श्रीसीतारामशरणम्मम(6-3),श्रीमद्भगवद्गीता(अ-8),!! भये प्रकट कृपाला !! & भए प्रगट कृपाला दीनदयाला : नीरू आशरा

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श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 15
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मामुपेत्य पुनर्जन्म दु:खालयमशाश्र्वतम् |
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः || १५ ||
माम् – मुझको; उपेत्य – प्राप्त करके; पुनः – फिर; जन्म – जन्म; दुःख-आलयम् – दुखों के स्थान को; अशाश्र्वतम् – क्षणिक; न – कभी नहीं; आप्नुवन्ति – प्राप्त करते हैं; महा-आत्मानः – महान पुरुष; संसिद्धिम् – सिद्धि को; परमाम् – परं; गताः – प्राप्त हुए |

भावार्थ
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मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत् में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है |

तात्पर्य
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चूँकि यह नश्र्वर जगत् जन्म, जरा तथा मृत्यु के क्लेशों से पूर्ण है, अतः जो परम सिद्धि प्राप्त करता है और परमलोक कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है, वह वहाँ से कभी वापस नहीं आना चाहता | इस परमलोक को वेदों में अव्यक्त, अक्षर तथा परमा गति कहा गया है | दूसरे शब्दों में, यह लोक हमारी भौतिक दृष्टि से परे है और अवर्णनीय है, किन्तु यह चरमलक्ष्य है, जो महात्माओं का गन्तव्य है | महात्मा अनुभवसिद्ध भक्तों से दिव्य सन्देश प्राप्त करते हैं और इस प्रकार वे धीरे-धीरे कृष्णभावनामृत में भक्ति विकसित करते हैं और दिव्यसेवा में इतने लीन हो जाते हैं कि वे न तो किसी भौतिक लोक में जाना चाहते हैं, यहाँ तक कि न ही वे किसी आध्यात्मिक लोक में जाना चाहते हैं | वे केवल कृष्ण तथा कृष्ण का सामीप्य चाहते हैं, अन्य कुछ नहीं | यही जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि है | इस श्लोक में भगवान् कृष्ण के सगुणवादी भक्तों का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है | ये भक्त कृष्णभावनामृत में जीवन की परमसिद्धि प्राप्त करते हैं | दूसरे शब्दों में, वे सर्वोच्च आत्माएँ हैं |

🙏🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 6️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#नतोहम्रामबल्लभां ……_
📙#श्रीतुलसीदास जी📙

#मैवैदेही !……………_

🙏🙏👇🏼🙏🙏

कुमार आये हैं……. …..शत्रुघ्न कुमार ।

बहुत रोये ……मेरे पैरों को भिगो दिया अपनें आँसुओं से ।

मैने कुशा आसन मै उनको बैठनें के लिए कहा ।

पर कुमार बार बार कह रहे थे ……..हम रघुवंशी दोषी हैं …….हमसे महत् अपराध हुआ है । ……….लो जल पीयों पहले कुमार !

मैने जल लाकर दिया …….और कुछ कन्द मूल फल भी ।

पर मेरे पैरों में ही दृष्टि लगाये रहे शत्रुघ्न कुमार ।

कुछ तो बोलो कुमार ? मैने फिर पूछा ।

क्या बोलनें लायक हम रघुवंशी अब रह गए हैं ।

गंगा से भी पावनि आप हैं भाभी माँ ! फिर क्यों आपके साथ ऐसा किया हम लोगों नें ……………

भैया राम ! अब वो न किसी के भैया हैं ……न किसी के पिता …..न किसी के पति ……..वो मात्र अब एक नीरस सम्राट रह गए हैं ……….कुमार का आक्रोश मुझे देखकर ही जागा था ।

हाँ माँ ! वो मात्र एक सम्राट के जीवन को जी रहे हैं ……उनके लिए अपनी निजी जिन्दगी कोई अर्थ नही रखती ………….कुमार आँसू बहाते जा रहे थे और बोलते जा रहे थे ।

आपकी ये दशा ! ओह !

श्रुतकीर्ति कैसी है कुमार ?

मेरे इस प्रश्न पर कुमार शत्रुघ्न की फिर हिलकियाँ छूट गयीं थीं ।

आपको अपना दुःख नही बताना ! आप अपनें दुःख को कितना छुपा सकतीं हैं ………ओह ! सहनशीलता की साक्षात् मूर्ति हैं आप तो ।

अच्छा ! बताओ ना इस तरफ आनें का कारण ?

