🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣7️⃣
भाग 3
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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कोहवरहिं आनें कुँवर कुँवरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै…..
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
ओह ! अच्छा किसके साथ हुयी ? सखी नें फिर पूछा ।
श्रृंगी ऋषि के साथ मेरी बहन शान्ता का विवाह हुआ है ।
चारुशीला जोर से हँसी ……….बाबा जी के अलावा और कोई नही मिला आपको अपनी बहन के लिए ?
श्रीरघुनन्दन चुप हो गए …।
खड़े खड़े बहुत देर हो गई…………………..
तब सारी सखियाँ बोलीं …………..एक काम कर दो …..यही हमारा नेग है …….और हमें कुछ नही चाहिये ।
हाँ हाँ …कहो …….क्या चाहिये तुम्हे नेग में ?
हे कुँवर ! बस एक बार हमारी किशोरी जू के आगे झुक जाओ ।
ये क्या माँग लिया ! मेरे श्रीरघुनन्दन भी कुछ बोलनें की स्थिति में नही रह गए थे …………
अब जल्दी करो …………….नही तो पूरी रात यहीं गुजारनी पड़ेगी ।
सखियाँ हँसनें लगीं ये कहकर ……….।
तभी मेरे श्रीरघुनंदन नें मुझे देखा …….बड़े प्रेम से देखा ………..
और मेरी और बढ़े …….मै लजा गयी …………….
प्रेम भी विचित्र होता है ………समर्पण भी और हया भी ……..जब समर्पण है तो लज्जा किस बात की …………..और जब लज्जा ही है तो समपर्ण पूरा कहाँ हुआ ?
पर प्रेम में ये सब सिद्धान्त कहाँ चलते हैं ………………यहाँ तो कुछ भी करना, वो सब प्रेम ही है ………..बस प्रेम ।
झुके मेरे श्रीरघुनंदन मेरी ओर …………………
मेरी सारी सखियाँ जोर से बोल उठीं ……..पाँव पकड़ो हमारी सिया जू के ……………..कुँवर ! झुको ………..ये प्रेम है …..ये प्रेम का पथ है ……इसमें जो जितना झुकेगा ………….वो उतना ही पायेगा …….ये प्रेम है ……….अकड़ वाले प्रेम को कहाँ जान पाते हैं …………वो तो बेचारे अकड़ में ही रीते रह जाते हैं ……………।
प्रेम का उपदेश मिल रहा था परब्रह्म श्री राम को मेरी सखियों के द्वारा ……..है ना विचित्र बात …………….परब्रह्म को दरवाजे में खड़ा कर उन्हें उपदेश और दे रही थीं मेरी ये सखियाँ …….।
मेरे श्रीरघुनन्दन झुके ……..और मेरे पाँव ………उफ़ !
मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा यहाँ टूट जाती है ……..टूटनी भी चाहिए ….प्रेम नगरी में आकर मर्यादा नही टूटी तो प्रेम नगरी ही कैसी ?
सारी सखियों नें तालियाँ बजाईं …………….नेग मिल गया ।
अब ?
अब तो जानें दो कोहवर में ! मेरे श्री रघुनन्दन नें कहा ।
पर मेरी दुष्ट सखियाँ मेरी तरफ देखनें लगीं …………..
मेरी तरफ क्यों देख रही हो ? मैने पूछा ।
नेग तो अब तुम भी दोगी हमारी प्यारी सखी सिया सुकुमारी !
मस्ती भरे अंदाज में सब सखियाँ बोलीं ।
पर मै भी इनकी सखी थी ………….मै इन सब को जानती हूँ ……
मैने तुरन्त अपनें बगल में खड़े श्री रघुनन्दन का हाथ पकड़ा …….और अपनी सखियों के हाथों में दे दिया ।
मेरी सखियाँ तो रो गयीं ……………….हे सिया जू ! व्यक्ति सब कुछ दे सकता है ……..पर अपना प्रेम ? अपना राम ? अपनें प्राण …..कौन देता है ………..आप जितनी उदार हो …….आप जितनी कृपालु हो इतना कोई नही है ……………..
मेरी सखियों नें आनन्दाश्रुओं से हमारे चरण पखार दिए थे ……….
