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June 24, 2025 2:37 am

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श्री सीताराम शरणम् ममभाग 135/भाग 1, ” श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ कीआत्मकथा-83″ तथा श्रीभगवन्नाम – स्मरण ( पोस्ट 3) : निरू आशरा

[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>>1️⃣3️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,
भाग 1

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

त्रिजटा चल ! त्रिजटा की माँ “सरमा”दौड़ी दौड़ी आयी ।

क्या हुआ माँ ! इतनी घबड़ाई हुयी क्यों हो ?

त्रिजटा नें पूछा । ……मैं भी घबडा गयी थी ……..।

रावण यज्ञ कर रहा है ……..और उसका यज्ञ अगर सफल हो गया तो वो एक कल्प के लिये अजेय हो जाएगा ……..फिर उसे कोई नही मार सकता ………….सरमा नें कहा ।

ओह ! त्रिजटा घबड़ाई …….मैं भी घबडा रही थी …………।

चल ……चल त्रिजटा !

 मेरी एक सेविका नें मुझे ये गुप्त सूचना दी है कि    रावण का यज्ञ भंग करनें के लिये.......कुछ विशेष वानर  अंगदादि  चल पड़े हैं .......पर त्रिजटा !   उनके साथ  तुम्हारे पिता जी नही है .......रावण का गुप्त पूजागृह  किसी को नही पता .........मुझे कहा है ......कि मैं  उन वानरादिओं  का मार्गदर्शन करूँ......पर मुझ अकेली से कैसे होगा .......तू भी चल ।

त्रिजटा मेरी ओर मुड़ी ………रामप्रिया ! तुम सावधान रहना बस मैं जाकर आती हूँ …………..मैने त्रिजटा को गले से लगाया ……..मैं ठीक हूँ …….तुम जाओ !

वो दोनों भागे……क्यों की अंगदादि निकल चुके थे रावण का यज्ञ भंग करनें के लिए …….पर उन सबको वो गुप्त स्थान पता नही था ।


त्रिजटा नें आकर मुझे जो बताया –

रामप्रिया ! मन्दोदरी को पता नही चलना चाहिए था ………कि हम लोग श्रीराम की सहायता कर रहे हैं ……………..।

वानर प्रवेश कर चुके थे ……………..

मैने धीरे से “जय श्रीराम” की आवाज लगाई ……………अंगद नें हमें देख लिया …………….तो हमारी ओर ही बढ़ें वो लोग ।

मन्दोदरी नें मेरी माँ की ओर देखा था ……..मेरी माँ नें हँसते हुये कहा …….उधर की सेना यही नारे लगाती है ना। !

बड़े ध्यान से हमें देख रही थीं मन्दोदरी ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …….!!!!!!

🌹 जय श्री राम 🌹

Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-83”

( वन-भोजन की झाँकी )


कल ते आगे कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल ………..

जे कन्हैया है ना ! याके चरण रज की आस बड़े बड़े ज्ञानी योगीजन हूँ करे हैं ।

जिननें यम-नियम आदि सतत साधना करके अपने चित्त कूँ एकाग्र कर लियौ है …जो निर्विकल्प समाधि में स्थित है चुके हैं ….वो योगी हूँ ….या रसरूप कन्हैया के चरण रज कणिका कौ स्पर्श हूँ नाँय कर पामें हैं । और बा कन्हैया कूँ जे बृजवासी नचाय रहे हैं ! और कन्हैया नाच रह्यो है ।

जाने ब्रह्मा कूँ नचायौ ….शिव कूँ नचायवे वारौ ……आज अपने बृजवासी सखान के साथ खेल रह्यो है …..खेल में पिट रह्यो है ……फिर रोयवे लग जावै …..जब सखा मनावे आमें तौ पीटतौ भयौ भाज रह्यो है ……दूर जायके एक मोरन कौ वन है ….बा वन में मोर ही मोर हैं …..बा मोर वन में कन्हैया चले गये । अब सब मोर कन्हैया कूँ घेर के खड़े है गये हैं ।

