🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣2️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐
#देखतरामबिआहुअनूपा….._
【 📙 #रामचरितमानस 📙】
🙏🙏👇🏼🙏🙏
#मैवैदेही ! ……………._
क्यों ? क्यों सुनयना मैया ! सिया जू मैने भी पूछ लिया ।
अगर दूल्हा गुस्सा हो गया तो ? सुनयना माता नें मुझ से कहा ।
मै हँस कर चुप हो गयी थी ………क्यों की अब आरती होनें वाली थी दूल्हा की ……………..
आरती हुयी ………….उस समय जो रूप बना था …दूल्हा का …..उसे मै तो क्या ! शारदा भी बखान नही कर सकती ।
अब चलिये ……….चलिये !
…….हम सब सखियों नें दूल्हा रघुनन्दन को बड़े प्रेम से कहा था ।
चलनें लगे ………….धीरे धीरे धीरे ……………
पीछे से हम सब हँसी ………………सब सखियाँ हँसनें लगीं ।
लक्ष्मण नें आँखें घुमाकर हमारी तरफ देखा ………………
पागल हो गई हो क्या ?
हाँ छोट दूल्हा ………..तुम्हे जब से देखा है पागल ही हो गयी हैं ।
ये कहकर हम सब फिर हँसनें लगीं थीं ……………..
पर हम आपसे एक बात पूछती हैं ………….आपको आपके माँ बाप नें चलना नही सिखाया ……..? सिया जू ! ये सुनकर रघुनन्दन चौंकें …….पर फिर शान्त हो गए ……..वो समझ गए थे कि ये भी विवाह का ही एक अंग है …..विधि है ।
देखो ! हमारे माँ बाप तक मत पहुँचों ……..
……….पर लक्ष्मण जी को गुस्सा आगया था ।
अच्छा छोटे दूल्हा सरकार ! पर आप फिर क्यों नाराज हो रहे हैं ….अभी तो परसुराम जी भी नही आये ………आप की शक्ति परसुराम जी के आगे ही चलती है …….हम सखियों से आप जीत न सकेंगें ।
हम सब फिर हँस दीं ……ताली बजाकर ।
इशारे में रघुनन्दन ने लक्ष्मण को चुप कराया …………….
अब हम चलें ? हम सखियों की ओर देखकर पूछ बैठे रघुनन्दन ।
हाँ …….बिलकुल आप चलिये …………हम सब सखियों नें कहा ।
ऐसे चल रहे हैं …………जैसे कोल्हू का बैल चलता है …..
पीछे से सिया जू ! कोई सखी बोल गयी ……..।
बस इतना क्या कहा उस सखी नें…….रघुनन्दन तो शान्त ही रहे …..पर लक्ष्मण जी से रहा नही गया ………फिर कहना क्या कहा सखी ?
ऐसे चल रहे हैं ………जैसे कोल्हू का बैल ।
ये कोल्हू के बैल हैं ? लक्ष्मण जी गुस्से में आगए थे ।
तब मुझे ही माहौल को संभालना था …….तो मै आगे आ गयी ।
अच्छा ….संस्कृत में बैल को क्या कहते हैं छोटे दूल्हा सरकार ? मैने लक्ष्मण जी से ही पूछा …………तो लक्ष्मण नें उत्तर दिया …..वरद ……
मैने कहा …..ठीक उत्तर दिया है आपनें ………..अब “वरद” का अर्थ करो ……वरद का अर्थ होता है ……वर देनें वाला …………वरदान देनें वाला ……..अच्छा लक्ष्मण जी ! वरदान देना क्या इनका स्वभाव नही है ….अकारण भी वरदान देते रहते हैं ……………..ये इनका सहज स्वभाव है ……..इसलिये हमनें इनको “वरद” कहा ……..।
पर तुमनें इन्हें बैल कहा……..लक्ष्मण जी बात को पकड़ कर बैठ गए थे ।
हाँ तो बैल भी कह दिया तो कौन सी आपत्ति आ गयी ……….
वृषभ को हमारे यहाँ धर्म रूप माना जाता है …….है ना लक्ष्मण भैया !
और इन श्रीराम को धर्म का साक्षात् अवतार कहा गया है ………..