कितनी प्यारी और कितनी अच्छी हैं मेरी ये जनकपुर की सखियाँ ।
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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: Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 22
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वेदानां सामवेदोSस्मि देवानामस्मि वासवः |
इन्द्रियाणां मनश्र्चास्मि भूतानामस्मि चेतना || २२ ||
वेदानाम् – वेदों में; साम-वेदः – सामवेद; अस्मि – हूँ; देवानाम् – देवताओं में; अस्मि – हूँ; वासवः – स्वर्ग का राजा; इन्द्रियाणाम् – इन्द्रियों में; मनः – मन; च – भी; अस्मि – हूँ; भूतानाम् – जीवों में; अस्मि – हूँ; चेतना – प्राण, जीवन शक्ति |
भावार्थ
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मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ, तथा समस्त जीवों में जीवनशक्ति (चेतना) हूँ |
तात्पर्य
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पदार्थ तथा जीव में यह अन्तर है कि पदार्थ में जीवों के समान चेतना नहीं होती, अतः यह चेतना परम तथा शाश्र्वत है | पदार्थों के संयोग से चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती |
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (52)
🕉😢👏गोपाल सँवरिया मेरो नंदलाल सँवरिया
मेरो मेरो कोई नही इस जग में सरकार स्वरिया मेरो
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नरसीराम भगवान कीर्तन मल्हार राग में इस भाव से शुरू किया -भगवान ! क्या आपने सुधन्वा की तेल की कढ़ाई को अपनी कृपा सुधा के द्वारा शीतल नहीं बना दिया था ? यह भी तो उसी प्रकार का हैं प्रभो ! आपने अनेक बार मुझे सहायता दी है, क्या इस धर्म संकट से मुझे पार उतारने में आप असमर्थ बन जायगे ? हे मेरे श्याम धन ! तुरंत जल बरसाने की कृपा करें और इन मजाक करने वालों का मुहँ बन्द कर दे । “*
भजन समाप्त होते-होते माघ मास का निर्मल आकाश घनघोर काली घटाओं से छा गया । देखते -देखते ‘सावन – भादों की तरह मूसलधार जल बरसने लगा। बने-ठने सब लोग भींग गये, भगवान की कृपा से भक्त राज का उष्णोदक शीतल हो गया, ‘ वर्षा बन्द हुई तब स्नान करके वह भी सब लोगों के साथ भोजन करने के लिये आसन पर बैठ गये । सब लोग उनकी भक्ति देखकर आश्चर्य में डूब गये । ‘फिर भी सबको भगवान पर विश्वास नहीं हुआ । उन्होंने समझा इसमें नरसि़ंहराम की कोई जादूगरी होगी !’
दूसरे दिन प्रातःकाल से ही सीमन्त -संस्कार आरम्भ हो गया। श्रीरंगधर मेहता का आँगन विद्वान ब्राह्मण, सगे-सम्बन्धी, कुलपरिवार, युवा – वृद्ध -बालक स्त्री – पुरुष इत्यादि से खचाखच भरा हुआ था । नाना प्रकार के बाजे बज रहे थे और मंगल गीत गाये जा रहे थे । धीरे -धीरे वैदिक विधि के अनुसार सांग पांग सीमन्त -संस्कार सम्पन्न हुआ । अब सम्बन्धियों को चीर प्रदान करने का समय उपस्थित हुआ ।
‘ कुँवरबाई ने आँख उठाकर एक बार अपने पिताजी की ओर देखा,’ मानो संकेत द्वारा चीर प्रदान करने की बात उसने स्मरण करायी हो ! ‘भक्त राज ने अवसर उपस्थित देख अपनी करताल ऊठायी और कीर्तन करते हुए भगवान को पुकारना आरम्भ किया । उन्होंने जो भजन गाया, ‘ उसका तात्पर्य इस प्रकार था —-
*’ भक्तवत्सल परमात्मन ! मैं आपका हूँ, आप मेरे है, फिर आप क्या इस अन्तिम व्यावहारिक कार्य में मुझे सहायता नहीं देंगे ? प्रभो ! आपने तो यह वचन दिया है कि—– *
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीत च याचते।
अभंय सर्वभूतेभ्यो ददाम्वेतद व्रतं मम ॥
अर्थात जो एक बार फिर आपके शरण होकर ‘मैं तुम्हारा हूँ ‘ कहकर याचना करता है, उसको मैं सब भूतों से अभय कर देता हूँ, यह मेरा व्रत हैं।’
तेरी याद में रोते है जग ते है न सोते है,
उल्फत में तेरी मोहन दामन को भिगोते है,
तेरी याद में रोते है….
ये कैसी उल्फत है कुछ समज नही आवे,
प्रीतम को मेरे मुझ पर कोई तरस नहीं आवे,
ये कैसी अवस्था है क्या प्रीत के गोते है,
उल्फत में तेरी मोहन दामन को भिगोते है,
तेरी याद में रोते है….