आहा ! कन्हैया प्रसन्नता में चारों ओर देख रह्यो है ……कन्हैया कूँ इतनौं आनन्द आयौ कि कन्हैया ने नाचनौं शुरू कर दियौ …….कन्हैया कूँ नाचते भए देखके मोर हूँ नाचवे लग गये ……क्या झाँकी बनी है ! मोरन के साथ कन्हैया कौ नृत्य कौशल । लेकिन तभी दुष्ट बन्दर आय गये ……पहले तौ वृक्ष के ऊपर डाल पे आए ….फिर नीचे की डाल में ……फिर तौ चारन ओर ते घेर लियौ कन्हैया कूँ ……अब मोर डर गये ……मोरन ने अपने पंख समेट लिए …..लेकिन कन्हैया कूँ खबर नही …..कन्हैया तौ स्वयं में ही मग्न है …..ठुमक ठुमक के बस नाच रह्यो है ।

मोर चले गए हैं बन्दरन के डर ते । तभी ग्वाल बाल क्रोधित है गए बन्दरन के ऊपर ….और सब भागे बन्दरन कूँ पीटवे ……बन्दर हूँ भाग के चढ़ गए वृक्षन में ……अब तौ कोई सखा बन्दर के पूँछ पकड़ रह्यो है तौ कोई बन्दर ते लड़ रह्यो है ……..कन्हैया ने अपनौं नृत्य रोक दियौ है और वो जोर जोर ते हँस रहे हैं ।

या झाँकी कौ दर्शन करके देवता लोग , इन प्रेमी बृजवासिन के भागन कूँ सराह रहे हैं ।


अब दोपहर है गयी……कन्हैया ते हँसतौ भयौ तोक सखा बोलो ……कन्हैया ! तू सबरे राक्षसन कूँ मारे , आज हमारे एक राक्षस कूँ मार दे ….तेरौ उपकार कबहूँ नाँय भूलेंगे । कन्हैया ने हंसते भए पूछी …..तोक ! तोकुँ कौन सौ राक्षस परेशान करे है ? तोक ने मुँह बनाते भए कही …..जे ‘क्षुधा’ नामक राक्षस । अरे कन्हैया ! भूख सबते बड़ौ राक्षस है , याकूँ पहले मार ।

तोक सखा की बात कूँ सुनके सब हँसवे लगे ……फिर कन्हैया ने चारों ओर देखी ….फिर बोले …चलो यमुना के बा पुलिन में ……..सब सखान ने देख्यो ….सच में पुलिन बहुत ही सुन्दर हो ….सब गए बा पुलिन में ……मध्य में कन्हैया बैठ्यो …..फिर चारों ओर हम सब सखा बैठ गये …….मध्य में कन्हैया ……आहा ! पिताम्बर बाकी चमक रही ही ….बाके घुंघराले केश …..मुखमण्डल खिलौ भयौ हो ….बाके बोलते भए अरुण अधर ….दंतपंक्ति ….कन्हैया सबकूँ दिखाई दे रह्यो है….कन्हैया सबके निकट है…..

“अब सब भोजन लाओ”……कन्हैया ने ही कही ।

आज सब सखा अपने अपने घरन ते सुन्दर सुन्दर भोजन बनाय के लाए हैं ।

सबने आगे लाय के रख दियौ है भोजन सामग्री ।

खायेंगे काय में ?

तभी श्रीदामा भग्यौ ……और बड़े बड़े पत्ता तोड़ लायौ । यमुना जल में पत्ता धोए हैं और वही पत्ता सबके आगे बिछाय दिए । अब सामग्री आय रही हैं ……परोस रह्यो है श्रीदामा । भात , दही , माखन, मलाई , साक , नमकीन मठरी ।

जे मेरी ओर ते ……कन्हैया ! जे मेरे घर ते …..लाला ! जे मेरी मैया ने बनाई है ……लै खा …..बिना सोचे बिचारे कन्हैया के मुख में दै रहे हैं सब ग्वाल सखा ।