फिर हमनें अगर बैल कह भी दिया इनको ….तो क्या हो गया ।
मैने चन्द्रकला से कहा …….वाह ! तू तो बहुत होशियार है …..सही जबाब दिया ।
.आपकी सखी हूँ…..कोई साधारण हूँ किशोरी जू ….चन्द्रकला बोली थी ।
अच्छा आगे बता, आगे क्या हुआ ? मैने पूछा ।
चन्द्रकला आगे सुनानें लगी थी …………..
अब तो लम्बी लम्बी चाल चलनें लगे थे …….ये उपाय भी लक्ष्मण जी नें ही बताया था श्री रघुनन्दन के कान में …………
अब थोडा जल्दी जल्दी चलिये ……….नही तो ये बैल ..सांड ……वृषभ ….ऐसे ऐसे शब्दों का प्रयोग करेंगी ।
बस भोले भण्डारी तो हैं हीं श्री राम ………..मान लिये अपनें छोटे भाई की बात …..लम्बी डग भरनें लगे थे ।
अब कैसे लग रहे हैं ये दूल्हा राम !
…………छेड़नें के लिये पीछे से फिर दूसरी सखी नें कहा था …..।
सिया जू ! मैने तुरन्त कहा …..ऐसे लग रहे हैं ……..जैसे बकरा बन्धन से मुक्त होते ही भागता है …………।
रुक गए छोटे दूल्हा……….रघुनन्दन नें कहा भी तुम जितना ज्यादा इनके मुँह लगोगे …..ये उतना ही बोलेंगी …..लक्ष्मण ! चुप रहो ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञ_अगलेभागमें……….
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
Niru Ashra: “बृजवासियों का उत्कृष्ट प्रेम”
भागवत की कहानी – 35
प्रेम वो है जो ज्ञान को भी अभिभूत कर दे । क्या सामान्य प्रेम में भी ये नही देखा जाता कि व्यावहारिक ज्ञान सामने वाले का प्रेम देखकर विलुप्त सा हो जाता है । ब्रह्म ज्ञान स्वरूप है और बृजवासी साक्षात प्रेम हैं …गोकुल में आकार लेकर जब ब्रह्म प्रकट हुआ तब बृजवासियों का प्रेम उमड़ा ….और उमड़ घुमड़ कर ब्रह्म में ही छा गया ….अब तो ब्रह्म को कुछ नही सूझ रहा …वो प्रेम देखकर अभिभूत है ।
ऐसा क्या प्रेम देख लिया इन बृजवासियों में ? ये प्रश्न परीक्षित का था ।
बहुत बड़ी बात है , अपने पूर्वजों की भूमि का परित्याग । हे परीक्षित ! बहुत बड़ी बात है कि किसी के लिए हम अपना घर बार सब एक झटके में त्याग दें । बहुत बड़ी बात है घर , आँगन , मोहल्ला ….हमारी आसक्ति बड़ी दृढ़ है इनके प्रति …किन्तु एक ही बार में सब कुछ त्याग कर …चल पड़े ये बृजवासी अपने कन्हैया के लिए ….और वन में , श्रीवृन्दावन में जाकर ये सब साथ रहते हैं । तभी तो ब्रह्म अभिभूत है इन बृजवासियों से …..शुकदेव ने कहा ।
आज पंचायत लगी है गोकुल गाँव में …..आस पास के गाँव वाले भी आए हैं इस पंचायत में ।
गाँव के मुखिया हैं नन्दराय जी । इन्हीं ने बुलाई है पंचायत ।
क्यों पंचों को बुलाया गया ? और आस पास के सभी गाँव वालों को भी ….क्यों ?
