो नूपुर रव ऐसा था – मानों हजारों कामदेव एक साथ निकले हों किसी को पराजित करने के लिए । लाल जी ने चरणों की ओर देखा चरण हिला रहीं हैं प्रिया जी और नूपुर बज रहे हैं ….लाल जी मुग्ध होकर चरणों को निहारने लगे हैं और कानों से उस नूपुर रव को सुनने लगे ।

किन्तु परम रसिकनी ये सखियाँ इस झाँकी का रस ले रहीं थीं कि एक सखी उसी समय प्रिया जी के कण्ठ में पोत ( पोत , रंग विरंगे छोटे छोटे दानों की माला होती है , जिसे सुहागन धारण करती हैं ) बनकर पहुँच जाती हैं । जिसे देखकर लाल जी और और रस सिंधु में डूब जाते हैं …उन्हें कुछ भान नही है । हरिप्रिया बताती हैं ….कि तभी एक और सखी प्रिया जी के शुक समान सुन्दर नासिका में बेसर बनकर झूलने लगती है ……लाल जी का ध्यान हृदय से हटा भी नही था कि बेसर जैसे ही देखा ….वो आह भरने लगे । लाल जी को रोमांच हो रहा है ….प्रिया जी ने अपने कोमल करों से जैसे ही लाल जी का प्रेम स्पर्श किया तभी एक सखी कंगन बनकर प्रिया जी के हाथों में लग गयी ….लाल जी ने उन करों को देखा …..उन चूड़ियों से सौन्दर्य और बढ़ गया था । प्रिया जी के कोमल कर पकड़ कर लाल जी ने जैसे ही अपने हृदय से लगाना चाहा ….उफ़ ! एक सखी बाजूबन्द बनकर प्रिया जी के बाहों में लग गयी । अब तो लाल जी ने प्रिया जी को कस कर अपने बाहों में भरा और जैसे ही हृदय से लगाया ….युगल की साँसें तेज हो गयीं …..लाल जी के हाथ अब प्रिया जी के कटि प्रदेश में गये तभी एक सखी उसी समय करधनी बनकर प्रिया जी के कमर से लग गयी …लाल जी ने जब छूआ तो बजती हुई करधनी ….जब देखा …कृशोदरी के कटि में वो करधनी । ये करधनी उस पतली कमर को नही बांध नही है ये तो लाल जी के मन को ही बांध रही है । लाल जी चित्रवत उस सुन्दर कटिप्रदेश और उसमें बंधी उस करधनी को ही निहार रहे हैं । वो ध्यान कर रहे हैं उस क्षीण कटि प्रदेश में लगी करधनी का ।

शेष अब कल –
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (141)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम

आकाश में तारों से घिरे हुए चंद्रमा और दूसरी तरफ धरती में गोपियों से घिरे हुए श्रीकृष्ण। वर्णन करते हैं- व्यरोचतैणांकइवोडुभिर्वृतः। जैसे तारों की वजह से चंद्रमा की शोभा बढ़ जाती है वैसे गोपियों की वजह से श्रीकृष्ण की शोभा बढ़ी, घटी नहीं। अब एक बात समझो- वेदान्ती कहेगा कि एक कृष्ण और अनेक वृत्ति। यहाँ तो द्वैत हो गया। और योगी कहेगा कि वृत्तियों का निरोध ही नहीं हुआ। और ये महाराज जो नये साधक लोग हैं वे कहेंगे- यहाँ तो बड़ी भीड़-भाड़ है।

अरे बाबा! अभी तुमको मजा नहीं आया- जिसका आनन्द निवारण हो गया, उसको एकान्त में भी आनन्द है और भीड़ भी आनन्द है; और जिसका आनन्द निवारण नहीं हुआ वह भीड़ में रहे तब भी सिर पीटेगा और एकान्त में रहे तो भी बोर हो जायेगा, भला! क्योंकि आनन्द जब निवारण नहीं हुआ तो एकान्त में भी आनन्द कहाँ से मिलेगा? विक्षेप में दुःख नही है और एकान्त में सुख नहीं है। जिसको अपनी अन्तरात्मा का सुख प्रकट हो गया उसको एकान्त में भी सुख है और उसको विक्षेप में भी सुख है।

ये तीन बातें वेदान्तियों के समझने लायक हैं-

(1) आकृतियों के भेद से सत्ता में भेद नहीं होता।
(2) आकृतियों के भेद से चेतन में भेद नहीं होता। और
(3) हजार भोक्ता और हजार भोग्य होने से भी आनन्द में भेद नहीं होता।

