श्रीकृष्णकर्णामृत – 65 : नीरु आशरा

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श्रीकृष्णकर्णामृत - 65

तुम मुझे देखो….


कदा नु कस्यां नु विषद्-दशायां कैशोर -गन्धिः करुणाम्बुधिनंः ।
विलोचनाभ्यां विपुलायताभ्यामालोक यिष्यन्विषयीकरोति ।।६३॥

हे साधकों ! रस राज्य में बिल्वमंगल विरह दशा के कारण मूर्छित पड़े हैं ….अपने प्यारे को पुकारते रहने के कारण इनका कण्ठ सूख गया है ….क्षुधा के कारण देह जर्जर हो गया है ….किन्तु इनको परवाह नही है …इन्हें तो लग रहा है …प्यारे आयें …और हृदय से लगायें । किन्तु इनके प्यारे’ भी निष्ठुर बन गये हैं …आते नही हैं । उस रस राज्य के कपियों ने आकर बिल्वमंगल को पत्तों में जल भरकर पिलाया है …कुछ कदली फल आदि इनके लिए रख दिए हैं । जल इनके ऊपर पड़ा तो इनको कुछ होश आया ….ये उठ जाते हैं और चारों ओर देखने लगते हैं । जब इन्हें अपना किशोर नही दिखाई देता है …तो इनकी दशा और दयनीय हो उठती है ।

बिल्वमंगल अत्यन्त विरहातुर हो फिर पुकारने लगते हैं ।

हे मेरे नव किशोर ! तुम आख़िर चाहते क्या हो ? मैं रोऊँ ? मैं रो तो रहा हूँ …रो रोकर मेरा बुरा हाल है ….मैं कष्ट में पड़ा हूँ …मेरे कष्ट को दूर करो ….आओ ! बिल्वमंगल बिलख रहे हैं और दयनीय होकर पुकार रहे हैं । मेरा अंग अंग जल रहा है , पर तुम्हारे दर्शन नही हो रहे ।कब ? कब अपने करुणापूरित नयनों से मुझे देख मेरे विरह को शान्त करोगे ? हे नाथ ! आख़िर आप चाहते क्या हो ? बिल्वमंगल पूछते हैं – और विपद देना चाहते हो ? किन्तु इससे अधिक विपद ? फिर तो मार ही दो । बिल्वमंगल मौन हो जाते हैं और फिर अश्रु बहाने लगते हैं ।

उफ़ ! तुम समझते क्यों नहीं । बिल्वमंगल फिर जल्पना करना आरम्भ करते हैं ।

तुम्हारे विरह से मेरे अंग प्रत्यंग में आग लग रही है,कोई पल ऐसा नही है जो मुझे ताप न दे रहा हो ।
इससे बढ़िया ये होगा कि – तुम मुझे मार दो न । हे किशोर ! चिता की आग तो शीतल है …किन्तु ये विरह की आग ! ये तो ऐसी जलाती है कि न पूरा जल पा रहा हूँ …न जी पा रहा हूँ ।

बिल्वमंगल फिर बिलखते हैं – वो मेरे नव किशोर का सौन्दर्य ! वो मधुरपना , वो अद्भुत लावण्य , और उस पर चापल्य …वो रूप सुधा का पान कब कराओगे ? उस रूप का दर्शन कराकर मुझे सनाथ कब करोगे ! तुम्हारे बिना मैं अनाथ हूँ । अब बताओ …आँसुओं को पोंछकर बिल्वमंगल गम्भीरता से पूछते हैं । बताओ ? क्या चाहते हो तुम ? मुझे दुःख में देखकर तुम्हें अच्छा लगता है ? तो देखो मुझे …अब तो प्रसन्न हो ना ? या इससे अधिक दुःखी होऊँ तब तुम मेरे पास आओगे ? तो हे किशोर ! मेरी बात भी सुन लो ….इससे अधिक दुःख-कष्ट ये देह सह नही सकता ….अब तो मरना ही शेष है ….कहो तो मर जाऊँ ? नही तो बताओ ….कब अपने नयनों से मुझे निहारोगे ? “अब तुम देखो मुझे” मुझ में अब हिम्मत नही है । इतना कहकर बिल्वमंगल फिर हिलकियों से रोना शुरू कर देते हैं ।

क्रमशः…..
Hari sharan

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