मुखिया नन्दबाबा से पंचो ने अपने आसन में बैठते हुये ये पूछा था ।
हजारों बृजवासियों के मध्य नन्दबाबा ने बोलना आरम्भ किया ……मुझे अपने कन्हैया को लेकर चिंता हो रही है । क्या हुआ कन्हैया को ? एकाएक बृजवासी पूछने लगे ।
आप लोग शांत रहें …कन्हैया को कुछ नही हुआ …लेकिन आगे कुछ हो न जाए इसके लिए मैंने ये पंचायत बुलाई है । नन्दबाबा बोले ।
हे ब्रजेश्वर ! जो कहना है स्पष्ट कहिए ….कन्हैया को क्या हुआ या होगा ? आप क्यों इस तरह परेशान हो रहे हैं ….कन्हैया के लिए हम पूरे गोकुलवासी अपने प्राणों की आहुति भी दे देंगे लेकिन उसे खरोंच आने नही देंगे ..पंचो ने ये कहा था ।
अब लम्बी साँस लेकर नन्दबाबा बोलना प्रारम्भ करते हैं …..और गोकुल का हर व्यक्ति नन्दबाबा को बड़े ध्यान से सुन रहा है ।
पता नही क्यों , मुझे ऐसा लगता है कि कंस का उत्पात इस गोकुल में कुछ ज़्यादा ही बढ़ रहा है ….और हाँ , विशेष हमारे कन्हैया का जब से जन्म हुआ तब से । नन्दबाबा चारों ओर देखते हैं ….सब लोग नन्द बाबा को ही देख रहे हैं ….नन्दबाबा फिर बोलना आरम्भ करते हैं ।
मेरे लाला का जन्म हुआ …छ दिन ही बीते थे कि असुरों की जननी पूतना आगयी ….मेरे लाला को उठाकर ले गयी । नन्दबाबा आगे कहते हैं ….अभी पूतना मरी ही थी की असुर शकट आगया …फिर यशोदा की गोद में था कन्हैया कि उसी समय तृणावर्त आगया । नन्द बाबा को पसीने आरहे हैं …..सर्द ऋतु है फिर भी पसीने आरहे हैं ….शुकदेव कहते हैं – इन्हें डर है कि इनके लाला को कुछ हो न जाए । अब कल की बात ही देख लो ….अर्जुन वृक्ष धराशायी हो गए ….ये तो अच्छा हुआ भगवान का जो लाला के ऊपर नही गिरे …नही तो लाला का क्या होता ?
कुछ नही होगा लाला को …हम अपने प्राणों की बाज़ी लगा देंगे । बृजवासी चिल्ला उठे थे ।
हाँ हाँ …मैं समझ रहा हूँ …लेकिन गोकुल में कहीं भी कुछ भी हो सकता है अब । नन्द बाबा कहते हैं …हम बूढ़े बड़ों की बात होती तो कोई बात नही थी ….बात है …हमारे कन्हैया की ।
तो आप क्या कहना चाहते हैं, हम क्या करें ? पंचो ने नन्दबाबा से पूछा ।
यही कह रहे हैं कि …..”हम गोकुल छोड़ रहे हैं”…..नन्दबाबा ने अब स्पष्ट कहा ।
कहाँ जाओगे आप ? अब भीड़ पूछने लगी । पुत्र की रक्षा पिता का कर्तव्य है …इसलिए मैं श्रीवृन्दावन जाने की सोच रहा हूँ …नन्द बाबा ने कहा ।
हम भी आपके साथ जायेंगे …..ये क्या ! हजारों की भीड़ चिल्लाने लगी थी ।
लेकिन आप लोगों का घर है ….आस पड़ोस हैं …खेती कृषि है ….इन सबको छोड़कर आप लोग कहाँ जाओगे ? नन्दबाबा ने सबको समझाना चाहा ।
नही , हे बृजराज ! हमें पराया मत बनाइए …कन्हैया आपका ही पुत्र नही है …इस गोकुल के जितने बड़े लोग हैं सब कन्हैया को अपना पुत्र मानते हैं …हर माता गोकुल की कन्हैया को अपना लाला मानती है …..एक बृजवासी ये कहते हुए रोने लगा …..कन्हैया के बिना तो हम अपने जीवन की कल्पना भी नही कर सकते । जहाँ कन्हैया जायेगा हम सब वहीं जायेंगे ….क्या खाओगे ? बृजवासी बोले ..हम कृषक हैं …जहाँ जायेंगे वहीं की धरती से अन्न उपजा लेंगे …और हमारे साथ गौएँ तो रहेंगी ही ना ! रहोगे कहाँ ? तो युवाओं की भीड़ ने कहा …जहाँ कन्हैया रहेगा …जहाँ कन्हैया रहेगा हम भी वहीं रहेंगे ।