मेरे इस प्रश्न पर अपनें आँसू पोंछे थे कुमार नें …….फिर कहा …….चक्रवर्ती सम्राट श्री राम का आदेश है कि मथुरा में लवणासुर का मै वध करके आऊँ……..उन्हीं के आज्ञा का मूक पालक हूँ मै तो !

कुमार नें मुझ से कहा भाभी माँ ! यहाँ से जा रहा था मथुरा के लिए …..

तभी महर्षि वाल्मीकि का मैनें आश्रम देखा …………..महर्षि के चरणों में वन्दन करनें के लिये ही आया था ……….चरण वन्दन किया तब महर्षि नें मुझ से इतना ही कहा ………………सम्राट श्री राम कैसे हैं ?

मैने कहा ……….सकुशल हैं ।

तब महर्षि के नयन सजल थे ……….उन्होंने इतना ही कहा ………वैदेही को क्यों छोड़ा ?

मै क्या बोलता ……………….मै चुप रहा माँ ।

मैने ही फिर पूछा था ……….आगे क्या कहा महर्षि नें ।

उन्होंने इतना ही कहा ………अवध श्रापित हो गया है ।

मै चौंक गया था ……क्या भाभी माँ नें श्राप दे दिया अयोध्या को ?

नही …श्राप नही दिया ………श्राप देना नही पड़ता कुमार शत्रुघ्न ।

कोई सरल अत्यंत सहज निष्पाप व्यक्ति का हृदय अगर तुम्हारे कारण दुःखी हो जाता है …….तो श्राप देना नही पड़ता ……..आस्तित्व ही उसे श्राप दे देता है ……………अवध अब वीरान ही रहेगा ………….जब तक वैदेही को न्याय न मिले ।

मै हँसी ………….वो मुझे अपनी पुत्री मानते हैं ना कुमार ! इसलिये ये सब बोल रहे होंगें…………नही तो प्रभु श्री राम से कुछ गलत हो ही नही सकता ……….वो भला गलती कर सकते हैं !

अरे ! चक्रवर्ती हैं ……..अखिल भूमण्डल के अधिपति हैं ..श्री राम ….

मेरे जैसी कितनी दासियाँ होती हैं। सम्राटों की ……….एक दासी को छोड़ दिया तो क्या हुआ !

मेरे इस बात को सुनते ही फिर आँसू बहनें लगे थे ……….आँसुओं के साथ ध्वनि भी निकल रही थीं ………वह ध्वनि पूरे वन प्रदेश को ध्वनित कर रही थी …………..

चारों ओर से हिरण , हिरणियाँ , वृक्षों में मोर …अन्य पक्षी ………..अरे! यहाँ तक की हिंसक प्राणी सिंह रीछ व्याल ये सब भी आगये थे …..पर ये भी कुमार के क्रन्दन को सुनकर आँसू बहा रहे थे ।

अब जाओ तुम कुमार ! मथुरा यहाँ से दूर है …………….जाओ !

मैने इतना कहकर कुमार को भेज दिया था ।

क्रमशः ….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

Niru Ashra: !! भये प्रकट कृपाला !!

क्या भगवान श्रीराम श्रीनारायण के अवतार हैं ? उन महात्मा जी से मैंने ये प्रश्न किया था ।

उन्होंने मेरी ओर देखा ….शान्त गम्भीर भाव दशा में । फिर प्रश्नवाचक भंगिमा से अपने भाल का संकुचन किया , दृष्टि ऊपर करके मानों मुझ से पूछा …..ऐसा प्रश्न क्यों ?

मैंने गलत तो नही पूछा भगवन्! क्यों की रामानुजीय और रामानन्दीय परम्परा में ये कलह आरम्भ हो गया है …..एक कहते हैं कि श्रीराम स्वयं ही ब्रह्म हैं ….किसी के अवतार नहीं । तो दूसरे कहते हैं ….नारायण के अवतार हैं श्रीराम । उन महात्मा ने मुझ से कहा …पुराणों को समझने के लिए आवश्यक है …कल्प भेद को समझना । अवतार एक बार नही हुआ …अनन्त बार हो चुका है …और अभी भी किसी न किसी ब्रह्माण्ड में अवतार लीला चल ही रही है । इस बात ने मुझे चौंका दिया था ….अभी भी किसी ब्रह्माण्ड में श्रीराम प्रकट हुए हैं ? और वहाँ आज बधाई चल रही है ? हाँ , उन्होंने अब मन्द मुस्कुराकर मेरी बात का उत्तर दिया था । मैं कुछ बोल नही पाया ….क्या बोलता ! उन्होंने ही करुणा कर के मुझे कहा …. किसी कल्प में श्रीनारायण ही श्रीराम बनकर आये हैं तो किसी कल्प में स्वयं परात्पर श्रीराम अवतरित हुए । कितनी सरलता से समाधान कर दिया था ।

