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July 20, 2025 8:16 am

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श्री सीताराम शरणम् मम 125* (3), “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा – 68”,तथा श्री भक्तमाल (169) : नीरु आशरा

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>1️⃣2️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

प्रथमो अनन्तरूपश्च द्वितीयो लक्ष्मणस्तथा ।
तृतीयो बलरामश्च कलौ रामानुजो मुनिः ॥

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

चारों और रक्त से लथपथ भूमि हो गयी है ।

नल नील ये भी ……………त्रिजटा बताते बताते दुःखी हो गयी ।

चारों और हाहाकार मचा दिया इस मेघनाद नें …………..

सबको मूर्छित कर दिया …………पर मेरे पिता विभीषण सामनें आये हैं ……तब वो हँस रहा है …….चाचा ! मैं नही मारूँगा तुम्हे ।

नही नही …….ये मत सोचना कि आप मेरे चाचा हो इसलिये मैं आपको छोड़ रहा हूँ ………चाचा ! मैं आपको इसलिये छोड़ रहा हूँ …..ताकि ये सब आपके लोग मर जाएँ ……..और आप अकेले विश्व् में घूमते रहो …और आपको कोई सहारा न मिले ……..तब पता चलेगा कि अपनें भाई और परिवार को छोड़नें का फल क्या होता है !
रामप्रिया ! इतना कहकर उसनें मेरे पिता जी को छोड़ दिया ……बाण भी नही चलाया ।

विभीषण ! सुनो ! कराहते हुए जामवन्त उठे ……….पर फिर गिर गए ………..मेरे पिता विभीषण उनके पास में गए हैं ।

हनुमान कहाँ हैं ? विभीषण ! बताओ हनुमान कहाँ हैं ?

क्या उसे भी मार दिया मेघनाद नें …….या उसे भी हमारी तरह मूर्छित कर दिया ……..?

“हनुमान स्वस्थ हैं”………….मेरे पिता नें ही कहा ……….

पर मेरे पिता विभीषण नें ये पूछा ……..जामवन्त ! आपनें हनुमान के बारे में ही क्यों पूछा है ……….आपको तो सेनापति सुग्रीव के बारे में पूछना चाहिये था ……….

नही विभीषण ! सुग्रीव कुछ नही हैं….अन्य भी कुछ नही हैं ….कराहते हुए बोल रहे थे जामबंत …….अगर हनुमान स्वस्थ हैं …….तो ये युद्ध हम जीत ले जायेगें……..किन्तु हनुमान अगर नही रहे ….तो इस युद्ध को हम हार चुके हैं ……जामवन्त नें इतना ही कहा ……और चारों ओर दृष्टि घुमाई…….हाहाकार मचा दिया है मेघनाद नें………ओह !

त्रिजटा मुझे बता रही थी ।

शेष चरित्र कल ………………!!!!!!

🌹🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-68”

( नन्दगाँव कौ निर्माण )


कल से आगे का प्रसंग –

मैं मधुमंगल …….

आहा ! श्रीवृन्दावन की बात ही अलग है ….यहाँ प्रेम की सुवास है …..यहाँ के कण कण में प्रेम कौ ही विस्तार है । यहाँ की अवनी हूँ कितनी मृदु है ….यहाँ के पक्षी हूँ कितने प्रेमी हैं ….अरे ! यहाँ की वृक्ष-लताएँ नीचे की ओर झुकी भई हैं । चौं ? मेरे मन में प्रश्न उठे तौ समाधान हूँ तुरन्त है जावै ……कि प्रेम में व्यक्ति झुके है ….प्रियवर के आगे व्यक्ति झुकौ रहे है । फिर श्रीवृन्दावन तौ नित्य “प्रियवर” की विहार स्थली है …या लिए यहाँ के वृक्ष-लताऐं झुकी रहें हैं ।

वैसे …जहां प्रेम होवै है …वहाँ नम्रता आय ही जावै । जहाँ प्रेम होवे वहाँ अहंकार भाग ही जावै …श्रीवृन्दावन प्रेम की भूमि है या लिए यहाँ सब प्रेमी हैं ……मोकूँ अनुभव भयौ कि श्रीवृन्दावन जड़ नही हैं ….जे तौ पूर्ण चैतन्य है । प्रेम की नदी यहाँ निरंतर बहती रहे है । चारों ओर प्रेम ही प्रेम बरस रह्यो है या श्रीवृन्दावन में ।