ये सुनते ही पंचो की ओर नन्दबाबा ने देखा था …..पंचो ने कहा ….हे ब्रजराज ! आपके प्रति और आपके पुत्र के प्रति हम लोगों की आसक्ति अत्यंत दृढ़ हो गयी है ….इसलिए हमें अब किसी का कोई मोह नही रहा….न घर का , न कृषि का ….हमारे पूर्वज सदियों से यहाँ रहते आए हैं लेकिन आज हम तुम्हारे पुत्र के प्रेम में इतने डूब चुके हैं …कि कहीं मोह हमारा है ही नही ….सारा का सारा मोह अब तुम्हारे कन्हैया के प्रति ही है ….इसलिए आप ही नही हम सब , पूरे गोकुलवासी अपना घर-बार त्यागकर श्रीवृन्दावन चलेंगे । हे नन्द जी ! हम क्या कहें ! अब तो कन्हैया अपना ही लगता है …अपना पुत्र भी इतना अपना नही लगता जितना तुम्हारा कन्हैया लगता है ।
सजल नेत्रों से पंचो ने अपनी बात सुना दी थी ।
कन्हैया के साथ अब हम सब श्रीवृन्दावन जायेंगे …और वहाँ रहेंगे । साथ में कन्हैया रहेगा । ये सोचकर ही आनन्द से उछल उछल जाते हैं हजारों बृजवासी ।
इन बृजजनों का प्रेम कितना उत्कृष्ट है ना ? शुकदेव परीक्षित से पूछते हैं ।
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (036)
आपको ही आसरो है,आपको ही शरणो है,
आपके ही चरणो में,जीणो ओर मरणो है,
आप ही माता-पिता,कुटुम्ब परिवार हो,
भाई बन्धु सखा सहायक,तुम ही शरदार हो,
जीवन को उद्धार प्रभु,आपने ही करणो है,
शरण आए की लज्जा,राखो तुम दीनानाथ,
भव बीच नैया डोले,डोरी अब तेरे हाथ,
भलो बुरो जो भी हूँ में,आपने विचारणो है,
तुम ही नैया खवैया,तुम ही पतवार हो,
दीन बन्धु दु:खियों के,तुम ही आधार हो,
अर्ज हमारी प्रभु,आपको ही तारणो है,
ॠषि मुनी गण सब,करे सब बन्दगी,
सुणलो पुकार प्रभु,अब सदानन्द की,
शरण आये को प्रभु,सारो दुःख हरणो है,
भगवान श्रीकृष्ण ने पुरोहीत से स्तीफा लिया
इस नश्वर भौतिक जगत में धनवान का ही अधिक मान होता है, सर्वत्र धनवान ही पूज्य माना जाता हैं । निर्धन मनुष्य यदि अत्यंत गुणी भी हो तो उसकी और कोई ध्यान भी नहीं देता । यही कारण है कि किसी नीतिकार ने यहाँ तक कह डाला है कि —
ज्ञानवृद्वास्तपोवृद्धा वयोवृद्धास्तथापरे । ते सर्वे धनवृद्धस्य द्वारि तिष्ठन्ति किंकरा: ।।
अर्थात ‘ज्ञानी, तपस्वी तथा वयोवृद्ध मनुष्यों को भी धनवान मनुष्य के द्वार पर किंकरवत रहना पड़ता है ।’
हमारे भक्त राज भी लोक दृष्टि में वास्तव में निर्धन ही तो थे । फिर उनका कार्य करने के लिए पुरोहित जी कैसे तैयार होते ? उनकी स्थूल दृष्टि में भी तो सच्चा यजमान वहीं था जो भरपूर दक्षिणा दे । अतएव उन्होंने स्वार्थ अन्धे होकर कहा -‘नरसिंह राम ! तुम जानते हो कि आज वंशीधर भाई का भी निमंत्रण आया है ।फिर उनको छोड़ कर तुम्हारे घर कैसे चल सकता हूँ ।
नृसिंहराम रूपधारी भगवान ने कहा – ” क्यों पुरोहित जी ! क्या मैं आपका यजमान नहीं हूँ ? आपकी दृष्टि में तो धनवान और निर्धन सभी यजमान एक समान होने चाहिए ? ।”
पुरोहीत जी ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा – “सभी यजमान समान कैसे हो सकते हैं ? तूने तो सारी जिंदगी में आज निमंत्रण दिया है और वंशीधर का बराबर ही निमंत्रण आया करता है । फिर आज भी तू भिक्षुक दक्षिणा ही कितनी देगा ? बराबरी दिखाने चला है ।
” भगवान श्रीकृष्ण बोले – “अच्छा महाराज ! तब आज से इस्तीफा दीजिए कि नरसिंह राम का मैं आज से कुल पुरोहित नहीं रहा । मैं कोई दूसरा ब्राह्मण खोज लूँगा ।”
“पुरोहित जी ने ताव में आकर इस्तीफा लिख दिया । पत्र लेकर भगवान वहाँ से चले आये । रास्ते में एक मूर्ख निर्धन ब्राह्मण दिखायी पड़े ।
भगवान ने कहा – ” महाराज आप मेरे घर एकोदृष्टि श्राद्ध कराने के लिए पधारेगें ?”