श्रीराम स्वतन्त्र हैं ….जैसे श्रीनारायण का वैकुण्ठ है वैसे ही तो परब्रह्म श्रीराम का साकेत धाम है ।

जब परब्रह्म श्रीराम अवतरित होने वाले थे …तब साकेत धाम ही पृथ्वी में पहुँच गया था …वही साकेत धाम श्रीअयोध्या है ।

मैंने परमपावन सप्त पुरियों में प्रथम पुरी श्री अयोध्या को प्रणाम किया ।


कश्मीर से आगे गंधार ( अफ़ग़ानिस्तान) , गंधार से भी खदेड़ दिया था महाराजा विक्रमादित्य ने । ये क्रूरतम आतंककारी “शक” थे …जिन्होंने आक्रमण कर दिया था भारत वर्ष में ….वो बढ़ते जा रहे थे ….”मिहिर राज” शक का राजा था….क्रूर , परम क्रूर शक की सेना ने भारत में हा हाकार मचा दिया था । बात पहुँची थी उज्जैन तक …..उज्जैन में महाराजा विक्रमादित्य को सूचना मिली तो तुरन्त ही उन्होंने सेना तैयार की ……और चल पड़े शक से लड़ने । लड़े …..भागना पड़ा शक के राजा मिहिर राज को …सेना को भगाया .गंधार ( अफ़ग़ानिस्तान ) से भी आगे । विजयी होकर लौट रहे थे महाराजा विक्रमादित्य । मार्ग में पड़ी परम पावन श्रीअयोध्या । सरयू जी के पवित्र तट पर सेना रुकी थी ।

सन्ध्या की वेला थी ….महाराजा विक्रमादित्य सरयू जी में स्नान करके सन्ध्या करने जा रहे थे कि तभी …एक गौ सामने से आयी और उस विशेष शिला पर उसने अपने दुग्ध से अभिषेक किया । फिर वो चली गयी । उस शिला के पास महाराजा गये …..उसे निकाला ….तो उसमें से एक दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ ….वह प्रकाश महाराजा के देह में छा गया और महाराजा विक्रमादित्य ध्यानस्थ हो गये …..उनकी समाधि ही लग गयी थी ।


विश्व का सबसे समृद्ध नगर श्रीअयोध्या । यहाँ के सम्राट चक्रवर्ती महाराज श्रीदशरथ ।
उनके द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ चल रहा है ……इनकी तीन रानियाँ हैं …..कौशल्या , कैकेयी और सुमित्रा । वैसे चक्रवर्ती जी के सन्तान ही नही थे ऐसा नही हैं …पुत्री हुयी थी ….सुमित्रा महारानी के कोख से पुत्री हुयी थी …नाम रखा था …शान्ता । किन्तु अपने परम मित्र रोमपाद को उन्होंने अपनी पुत्री दे दी थी ….क्यों की उनके कोई सन्तान नही थी । चक्रवर्ती नरेश श्रीदशरथ जी ने सोचा था मेरी तो तीन रानियाँ हैं …सन्तान हो ही जाएगी । पर वर्षों बीत गये और कोई सन्तान नही हुयी …इस तरह चौथापन भी आगया । गुरु वशिष्ठ जी की आज्ञा से पुत्र कामेष्टि यज्ञ आरम्भ हो गया था । एक दिन अग्नि कुण्ड से अग्नि देव प्रकट हुए और पायस ( खीर ) प्रदान किया । बस – उसी दिन se अयोध्या आनन्द में डूब गयी थी …नर नारी सबने उत्सव मनाने आरम्भ कर दिये थे …पृथ्वी से मणि माणिक्य प्रकट होने लगे थे …सरयू जी का जल अत्यन्त निर्मल हो गया था …पायस तीनों महारानियों ने खा लिये थे । प्रकृति प्रमुदित थी ..मंगल ध्वनि चारों दिशाओं से आ रही थी ।

कौशल्या महारानी के मुखमण्डल में अपूर्व तेज व्याप्त था ….कब क्या होगा कोई नही जानता …..इस काल की प्रतीक्षा तो अस्तित्व तक को थी ही ….गुरु वशिष्ठ जी बार बार महाराजा से पूछते थे कि …महारानी कौशल्या की स्थिति कैसी है ? आप ऐसे क्यों पूछते हैं ? चक्रवर्ती हाथ जोड़कर कहते । उस समय गुरु वशिष्ठ मौन होकर बस मुस्कुराते । गगन से पुष्प बसरने शुरू हो गये थे …चारों ओर से चन्दन और केसर की सुगन्ध व्याप्त हो गयी थी …..अयोध्यावासी कोई समझ नही पा रहे थे कि मन इतना आनंदित क्यों है ? कोई जान नही पा रहा था कि आनन्द की लहरें मन में क्यों उठ रहीं हैं …नाचने का मन करता है ….गाने का मन करता है …क्यों ?

