श्रीकृष्णकर्णामृत – 66` : Niru Ashra

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*“माधुर्योपासना”

`श्रीकृष्णकर्णामृत – 66`

*“माधुर्योपासना”


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मधुरमधुर-विम्बे मञ्जु मन्द-हासे,
शिशिरममृत-नादे शीतलं दृष्टि-पाते ।
विपुलमरुण-नेत्रे विश्रुतं वेणु-वादे,
मरकत-मणि-नीलं बालमालोकये नु ॥६४ !

हे साधकों ! बिल्वमंगल का मधुर भाव है …यानि इनकी मधुर उपासना है । मधुर भाव यानि सर्वोच्च भाव । मधुर भाव यानि जब हमें प्रिय प्राणों से प्यारा लगने लगे वो मधुर भाव है । मधुर भाव यानि जब प्रेमी को लगे कि प्रियतम के बाहु विशाल हैं और स्वयं को उनमें आबद्ध होने की सोचे उसे कहते हैं …मधुर भाव । मधुर भाव उसे कहते हैं जब स्वयं को प्रेमी भोग्य बना ले और प्रियतम को भोक्ता बनाकर उन्हीं में लीन हो जाए उसे कहते हैं – मधुर भाव । इसी भाव के उपासक हैं हमारे बिल्वमंगल ।

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आज बिल्वमंगल कुछ अधिक ही दैन्य हैं …इनमें दैन्यता का संचार कुछ अधिक ही हो गया है ।

इसलिए आज बिल्वमंगल कहते हैं …..अब कब मैं देख पाऊँगा ? साधकों ! कल के श्लोक की व्याख्या अगर आपने पढ़ी हो तो उसमें बिल्वमंगल कह रहे थे ….तुम मुझे कब देखोगे ? कल थोड़ी ठसक सी थी लेकिन आज नही है ….कहाँ से हो प्रियतम ही जब नही आरहा तब कितनी ठसक रख सकेगा बेचारा प्रेमी । बिल्वमंगल कहते हैं ….तुम्हारे वे अधर ! अरुण अधर …बड़े मधुर हैं ….उसमें भी मुसकान ! और मधुर हो गया है । प्यारे ! तुम्हारा यों हंस हंस कर बतियाना ….मुझे भीतर तक घायल कर जाता है ….क्या मुस्कान है तुम्हारी । और तुम्हारे नयन ! विशाल नयन ! जिनमें करुणा भरी है । और करुणा ही नही …कुछ चपलता भी है । इसके कारण नेत्र भी तुम्हारे मधुर लगते हैं । ओह ! क्या कहूँ और ! बालक हो ….आह भरता हूँ लेकिन मेरी आह में भी तुम वाह वाह करते हो । हे प्यारे ! सच कहा है किसी ने …राजा और बालक ये किसी की व्यथा को नही समझते ….वो अपनी ही सोच में मग्न रहते हैं …बिल्वमंगल हंसते हैं और कहते हैं …तुम दोनों ही हो …बालक भी हो और राजा भी हो …इसलिए मेरे दर्द को तुम नही समझ पाते ….तुम नही सोच पाते । हे मेरे नीले किशोर ! तुम कितने सुकुमार हो ….तुम्हारी सुकुमारता पर सब रीझ जाते हैं ….तुम कोई आभूषण नही लगाते …अरे ! अपनी शोभा का भार ही तुमसे वहन नही होता …तुम आभूषण क्या पहनोगे ? बिल्वमंगल कहते हैं ..अपने सौन्दर्य के भार से तुम टेढ़े मेढ़े चलते हो …मैं तो अब समझा तुम तीन जगह से टेढ़े कैसे हो गये ? इसी अपनी शोभा के भार से ….उफ़ ! इतने सुकुमार हो तुम । बाँसुरी और बजाते हो …वैसे भी अपनी शोभा से सबको पागल बना रखा है तुमने ऊपर से बाँसुरी और बजाओ …..लम्बी साँस लेते हैं बिल्वमंगल …फिर कहते हैं ….हे नील किशोर ! बताओ ना , कब मैं तुम्हें देखूँगा ! बताओ ना ! मेरे नयनों के विषय तुम कब बनोगे ? वो मधुर सौन्दर्य कब मैं निहारूँगा ! बोलो ना ! बिल्वमंगल मधुर भाव में खो जाते हैं ये सब कहते हुये ।

*क्रमशः….*
Hari sharan

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