ब्राह्मण ने नम्रता पूर्वक प्रार्थना की – “नरसिंह राम जी ! मैं कुछ भी पढ़ा लिखा नहीं हूँ ; केवल खेती करके अपना और अपने परिवार का उदर-पोषण करता हूँ । अःत मैं आपके कार्य के योग्य नहीं; किसी विद्वान ब्राह्मण को खोजिये ।”
भगवान बोले – “महाराज आप ही सच्चे ब्राह्मण है और सब कुछ जानते हैं । जो ब्राह्मण विद्वान होने पर अंहकार मद में चूर है वह ब्राह्मणत्व से कोसों दूर है । वैसे ब्राह्मण की मुझे आवश्यकता नहीं है । आप कृपा कर मेरे घर पधारिये ; आपके द्वारा ही मेरा कार्य सम्पन्न हो जायेगा । “कहकर भगवान उस मूर्ख ब्राह्मण को नृसिंहराम के घर ले आये ।
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 10 . 4 – 5
🌹🌹🌹🌹🌹
बुद्धिर्ज्ञानसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः |
सुखं दु:खं भवोSभावो भयं चाभयमेव च || ४ ||
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोSयशः |
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः || ५ ||
बुद्धिः – बुद्धि; ज्ञानम् – ज्ञान; असम्मोहः – संशय से रहित; क्षमा – क्षमा; सत्यम् – सत्यता; दमः – इन्द्रियनिग्रह; शमः – मन का निग्रह; सुखम् – सुख; दुःखम् – दुख; भवः – जन्म; अभवः – मृत्यु; भयम् – डर; च – भी; अभयम् – निर्भीकता; एव – भी; च – तथा; अहिंसा – अहिंसा; समता – समभाव; तुष्टिः – संतोष; तपः – तपस्या; दानम् – दान; यशः – यश; अयशः – अपयश, अपकीर्ति; भवन्ति – होते हैं; भावाः – प्रकृतियाँ; भूतानाम् – जीवों की; मत्तः – मुझसे; एव – निश्चय ही; पृथक्-विधाः – भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यवस्थित |
भावार्थ
🌹🌹
बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, सुख तथा दुख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश – जीवों के ये विविध गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं |
तात्पर्य
🌹🌹
जीवों के अच्छे या बुरे गुण कृष्ण द्वारा उत्पन्न हैं और यहाँ पर उनका वर्णन किया गया है |
.
बुद्धि का अर्थ है नीर-क्षीर विवेक करने वाली शक्ति, और ज्ञान का अर्थ है, आत्मा तथा पदार्थ को जान लेना | विश्र्वविद्यालय की शिक्षा से प्राप्त सामान्य ज्ञान पदार्थ से सम्बन्धित होता है, यहाँ इसे ज्ञान नहीं स्वीकार किया गया है | ज्ञान का अर्थ है आत्मा तथा भौतिक पदार्थ के अन्तर को जानना | आधुनिक शिक्षा में आत्मा के विषय में कोई ज्ञान नहीं दिया जाता, केवल भौतिक तत्त्वों तथा शारीरिक आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है | फलस्वरूप शैक्षिक ज्ञान पूर्ण नहीं है |
.