कन्हैया ने हूँ खाय लियौ …..जे मेरी मैया ने खीर बनाई है …..जे कहते भये कन्हैया के मुख में खीर डाल दई एक ग्वाल सखा ने । कन्हैया खीर खाय रहे हैं …..मेरौ हलुआ ……एक सखा अपने घर ते हलुआ लायौ है …बाने हलुआ खिलाय दियौ ….कन्हैया हलुआ खाय रहे हैं ……हँस रहे हैं ….और हँसाय रहे हैं ।

मेरी रबड़ी तौ खा …….एक सखा रोतौ भयौ कह रह्यो है ।

कन्हैया ने सब कछु छोड़के बाकी रबड़ी खाई । तब जाय के वो सखा प्रसन्न भयौ ।

मैंने तौ ऊपर नभ माहूँ देख्यो ……तौ अब देवता स्तब्ध है कै कन्हैया की जे वन-भोजन लीला कौ दर्शन कर रहे …..कोई कोई तौ ‘जय जय हो’ हूँ कर रहे । मैं पीछे हूँ …..मैं आज कन्हैया के सामने नही गयौ ……क्यों कि मैं घर ते कछू नही लायौ …..का लातौ …मेरी माता जी तौ साधना में ही रहे है ……और मेरौ घर तौ कन्हैया कौ घर ही है ।

तभी कन्हैया ने मेरी ओर देख्यो –

क्रमशः…..

Hari sharan


[] Niru Ashra: || श्री हरि: ||
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श्रीभगवन्नाम – स्मरण
( पोस्ट 3 )
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गत पोस्ट से आगे …….
अपने प्रियतम भगवान् के नाम-कीर्तन में प्रेमावेश के कारण इस प्रकार निर्लज्ज होकर नाच उठना चाहिये, परन्तु उसमे कहीं भी दिखावट या विषयासक्ति नहीं होनी चाहिये | भगवान् का नाम हमें आनन्द नहीं देता, इसका कारण यही है कि वह हमें प्रिय नहीं है और नाम प्रिय इसलिये नहीं है कि हमारा भगवान् में प्रेम नहीं है | भगवान् में प्रेम होता तो नाम-जप प्यारा लगता | प्यारे के प्रत्येक चीज प्यारी होती है | कहीं-कहीं तो उससे बढ़कर प्यारी होती है | लौकिक सम्बन्ध में भी हम देखते हैं कि जब कीन्ही लड़के-लड़की का सम्बन्ध हो जाता है, तब घर में किसी से एक-दूसरे का नाम सुनकर या उनके विषय में कोई बात सुनकर वे अपने ह्रदय में एक प्रकार की गुदगुदी-सी अनुभव करने लगते हैं | प्यारे का वस्त्र, प्यारे का भोजन यहाँ तक कि प्यारे की फटी जूती भी प्यारी लगती है | जब लौकिक प्रेम की ऐसी बात है, तब भगवत्प्रेम के विषय में तो कहना ही क्या है | शृंगवेरपुर में भरत जी भगवान् के शयन के स्थान में उनके अंग से स्पर्शित ‘कुशसाथरी’ को देखकर प्रेमानन्द में मग्न हो गये थे | अक्रूरजी भगवान् के चरणचिन्हों को देखकर तन-मन की सुधि भूल गये थे | आज भी जब हम व्रजभूमि को देखते हैं, तब स्वत: ही हमें भगवान् श्रीकृष्ण की स्मृति हो आती है और उसमे एक अनोखा आनन्द मिलता है |
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शेष आगामी पोस्ट में ……


Niru Ashra: ( साधकों के लिए)
भाग-4

प्रिय ! मोह सकल व्याधिन कर मूला…
(गो. श्री तुलसी दास जी)