अगर प्रीत है ये मोहन ये प्रीत अजुभि है,
प्रेमी को रुलाना ही क्या प्रीत की खुभी है,
हम प्रीत के मारे जीते न मरते है,
उल्फत में तेरी मोहन दामन को भिगोते है,
तेरी याद में रोते है….
करुणा के सागर हो करुणा तो दिखलाओ,
हम हार गए मोहन इतना तो न अजमाओ,
नंदू नीले प्यारे अरमान सी सख्ते है,
उल्फत में तेरी मोहन दामन को भिगोते है,
तेरी याद में रोते है….
क्रमशः ………………!
[] Niru Ashra: “शिशुपाल वध”
भागवत की कहानी – 51
“प्रथम पूजा तो श्रीकृष्ण की ही होनी चाहिए”…..पाण्डवों में सबसे छोटे भाई हैं सहदेव, उन्होंने ही ये बात कही थी । अग्र पूजा के योग्य श्रीकृष्ण ही हैं ….ये समस्त देवों के देव हैं ….देवता , देश , काल यानि समय और धन यही हैं …..ये सृष्टि पालन और संहार के कारण हैं ….ये परात्पर हैं ….हे ऋषियों ! हे देश विदेश के राजाओं ! और हे इन्द्रादि देवों ! क्या मैं पांडुनन्दन सहदेव सत्य नही कह रहा ? आदि नारायण यही तो हैं श्रीकृष्ण । इतना कहकर उस सभा में सहदेव चुप हो गये थे …..सभा के समस्त गणमान्य व्यक्ति सहदेव की बातों में सत्य का शोध कर ही रहे थे कि …भीष्म पितामह ने उठकर सर्वप्रथम सहदेव की बातों का अनुमोदन किया । उन्होंने उत्साह में करतल ध्वनि भी की । हुआ ये था उस सभा में ….शुकदेव परीक्षित को वो प्रसंग सुनाने लगे थे ।
हे देवकी नन्दन ! अब मेरी एक इच्छा है कि आपके विभिन्न रूपों की मैं अर्चना करूँ ।
मगध से भीम अर्जुन के संग श्रीकृष्ण जरासन्ध वध करके लौट आए हैं …..तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण के चरणों की वंदना करते हुए कहा था…..मैं चाहता हूँ कि आपके विभिन्न रूप ….ऋषि , महात्मा , सहृदय राजा , सज्जन पुरुष , दीन दुखी …और यज्ञ …..ये सब आपके ही रूप हैं मैं इन्हीं की पूजा करना चाहता हूँ । हे युधिष्ठिर महाराज ! कैसे ? कैसे पूजना चाहते हो ? कैसी अर्चना करना चाहते हो ? श्रीकृष्ण ने सहज भाव से पूछा था….तो युधिष्ठिर ने उत्तर दिया राजसूय यज्ञ द्वारा । श्रीकृष्ण मुस्कुराए ….फिर वहाँ खड़े पाण्डवों से पूछने लगे कि राजसूय यज्ञ में तो किसी को कोई आपत्ति नही होनी चाहिए …..ना , बिल्कुल नही ….अर्जुन ने मुस्कुराते हुये कहा । भीम ने कहा ….हम तो चाहते ही हैं कि हमारे यहाँ यज्ञ आदि होते रहें ……और द्रोपदी ! तुम क्या कहती हो ? द्रोपदी मुस्कुराके बोली …..हे सखे ! आप अगर यज्ञ में आसको तो ये यज्ञ अवश्य हो ….किन्तु आपका आना न हो तो रहने ही दें ।
शुकदेव कहते हैं – पाण्डव अपनी आत्मा से भी अधिक श्रीकृष्ण को प्रेम करने वाले हैं ।
“आसको नही”, यज्ञ तो कल से ही आरम्भ हो रहा है”….आनन्द में डूबे युधिष्ठिर ने विलम्ब नही किया …..फिर आना जाना क्या ? श्रीकृष्ण यहीं हैं और यज्ञ इन्हीं के सान्निध्य में हो जाए ।
यज्ञ की तैयारियाँ आरम्भ हो गयीं थीं …….देश विदेश के राजाओं को तुरन्त निमंत्रण भेजा गया …..ऋषि-मुनियों को देवर्षि नारद जी ने बुलवा दिया था ……राजसूय यज्ञ में सेवा कार्य स्वयं पाण्डवों को ही करने का आदेश श्रीकृष्ण ने ही दिया था । इसलिए द्रोपदी भोजन की व्यवस्था में स्वयं थीं …..और इनके सखा ऋषियों के पद पखारने में । आज राजसूय यज्ञ आरम्भ होगा ….सभा में समस्त राजा महाराजाओं का आगमन हो चुका था ….नभ से ऋषि मुनि भी आगये थे …सनकादि , अंगिरा , व्यास , पराशर आदि आदि ऋषि भी पधारे हैं …..इन्द्रप्रस्थ के राजा हैं युधिष्ठिर और महारानी पद में सुशोभित हैं द्रोपदी ।
तब कुछ पुरोहित वर्ग इस प्रश्न को करने लगा था ….कि प्रथम पूज्य कौन होगा इस यज्ञ का ?