असम्मोह अर्थात् संशय तथा मोह से मुक्ति तभी प्राप्त हो सकती है, जब मनुष्य झिझकता नहीं और दिव्य दर्शन को समझता है | वह धीरे-धीरे निश्चित रूप से मोह से मुक्त हो जाता है | हर बात को सतर्कतापूर्वक ग्रहण करना चाहिए, आँख मूँदकर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चाहिए | क्षमा का भ्यास करना चाहिए | मनुष्य को सहिष्णु होना चाहिए और दूसरों के छोटे-छोटे अपराध क्षमा कर देना चाहिए | सत्यम् का अर्थ है कि तथ्यों को सही रूप से अन्यों के लाभ के लिए प्रस्तुत किया जाए | तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना नहीं चाहिए | सामाजिक प्रथा के अनुसार कहा जाता है कि वही सत्य बोलना चाहिए जो अन्यों को प्रिय लगे | किन्तु यह सत्य नहीं है | सत्य को सही-सही रूप में बोलना चाहिए, जिससे दुसरे लोग समझ सकें कि सच्चाई क्या है | यदि कोई मनुष्य चोर है और यदि लोगों को सावधान कर दिया जाय कि अमुक व्यक्ति चोर है, तो यह सत्य है | यद्यपि सत्य कभी-कभी अप्रिय होता है, किन्तु सत्य कहने में संकोच नहीं करना चाहिए | सत्य की माँग है कि तथ्यों को यथारूप में लोकहित के प्रस्तुत किया जाय | यही सत्य की परिभाषा है |
दमः का अर्थ है कि इन्द्रियों को व्यर्थ के विषयभोग में न लगाया जाय | इन्द्रियों की समुचित आवश्यकताओं की पूर्ति का निषेध नहीं है, किन्तु अनावश्यक इन्द्रियभोग आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है | फलतः इन्द्रियों के अनावश्यक उपयोग पर नियन्त्रण रखना चाहिए | इसी प्रकार मन पर भी अनावश्यक विचारों के विरुद्ध संयम रखना चाहिए | इसे शम कहते हैं | मनुष्य को चाहिए कि धन-अर्जन के चिन्तन में ही सारा समय न गँवाए | यह चिन्तन शक्ति का दुरूपयोग है | मन का उपयोग मनुष्यों की मूल आवश्यकताओं को समझने के लिए किया जाना चाहिए और उसे ही प्रमाणपूर्वक प्रस्तुत करना चाहिए | शास्त्रमर्मज्ञों, साधुपुरुषों, गुरुओं तथा महान विचारकों की संगति में रहकर विचार-शक्ति का विकास करना चाहिए | जिस प्रकार से कृष्णभावनामृत के अध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में सुविधा ही वही सुखम् है | इसी प्रकार दुःखम् वह है जिससे कृष्णभावनामृत के अनुशीलन में असुविधा हो | जो कुछ कृष्णभावनामृत के विकास के अनुकूल हो, उसे स्वीकार करे और जो प्रतिकूल हो उसका परित्याग करे |
.
भव अर्थात् जन्म का सम्बन्ध शरीर से है | जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, वह न तो उत्पन्न होता है न मरता है | इसकी व्याख्या हम भगवद्गीता के प्रारम्भ में ही कर चुके हैं | जन्म तथा मृत्यु का संबंध इस भौतिक जगत् में शरीर धारण करने से है | भय तो भविष्य की चिन्ता से उद्भूत है | कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह अपने कर्मों के द्वारा भगवद्धाम को वापस जाने के प्रति आश्र्वस्त रहता है | फलस्वरूप उसका भविष्य उज्जवल होता है | किन्तु अन्य लोग अपने भविष्य के विषय में कुछ नहीं जानते, उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं होता कि अगले जीवन में क्या होगा | फलस्वरूप वे निरन्तर चिन्ताग्रस्त रहते हैं | यदि हम चिन्तामुक्त होना चाहते हैं, तो सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम कृष्ण को जाने तथा कृष्णभावनामृत में निरन्तर स्थित रहें | इस प्रकार हम समस्त भय से मुक्त रहेंगे | श्रीमद्भागवत में (११.२.३७) कहा गया है – भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात् – भय तो हमारे मायापाश में फँस जाने से उत्पन्न होता है | किन्तु जो माया के जाल से मुक्त हैं, जो आश्र्वस्त हैं कि वे शरीर नहीं, अपितु भगवान् के अध्यात्मिक अंश हैं और जो भगवद्भक्ति में लगे हुए हैं, उन्हें कोई भय नहीं रहता | उनका भविष्य अत्यन्त उज्जवल है | यह भय तो उन व्यक्तियों की अवस्था है जो कृष्णभावनामृत में नहीं हैं | अभयम् तभी सम्भव है जब कृष्णभावनामृत में रहा जाए |
.