भोग की विलक्षण-विलक्षण प्रक्रिया से भी आनन्द में भेद नहीं होता। अरे! ऐसे समझो कि भोग चाहे दुःखात्मक मालूम पड़े और चाहे सुखात्मक मालूम पड़े, आनन्द में भेद नहीं। चाहे वृत्ति रागात्मक मालूम पड़े, चाहे द्वेषात्मक, चेतन में भेद नहीं और चाहे क्रिया पापात्मक मालूम पड़े चाहे पुण्यात्मक, सत्ता में भेद नहीं। क्रिया के भेद से सत्ता में भेद नहीं, और राग-द्वेष के भेद से चेतन में भेद नहीं, और सुख-दुःख के भेद में आनन्द में भेद नहीं। यह बात महात्मा के पास बैठकर सीखनी पड़ती है, यह किताब में पढ़ने से मालूम नहीं पड़ती, भला। जो जिज्ञासु होते हैं, जो सत्पुरुषों की सेवा करते हैं, श्रवण, मनन, निदिध्यासन करते हैं उनको यह बात मालूम पड़ती है। जो लोग उपनिषद् पढ़ते हैं और केवल ‘तन्नैजति’ को ही ईश्वर का रूप मानते हैं, ‘तदेज्जति’ को ईश्वर का स्वरूप नहीं मानते उन्होंने क्या उपनिषद् का अर्थ समझा?+

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्ति के ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ।।

यह उपनिषद् ही नहीं, मंत्रसंहिता है- शुक्लयजुर्वेद संहिता का चालीसवाँ अध्याय है। इसको आर्यसमाजी भी मानते हैं जो उपनिषदों पर ज्यादा श्रद्धा नहीं रखते। मंत्र में कहा गया है- ‘तद् एजति’ तद् माने ‘श्यामं ब्रह्म, ‘गोपीजनसहितं ब्रह्म’- वह साँवरा-सलोना ब्रह्म, गोपीजनों से घिरा हुआ ब्रह्म।

एजति कम्पते नृत्यति हस्तभेदेन चिबुकगतिभेदेन पादगतिभेदेन एजति-

वह चिबुककी गति, हाथ की गति, पाँव की गति, कमर की गति से ‘एजति’ नाचता है। ‘तद एजति’ और कभी-कभी ‘तत् न एजति’- वह नहीं नाचता, चुपचाप खड़ा है। ‘तद् दूरे’- गोपियों में- से नाटता हुआ झट गोपियों के पास आ गया। तदन्तरस्य सर्वस्य ‘व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृतः तदन्तरस्य अस्य सर्वस्य गोपिजनस्य अन्तः सत्’ कभी इन सब गोपियों के बीच में वह ताता- थेई ताता-थेई करता नाच रहा है; और तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः कभी वह अकेला पीछे हटता है, गोपियाँ नाचती हुई उसकी ओर बढ़ती हैं और कभी गोपियाँ गान करती हुई, नृत्य करती हुई पीछे हटती हैं और वह अकेला इनकी ओर बढ़ता है।

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देऽऽवाप्रुवन्पूर्वमर्षत् ।

जो देवता गोपी बने हैं माने गोप्याकारेण आविर्भूताः देवाः गोपियों की आकृति में जो प्रकट देवता हैं- नैनद्देवा आप्नुवन्- वे देवता जब कृष्ण गुप्त हो जाते हैं, छिप जाते हैं तब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते इसको नही प्राप्त करते हैं। क्यों? बोले- ‘मनसो जवीयो’ अरे। इसकी गति तो मन से भी ज्यादा तेज है।

ताभिः समेताभिरुदारचेष्टितः प्रियेक्षणोत्फुल्लमुखीभिरच्युतः ।
उदारहासद्विजकुन्ददीधितिर्व्यरोचतैणांक इवोडुभिर्वृतः ।।

व्यरोचत्- विशेषेण रोचत् व्यरोचत्- आज श्रीकृष्ण की शोभा बढ़ गयी। गोपी बिना गोपीजनवल्लभ की शोभा कहाँ? गोपीजनवल्लभ की शोभा तो गोपीजन से है- श्रीकृष्णाय गोपिन्दाय गोपीजनवल्लभाय। ये गोपीजनवल्लभ गोविन्द, आज उनकी शोभा बढ़ गयी आज उनका अवतार लेना सफल हो गया, आज उनकी किशोरावस्था सफल हो गयी। पहले सुनाया था- पृथ्वी का भार दूर कौन करेगा? संकर्षण, वसुदेव को प्रसन्न कौन करेंगे? प्रद्मुम्न। धर्म की स्थापना कौन करेगा?++