जी ! अग्र पूजा किसकी ? ये प्रश्न उठा था ।
“श्रीकृष्ण की, क्यों कि विश्व ब्रह्माण्ड में श्रीकृष्ण के सिवा कोई नही है जिसकी अग्र पूजा हो” ।
सहदेव ने उठकर सबके समाने ये बात रखी थी ।
सब लोग ….साधु साधु कह उठे थे ….लेकिन प्रथम समर्थन तो भीष्म पितामह ने ही किया था ।
पूज्य सत्य स्वरूप होते हैं ….लेकिन कृष्ण तो असत्य रूप है ….इसकी पूजा क्यों ?
ये कौन बोला था …..सबने पीछे मुड़कर देखा तो …..ओह ! क्रोध से नथुने फूल गए थे ….लाल मुख हो गया था …साँस की गति अत्यंत तेज चल रही थी । ये था शिशुपाल ।
क्यों तुम लोगों को कोई नही मिला क्या ?
भीष्म पितामह हैं , आचार्य द्रोण हैं …आचार्य कृपा हैं …..और तो और वो देखा सनकादि ऋषि हैं …..क्या ये पूज्य नही हैं ? शिशुपाल बहुत क्रोधित है । वो बोलता ही जा रहा है ।
गाँव के चरवाहे अब पूज्य होने लगे । स्त्रियों का लंपट पूज्य है ? अपने भाई की होने वाली पत्नी तक को ये हरण करके ले गया ….मैं इसका भाई तो हूँ …..इसनें ये सोचा भी ! रुक्मणी के साथ मेरा विवाह होने वाला था ….लेकिन ये धूर्त । क्या धूर्त पूज्य है ?
अरे ! ये चोर है …..ये कपटी है ….कपटी से तो दूर रहना ही चाहिए ….ये विश्वासघाती भी है …विश्वासघाती की परछाँईं भी अपवित्र कर देती है …..इसका तो जो मुख देख ले उसका दिन ही अमंगल हो जाये ….ऐसे कृष्ण की तुम लोग इस पवित्र राजसूय यज्ञ की अग्र पूजा करोगे ?
और किस की बात मान रहे हो ….बालक सहदेव की ? ये तो बच्चा है ….इसकी बात मान कर दुष्ट कृष्ण की पूजा करोगे तो तुम्हारा भी अमंगल होगा ।
भीम की गदा हिलने लगी …..अर्जुन का गांडीव काँपने लगा ….नकुल ने अपनी तलवार से अपने हाथ को घायल कर लिया था …ये सब शिशुपाल से क्रोधित हो उठे थे ….लेकिन श्रीकृष्ण ने सबको शान्त किया …और संकेत में सहज भाव से बोले …”गाली तो दे रहा है ,किन्तु हृदय से दे रहा है”।
जो वर्ण व्यवस्था को नही मानता उसे तुम लोग क्यों मान रहे हो …..सबका झूठा खाना ….जाति पाति कुछ नही देखना …अरे ये कृष्ण गुणों से हीन है …..धर्म कर्म से बहिष्कृत ! इसके माता पिता का पता नही ….देवकी का है या यशोदा का ……शिशुपाल स्वयं हंस रहा है …..नन्द का है या वसुदेव का , इसे भी पता नही …….ऐसे की अग्रपूजा करोगे ? शिशुपाल चुनचुन कर गालियाँ देता रहा ….श्रीकृष्ण सुनते रहे …..सभा में विराजे लोगों को कष्ट हो रहा था …..लेकिन श्रीकृष्ण का संकेत था कि सब शांत रहें …..लेकिन कब तक ? भीम चिल्लाकर श्रीकृष्ण से पूछता है । “सौ गाली तक”….गम्भीर होकर श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं ।
ये गालियाँ देता रहा …..श्रीकृष्ण सुनते रहे ….और अब सौ गालियाँ जैसे ही पूरी हुईं …..सुदर्शन चक्र श्रीकृष्ण का उठा और शिशुपाल का मस्तक धड़ से अलग कर दिया था ।
शुकदेव कहते हैं – हे परीक्षित ! सबने देखा …शिशुपाल की आत्मज्योति श्रीकृष्ण में ही विलीन हो गयी थी ।
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877