अहिंसा का अर्थ होता है की अन्यों को कष्ट न पहुँचाया जाय | जो भौतिक कार्य अनेकानेक राजनीतिज्ञों, समाजशास्त्रियों, परोपकारियों आदि द्वारा किये जाते हैं, उनके परिणाम अच्छे नहीं निकलते, क्योंकि राजनीतिज्ञों, सतथा परोपकारियों की दिव्यदृष्टि नहीं होती, वे यह नहीं जानते कि वास्तव में मानव समाज के लिए क्या लाभप्रद है | अहिंसा का अर्थ है कि मनुष्यों को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाए कि इस मानवदेह का पूरा-पूरा उपयोग हो सके | मानवदेह आत्म-साक्षात्कार के हेतु मिली है | अतः ऐसी कोई संस्था या संघ जिससे उद्देश्य की पूर्ति में प्रोत्साहन न हो, मानवदेह प्रति हिंसा करने वाला है | जिससे मनुष्यों के भावी आध्यात्मिक सुख में वृद्धि हो, वही अहिंसा है |
.
समता से राग-द्वेष से मुक्तो द्योतित होती है | न तो अत्यधिक राग अच्छा होता है और न अत्यधिक द्वेष ही | इस भौतिक जगत् को राग-द्वेष से रहित होकर स्वीकार करना चाहिए | जो कुछ कृष्णभावनामृत को सम्पन्न करने में अनुकूल हो, उसे ग्रहण करे और जो प्रतिकूल हो उसका त्याग कर दे | यही समता है | कृष्णभावनामृत युक्त व्यक्ति को न तो कुछ ग्रहण करना होता है, न त्याग करना होता है | उसे तो कृष्णभावनामृत सम्पन्न करने में उसकी उपयोगिता से प्रयोजन रहता है |
.
तुष्टि का अर्थ है कि मनुष्य को चाहिए कि अनावश्यक कार्य करके अधिकाधिक वस्तुएँ एकत्र करने के लिए उत्सुक न रहे | उसे तो ईश्र्वर की कृपा से जो प्राप्त हो जाए, उसी से प्रसन्न रहना चाहिए | यही तुष्टि है | तपस् का अर्थ है तपस्या | तपस् के अन्तर्गत वेदों में वर्णित अनेक विधि-विधानों का पालन करना होता है – यथा प्रातः-काल उठाना और स्नान करना | कभी-कभी प्रातःकाल उठान अति कष्टकारक होता है , किन्तु इस प्रकार स्वेच्छा से जो भी कष्ट सहे जाते हैं वे तपस् या तपस्या कहलाते हैं | इसी प्रकार मॉस के कुछ विशेष दिनों में उपवास रखने का विदन है | हो सकता है कि इस उपवासों को करने की इच्छा न हो, किन्तु कृष्णभावनामृत के विज्ञान में प्रगति करने के संकल्प के कारण उसे ऐसे शारीरिक कष्ट उठाने ल्होते हैं | किन्तु उसे व्यर्थ ही अथवा वैदिक आदेशों के प्रतिकूल उपवास करने की आवश्यकता नहीं है | उसे किसी राजनीतिक उद्देश्य से उपवास नहीं करना चाहिए | भगवद्गीता में इसे तामसी उपवास कहा गया है तथा किसी भी ऐसे कार्य से जो तमोगुण या रजोगुण के किया जाता है, आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती | किन्तु सतोगुण में रहकर जो भी कार्य किया जाता है वह समुन्नत बनाने वाला है, अतः वैदिक आदेशों के अनुसार किया गया उपवास आध्यात्मिक ज्ञान को समुन्नत बनाता है |
.