रात्रि में …..श्रीवृन्दावन में आय के सब गहरी नींद में सो गए हैं …..बृजराज बाबा , बड़े बाबा , हमारी बृजरानी मैया उनके पास में उनकौ लाड़लौ कन्हैया सोय रह्यो है …..मैया हूँ सोय गयी हैं ……बलराम भैया हूँ सो गए हैं । मेरी इच्छा भई कि या श्रीवृन्दावन की शोभा कौ दर्शन…. मैं बाहर जायके करूँ । ऐसौ विचार करके मैं जैसे ही बाहर आयौ ……आहा ! चन्दा की चाँदनी में पूरौ वनप्रदेश नहाय रह्यो हो । मेरी दृष्टि गयी सामने के पर्वत माहूँ …..तौ वो पर्वत देखवे में ऐसौ लग रह्यो जैसे भगवान विश्वनाथ ध्यानस्थ विराजे हैं । मैंने प्रणाम कियौ ।

तभी मैंने सामने देख्यो ….मेरी माता पौर्णमासी । वो पर्वत की ओर ही मुख करके ध्यान में बैठी हीं …..मैं उनके पास में गयौ …….कछु देर ऐसे ही बैठ्यो रह्यो ……मेरी माता जी अंतर्यामी हैं …..उनकूँ पतौ चल जावै ।

मेरी माता ने अपने नेत्र खोले ……और मुस्कुराते भए बोलीं ….वत्स मधुमंगल ! देखौ , भगवान विश्वनाथ शंकर । मैंने हाथ जोड़के प्रणाम कियौ तौ पर्वत ने ही आशीष दे दियौ हो ।

पर्वत के रूप में यहाँ भगवान शंकर विराजमान हैं …….मेरी माता बोलीं …वत्स ! श्रीकृष्ण लीला दर्शन के लोभ ते भोलेबाबा यहाँ पर्वत बनके बैठे हैं …….पतौ है मधुमंगल ! या पर्वत कौ नाम है नंदीश्वर पर्वत । माता के कहवे ते मैंने फिर प्रणाम कियौ हो ।

आकाश में तभी हलचल भयौ …..और देखते ही देखते एक साथ कई तेज राशि श्रीवृन्दावन में उतरवे लगीं । माता जी तौ शान्त भाव ते देखती रहीं …लेकिन कौतूहल ते मेरौ मन भर गयौ हो ….कि जे नभ ते उतर रहे …कौन हैं ? वैसे मैंने देख्यो …..एक तेज पुंज …..जब नीचे आयौ तौ बाकौ आकार बन गयौ हो ….वैसे ही सबके सब हे ।

हे भगवती ! मैं अमर शिल्पी विश्वकर्मा आपकूँ प्रणाम करूँ ।

ओह ! अब मैं समझ्यो ….जे देवगण के शिल्पी विश्वकर्मा हैं । और जे अकेले नही हे …इनके साथ कई यक्ष है ……सब शिल्प विशेषज्ञ हैं । और जितने शिल्पकार यक्ष है …..सबके हाथन में – पद्मराग मणि , इन्द्रनील मणि , चन्द्रकान्त मणि , सूर्यप्रभा मणि …..का बताऊँ ! सबके हाथन में मणियन के ढेर हे ।

मेरी माता जी ने पूछी …..हे विश्वकर्मा ! कैसे आए हो ?

हे भगवती पौर्णमासी ! हमें आप आशीर्वाद दें …कि हम श्रीनन्दनन्दन की सेवा में एक दिव्य नन्दगाँव का निर्माण करना चाहते हैं ।

मेरी माता जी बोलीं ……नंदीपर्वत में निर्माण की आज्ञा तौ नन्दीश्वर ही दे सकै हैं ।

तब अत्यन्त विनम्रतापूर्वक विश्वकर्मा बोले ……भगवान शंकर की आज्ञा ते ही मैं यहाँ आयौ हूँ …..

