श्रीकृष्णकर्णामृत – 67 : Niru Ashra

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श्रीकृष्णकर्णामृत - 67

“अनिर्वचनीय नव किशोर”


माधुर्यादपि मधुरं मन्मथतातस्य किमपि कैशोरम् ।
चापल्यादपि चपलं चेतो बत हरति हन्त कि कुर्मः ।॥६५॥

हे साधकों ! उस रस राज्य में विचित्र प्रेम-उन्माद के कारण बिल्वमंगल चारों ओर पुकार मचा देते हैं । हा कृष्ण ! हा नव किशोर ! आदि आदि सम्बोधन से वो पुकार रहे हैं । उनकी पुकार किसी पथिक ने सुन ली तो वो बिल्वमंगल के पास आया और बोला – क्या बात है ? तुम क्यों इतने उन्मादी बन गए हो ? धैर्य रखो ! क्या तुम्हारे इस प्रकार पुकारने से , चिल्लाने से वो तुम्हें मिल जायेंगे ? ये सुनकर बिल्वमंगल कुछ शान्त से हो जाते हैं ….अवनी में देखने लगते हैं ….फिर एकाएक दहाड़ मारकर रोना आरम्भ कर देते हैं । उस पथिक को देखकर कहते हैं -भैया ! मैं क्या करूँ , बोलो ? वह मदन ( कामदेव ) का पिता है ..माधुर्य से भी मधुर और चापल्य से भी चपल है । कामदेव का जो पिता है वह कितना सौन्दर्य निधि होगा विचार करो ।

वह किशोर है …नव किशोर …किशोर वय में अभी अभी मानों इसने प्रवेश ही किया हो …अब बताओ – “हंत किं कुर्म: ….हाय ! अब मैं क्या करूँ ?

क्यों हुआ क्या है ? वह किशोर है तो है …लेकिन तुम इतने व्यथित क्यों हो रहे हो ? उस पथिक ने फिर पूछा ….तो बिल्वमंगल उत्तर देते हैं ….उस नव किशोर ने मेरे चित्त को चुरा लिया है …”चेतो बत हरति” .। ऐसे कैसे चुरा लिया , अपना चित्त तुम्हीं ने लगाया होगा उस में ? बिल्वमंगल उत्तर देते हैं …..ना जी ! मैं तो प्रेम से बचने लगा था ….हाँ , चिंतामणि से प्रेम किया था मैंने …उसे अपना चित्त दिया था ….लेकिन ये किशोर तो विचित्र है …..इसे देने की जरुरत ही नही पड़ी, इसने तो स्वयं ही छीन लिया । मैंने अपना चित्त इसे दिया नही है ..इसने ले लिया है …बल पूर्वक लिया है …अब बताओ मैं क्या करूँ ? पथिक ने फिर पूछा …ऐसे कैसे ले लिया ? चित्त का हरण कोई सामान्य बात तो है नही । बिल्वमंगल कहते हैं ….इसके लिए सामान्य बात है …इसे कुछ करना थोड़े ही है …बस अपना सौन्दर्य दिखाया और सामने वाले का चित्त चुरा लिया । पथिक हंसा …तो बिल्वमंगल बोले ….हंसने की बात नही है …कामदेव जो सबको मोहता है ….उस कामदेव को भी मोहने वाला ये किशोर है ….अरे ! इस किशोर का सौन्दर्य देखकर तो ….बिल्वमंगल रुक जाते हैं …फिर कहते हैं ….इस किशोर को देखकर मदन मोहित नही होता …अपितु इस किशोर की परछाँयी देखकर ही कामदेव मोह में पड़ जाता है …..”देखत ही तिनकी परछाहीं , मदन कोटि व्याकुल है जाईं”

हे मेरे हित चिन्तक !
उस सौन्दर्य और माधुर्य के सिंधु ने मेरा चित्त चुरा लिया है , अब बताओ मैं क्या करूँ ? जब मेरा चित्त ही मेरे पास नही है …तो मेरी उन्मादी दशा होगी ही ना ?

आज बिल्वमंगल इतना ही बोलते हैं ।

“यह मम चित्त चुराये जात ।
वयस किशोर अनूपम माधुरी , कही कौन पे जात” ।।

क्रमशः….
Hari sharan

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