जीजी ! आपका मुखमण्डल ! महारानी कैकेयी महारानी कौशल्या को कह रही हैं ।

क्या हुआ ? कौशल्या जी पूछती हैं । आपका मुख सूर्य के समान तेजवान हो गया है । जीजी ! आपकी ओर देखा नही जाता । कौशल्या महारानी कुछ नही कहतीं ।

वो मंगल समय आया …..चैत्र शुक्ल पक्ष , नवमी तिथि , मंगलवार , अभिजीत नक्षत्र …..सुबह से ही दाई परेशान है ….क्या होगा ? प्रातः से लेकर मध्याह्न होने को आया ……चक्रवर्ती सम्राट भी बाहर भीतर कर रहे हैं ….कि क्या होगा ? तभी ……एकाएक दाई दौड़ी ……चिल्लाती हुयी दौड़ी …उसके ये परमआनन्द से भीगे शब्द ….”विश्व को राजा मिल गया” । यही वाक्य अयोध्या का प्रत्येक नर नारी कह रहा था ….और नाच रहा था । कि विश्व को राजा मिल गया ….विश्व को राजा मिल गया । बधाई हो । बधाई हो । नाच उठी थी अयोध्या , नाच उठा था विश्व …प्रमुदित था अखिल ब्रह्माण्ड । क्यों न हो ….पूर्णपरात्पर भगवान श्रीराम का अवतार जो हुआ था ।


महाराजा विक्रमादित्य के सामने वही त्रेतायुग की घटना प्रत्यक्ष हो गयी थी । उन्हें भगवान श्रीराम अवतार की लीला का साक्षात्कार हुआ था … कहते हैं …एक माह तक समाधिस्थ हो गये थे महाराजा विक्रमादित्य ….जब समाधि से उठे तभी उन्होंने चिन्हित किया की ये श्रीरामजन्म भूमि है ….क्यों की उस भूमि से दिव्य अद्भुताद्भुत अणु परमाणु प्रकट हो रहे थे ।

वो महात्मा मुझे बोले ….राजा तो अखिल ब्रह्माण्ड में एक ही हुए , और एक ही हैं …वो हैं “श्री राजा राम”।

राम ! राम ! राम !

कहते हुए उन महात्मा जी ने लम्बी लम्बी साँस ली और समाधिस्थ हो गये थे ।

मेरे समस्त साधकों को …..पूर्ण परात्पर श्रीराम के प्राकट्य दिवस की बधाई हो ।
[ Niru Ashra: भए प्रगट कृपाला दीनदयाला,
कौसल्या हितकारी ।
हरषित महतारी, मुनि मन हारी,
अद्भुत रूप बिचारी ॥
लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा,
निज आयुध भुजचारी ।
भूषन बनमाला, नयन बिसाला,
सोभासिंधु खरारी ॥
कह दुइ कर जोरी, अस्तुति तोरी,
केहि बिधि करूं अनंता ।
माया गुन ग्यानातीत अमाना,
वेद पुरान भनंता ॥
करुना सुख सागर, सब गुन आगर,
जेहि गावहिं श्रुति संता ।
सो मम हित लागी, जन अनुरागी,
भयउ प्रगट श्रीकंता ॥
ब्रह्मांड निकाया, निर्मित माया,
रोम रोम प्रति बेद कहै ।
मम उर सो बासी, यह उपहासी,
सुनत धीर मति थिर न रहै ॥
उपजा जब ग्याना, प्रभु मुसुकाना,
चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै ।
कहि कथा सुहाई, मातु बुझाई,
जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥
माता पुनि बोली, सो मति डोली,
तजहु तात यह रूपा ।
कीजै सिसुलीला, अति प्रियसीला,
यह सुख परम अनूपा ॥
सुनि बचन सुजाना, रोदन ठाना,
होइ बालक सुरभूपा ।
यह चरित जे गावहिं, हरिपद पावहिं,
ते न परहिं भवकूपा ॥

दोहा:
बिप्र धेनु सुर संत हित, लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु, माया गुन गो पार ॥

जय जय श्री राम 🌹🙏


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