अनिरुद्ध। श्रीकृष्ण ने अवतार क्यों लिया? बोले- केवल गोपीजनों के प्रेम को पूर्ण करने के लिए, केवल प्रेमीजनों के लिए श्रीकृष्ण ने अवतार लिया। ये प्यारे-प्यारे कृष्ण, नारायण !! ‘ताभिः समेताभिः’- अब बताते हैं कि गोपियों में सौमनस्य हो गया है- ‘समेताभिः’ सबका मत एक, अब मत-भेद नहीं रहा। यह भक्ति सिद्धांत की एक बड़ी विलक्षणता है- क्या जैसे यज्ञ करते हैं तो उसमें क्रिया अलग-अलग होती है- होम के मंत्र अलग-अलग, आहुति अलग-अलग हविष्य अलग-अलग, कुशकण्डिका अलग-अलग, देवता अलग-अलग और यजमान और यजमान-पत्नी के साथ सोलह ऋत्विक् अलग-अलग। लेकिन सब कर्मों का उद्देश्य होता है एक यज्ञ का सम्पादन। जैसे संपूर्ण कर्मों के द्वारा एक धर्म-यज्ञ संपूर्ण होता है वैसे संपूर्ण वृत्तियों के द्वारा अपने एक प्रियतम की सेवा सम्पन्न होने लगे यह भक्ति सिद्धांत है। और वृत्ति एक हो जाय- निरोधार, और हम उसके द्रष्टा रहें, यह योग हो गया और वृत्ति चाहे एक रहे चाहे अनेक रहें, हम अखण्ड द्रष्टा बड़ा हैं यह वेदान्त हो गया।

अब देखो, गोपी जो हैं ताभिः समेताभिः- अब सौमनस्ययुक्त होकर के एक कृष्ण को देख रही हैं, सारी वृत्तियाँ कृष्ण को देख रही हैं। गोपी ने घर में उबटन लगाया, किसके लिए? कृष्ण के लिए। बाल सम्हाले, किसके लिए? कृष्ण के लिए। वस्त्र पहना, किसके लिए? कृष्ण के लिए। अञ्जन लगाया, किसके लिए? कृष्ण के लिए। गाय दुहकर दूध जमाया, किसके लिए? कृष्ण के लिए, माखन बनाया, किसके लिए? रोटी बेली, पकायी, किसके लिए? कृष्ण के लिए। जब संपूर्ण कर्मों का उद्देश्य, संपूर्ण वृत्तियों का उद्देश्य अपना प्रियतम हो जाता है तब प्रेम आता है, प्रीति माने फिफ्टी-फिफ्टी नहीं। इसका नाम प्रेम नहीं है कि एक-चौथाई तुम्हारा, तीन चौथाई हमारा। या आधा तुम्हारा, आधा हमारा। यह तो-

मैं बौरी ढूँढ़न चली रही किनारे बैठ।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
🪷🪷🪷🪷🪷🪷
श्लोक 7 . 28
🪷🪷🪷🪷🪷

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् |
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः || २८ ||

येषाम् – जिन; तु – लेकिन; अन्त-गतम् – पूर्णतया विनष्ट; पापम् – पाप; जनानाम् – मनुष्यों का; पुण्य – पवित्र; कर्मणाम् – जिनके पूर्व कर्म; ते – वे; द्वन्द्व – द्वैत के; मोह – मोह से; निर्मुक्ताह – मुक्त; भजन्ते – भक्ति में तत्पर होते हैं; माम् – मुझको; दृढ-व्रताः – संकल्पपूर्वक |

भावार्थ
🪷🪷🪷
जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं |

तात्पर्य
🪷🪷🪷
इस अध्याय में उन लोगों का उल्लेख है जो दिव्य पद को प्राप्त करने के अधिकारी हैं | जो पापी, नास्तिक, मूर्ख तथा कपटी हैं उनके लिए इच्छा तथा घृणा के द्वन्द्व को पार कर पाना कठिन है | केवल ऐसे पुरुष भक्ति स्वीकार करके क्रमशः भगवान् के शुद्धज्ञान को प्राप्त करते हैं, जिन्होंने धर्म के विधि-विधानों का अभ्यास करने, पुण्यकर्म करने तथा पापकर्मों के जीतने में अपना जीवन लगाया है | फिर वे क्रमशः भगवान् का ध्यान समाधि में करते हैं | आध्यात्मिक पद पर आसीन होने की यही विधि है | शुद्धभक्तों की संगति में कृष्णभावनामृत के अन्तर्गत ही ऐसी पद प्राप्ति सम्भव है, क्योंकि महान भक्तों की संगति से ही मनुष्य मोह से उबर सकता है |

श्रीमद्भागवत में (५.५.२) कहा गया है कि यदि कोई सचमुच मुक्ति चाहता है तो उसे भक्तों की सेवा करनी चाहिए (महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तेः), किन्तु जो भौतिकतावादी पुरुषों की संगति करता है वह संसार के गहन अंधकार की ओर अग्रसर होता रहता है (तमोद्वारं योषितां सङिसङम्) | भगवान् के सारे भक्त विश्र्व भर का भ्रमण इसीलिए करते हैं जिससे वे बद्धजीवों को उनके मोह से उबार सकें | मायावादी यह नहीं जान पाते कि परमेश्र्वर के अधीन अपनी स्वाभाविक स्थिति को भूलना ही ईश्र्वरीय नियम की सबसे बड़ी अवहेलना है | जब तक वह अपनी स्वाभाविक स्थिति को पुनः प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक परमेश्र्वर को समझ पाना या संकल्प के साथ उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में पूर्णतया प्रवृत्त हो पाना कठिन है |

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