जहाँ तक दान का सम्बन्ध है, मनुष्य को चाहिए कि अपनी आय का पचास प्रतिशत किसी शुभ कार्य में लगाए और यह शुभ कार्य है क्या? यह है कृष्णभावनामृत में किया गया कार्य | ऐसा कार्य शुभ ही नहीं, अपितु सर्वोत्तम होता है | चूँकि कृष्ण अच्छे हैं इसीलिए उनका कार्य (निमित्त) भी अच्छा है, अतः दान उसे दिया जाय जो कृष्णभावनामृत में लगा हो | वेदों के अनुसार ब्राह्मणों को दान दिया जाना चाहिए | यह प्रथा आज भी चालू है, यद्यपि इसका स्वरूप वह नहीं है जैसा कि वेदों का उपदेश है | फिर भी आदेश यही है कि दान ब्राहमणों को दिया जाय | वह क्यों? क्योंकि वे अध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे रहते हैं | ब्राह्मण से यह आशा की जाती है कि वह सारा जवान ब्रह्मजिज्ञासा में लगा दे | ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः – जो ब्रह्म को जाने, वही ब्राह्मण है | इसीलिए दान ब्राह्मणों को दिया जाता है, क्योंकि वे सदैव आध्यात्मिक कार्य में रत रहते हैं और उन्हें जीविकोपार्जन के लिए समय नहीं मिल पाता | वैदिक साहित्य में संन्यासियों को भी दान दिते जाने का आदेश है | संन्यासी द्वार-द्वार जाकर भिक्षा माँगते हैं | वे धनार्जन के लिए नहीं, अपितु प्रचारार्थ ऐसा करते हैं | वे द्वार-द्वार जाकर भिक्षा माँगते हैं | वे धनार्जन के लिए नहीं, अपितु प्रचारार्थ ऐसा करते हैं | वे द्वार-द्वार जाकर गृहस्थों को अज्ञान की निद्रा से जगाते हैं | चूँकि गृहस्थ गृहकार्यों में व्यस्त रहने के कारण अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को, कृष्णभावनामृत जगाने को, भूले रहते हैं, अतः यह संन्यासियों का कर्तव्य है कि वे भिखारी बन कर गृहस्थों के पास जाएँ और कृष्णभावनामृत होने के लिए उन्हें प्रेरित करें | वेदों का कथन है कि मनुष्य जागे और मानव जीवन में जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त करे | संन्यासियों द्वारा यह ज्ञान तथा विधि वितरित की जाती है, अतः संन्यासी को ब्राह्मणों को तथा इसी प्रकार के उत्तम कार्यों के लिए दान देना चाहिए, किसी सनक के कारण नहीं|
.
यशस् भगवान् चैतन्य के अनुसार होना चाहिए | उनका कथन है कि मनुष्य तभी प्रसिद्धि (यश) प्राप्त करता है, जब वह महान भक्त के रूप में जाना जाता हो | यही वास्तविक यश है | यदि कोई कृष्णभावनामृत में महान बनता है और विख्यात होता है, तो वही वास्तव में प्रसिद्ध है | जिसे ऐसा यश प्राप्त न हो, वह अप्रसिद्ध है |
.
ये सारे गुण संसार भर में मानव समाज में तथा देवतामाज में प्रकट होते हैं | अन्य लोकों में भी विभिन्न तरह के मानव हैं और ये गुण उनमें भी होते हैं | तो, जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में प्रगति करना चाहता है, उसमें कृष्ण ये सारे गुण उत्पन्न कर देते हैं, किन्तु मनुष्य को तो इन्हें अपने अन्तर में विकसित करना होता है | जो व्यक्ति भगवान् की सेवा में लग जाता है, वह भगवान् की योजना के अनुसार इन सारे गुणों को विकसित कर लेता है |
.
हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा देखते हैं उसका मूल श्रीकृष्ण हैं | इस संसार में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जो कृष्ण में स्थित न हो | यही ज्ञान है | यद्यपि हम जानते हैं कि वस्तुएँ भिन्न रूप में स्थित हैं, किन्तु हमें यह अनुभव करना चाहिए कि सारी वस्तुएँ कृष्ण से ही उत्पन्न हैं.


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877