तौ फिर काम शुरू करौ । बीच में ही मैं बोल दियौ ….विश्वकर्मा मेरी ओर देखके मुस्कुराए और मोकूँ प्रणाम करके , माता जी कूँ प्रणाम करके …अपनौं कार्य आरम्भ कियौ ।

अरे ! मात्र चार घड़ी में ……दिव्य अद्भुत नन्दगाँव कौ निर्माण कर दियौ । मैं चकित है गयौ हो ।

और कितनौं सुन्दर …….विश्वकर्मा ने मणि माणिक्य कौ खूब प्रयोग कियौ हो ।

अब रात्रि बीत गयी …….अब भोर है वै वारौ है ……..जैसे ही थोड़े थोड़े लोग अपने वस्त्रन के घर ते बाहर आयवे लगे ….उनकूँ दिखाई दियौ …..दिव्य चमकतौ भयौ …नन्दगाँव ।

क्रमशः….
Hari sharan
[] Niru Ashra: श्री भक्तमाल (169)


श्रीमद्भागवत् महापुराण में वर्णित स्यमंतक मणि की कथा इस प्रकार है : (भाग-03)

श्री शुकदेव जी कहते है – परीक्षित ! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका न हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल परम्परोचित व्यवहार करने के लिए वे बलराम जी के साथ हस्तिनापुर गये। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समवेदना-सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे- हाय-हाय ! यह तो बड़े दुःख की बात हुई।

भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा – तुम सत्राजित से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? सत्राजित ने अपनी श्रेष्ठ कन्या का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजित भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय? शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित को मार डाला। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने चिल्लाने लगीं, परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया, जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया।

सत्यभामा जी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे हाय पिता जी ! हाय पिता जी ! मैं मारी गयी – इस प्रकार पुकार पुकार कर विलाप करने लगीं। बीच बीच में बेहोश हो जातीं और होश में आने पर फिर विलाप करने लगतीं। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर गयीं। उन्होंने बड़े दुःख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तान्त सुनाया – यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे।

परीक्षित ! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने सब सुनकर मनुष्यों की सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि – अहो ! हम लोगों पर तो बहुत बड़ी विपत्ती आ पड़ी ! इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा जी और बलराम जी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे।

जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने के लिए उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्मा ने कहा – भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी लौट जाना पड़ा था।

जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूर जी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा – भाई ! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान भगवान का बल पौरूष जानकर भी उनसे वैर विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते है – इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्व विधाता भी नहीं समझ पाते, जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में – जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हें-नन्हें बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़ हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाय रखा, मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अदभुत हैं। वे अनन्त अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।

जब इस प्रकार अक्रूर जी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा।

परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरूड़चिन्ह से चिन्हित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिए भगवान ने पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमंतक मणि को ढूँढा।

परन्तु जब मणि नहीं मिली तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम जी के पास आकर कहा – हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमंतक मणि तो है ही नहीं। बलराम जी ने कहा – इसमे सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमंतक मणि को किसी न किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ, क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।

परीक्षित ! यह कहकर यदुवंश शिरोमणि बलराम जी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिला नरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलराम जी कई वर्षों तक मिथिला पुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट के पुत्र दुर्योधन ने बलराम जी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिय सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवानश्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमंतकमणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई बन्धुओं के साथ अपने श्वसुर सत्राजित की वे सब और्ध्वदेहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है।

अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित के वध के लिए उत्तेजित किया था। इसलिए जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यंत भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए। परिक्षित ! कुछ लोग ऐसा मानते है कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय।

उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा – एक बार काशी नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिए जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।

परीक्षित ! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि इस उपद्रव का यही कारण नहीं है यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूर को ढुँढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित ! भगवान सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिए उन्होंने मुस्कराते हुए अक्रूर से कहा – चाचा जी ! आप दान धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है। आप जानते ही हैं कि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है।

इसलिए उनकी लड़की के लड़के – उनके नाती ही उन्हें तिलाँजली और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलराम जी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते।

इसलिए महाभाग्यवान अक्रूर जी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र – बलराम जी, सत्यभामा और जाम्बती का सन्देह दूर कर दीजिए और उनके हृदय में शान्ति का संचार कीजिए। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिसमें सोने की वेदियाँ बनती हैं।

परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्तवना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूर जी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी। भगवान श्री कृष्ण ने वह स्यमंतक मणि अपने जाति-भाईयों को दिखाकर अपना कलंक दूर कर दिया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूर जी को लौटा दिया।

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रम से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह हर प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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