मित्रों ! एक युवक है…जो पूर्व में ओशो
से अत्यंत प्रभावित था… उसने ओशो की ध्यान
पद्धति को पूर्ण स्वीकार किया भी था… पर
उसको एक युवती से प्रेम हो गया… 4 वर्ष तक
उन दोनों का प्रेम प्रसङ्ग चला… पर एक दिन
उस युवती ने इस युवक को छोड़ दिया… । उस समय कुछ काम नही आया… न ओशो की साधना पद्धति न ओशो का विचार… कुछ नही । मानसिक रूप से वह युवक विक्षिप्त सा हो गया… मेरा परिचित था… उसे कुछ महीनों पहले मैंने जब
रास्ते में देखा तो फटेहाल… चेहरा उतरा हुआ
…मैंने पूछा था क्या हुआ ?… ऐसी हालत
क्यों ?…तब उसने उस युवती के प्रेम
प्रसङ्ग से लेकर उसकी बेबफाई तक की सारी बातें
रोकर सुनाईं… मैंने कहा… तुम तो ओशो के
अनुयायी थे… फिर क्या हुआ ?… मेडिटेशन से
मन को सम्भाल लेते… उसने कहा… क्या
सम्भालता ?… कुछ नही रह गया अब मेरे जीवन
में… मैं बर्बाद हो गया… मैं टूट गया हूँ ।
मैंने हँसते हुये कहा… ये क्या
नाटक है… उसने कहा… मैं सच कह रहा हूँ
…और आप हँस रहे हैं… मैं मर जाऊँ… ऐसा
कभी कभी लगता है… । मैंने उसे गाड़ी में
बैठाया और पागलबाबा के पास ले आया… वो
अत्यंत दुःखी और विक्षिप्त हो गया था ।
बाबा ने कहा क्या हुआ ?… मैंने कहा… ये
दुःखी है… बाबा ने उस युवक के लिए कहा
…हर व्यक्ति में अपनी एक आध्यात्मिक ऊर्जा
होती है… पर तुम्हारे अंदर की ऊर्जा
समाप्त है…वो चैतन्य ऊर्जा… क्या हुआ ?
…उस युवक ने रोते हुये अपनी सारी कहानी
सुनाई… बाबा उसकी व्यथा सुनकर शान्त हो
गये… थोड़ी देर में बोले… अब मेरी बात
शांति से सुनो… देखो ! भोग भोगने से इतना
फ़र्क नही पड़ता जितना हमारे चित्त में वो जो
भोग वासना छप जाती है उससे फ़र्क पड़ता है
…उस चित्त में छपे हुये भोग की वृति के
कारण ही हम दुःख और तनाव से भरे रहते हैं… बाबा बोले… तुम उस युवती के साथ
घूमें होंगे…उसके साथ काम- विलास में
प्रवृत हुये होंगे…वह सब तुम्हारे चित्त में
छप गया है… अब जब तक वो छपे हुये भोग
विलास, उस युवती की आसक्ति… तुम्हारे
चित्त से डिलीट नही होगी तब तक तुम परेशान ही
रहोगे । बाबा बोले… सुनो ! मन होता है
…फिर उसके आगे बुद्धि होती है… फिर उसके
बाद चित्त होता है… बाबा बोले ..ये
चित्त ही ऐसी मशीन है , जिसमें हम जो करते हैं
…वो छप जाता है… अब जो उस युवती के
साथ किये हुये क्रिया कलाप चित्त में बसे हैं
…उस को हटाना आवश्यक है… और जब तक
वो इंफेक्शन जो चित्त में फैल चुका है
…उसे नही हटाओगे… तो रह रहकर तुम्हें
दुःख मिलता रहेगा… और उस दुःख की अवस्था में
तुम से कुछ न होगा… तुम बस ऐसे ही
बर्बाद होते हुये अपने जीवन को देखते रहोगे ।
उस युवक ने हाथ जोड़कर कहा
…मैं नही भूल पा रहा हूँ उस युवती को… मैं क्या
करूँ ?…बाबा ने कहा…तुम ऐसे भूल पाओगे ही
नही…अच्छा एक बात बताओ… वो युवती
क्या तुम्हारे बिना खुश है ?… हाँ बाबा
खुश है… बाबा बोले… फिर भी तुम उसके
पीछे पड़े हो… उस युवक ने फिर
कहा…मैं भुला नही पा रहा… । बाबा ने
मेरी ओर देखकर कहा… देखो ! ये काम वासना
जब चित्त में चली जाती है… तो या तो
उस को चित्त से निकालो या तैयार रहो
…मानसिक रोगी बनने के लिए । उस युवक ने
कहा…आप अन्य बाबा जी जैसे नही लग रहे
…कृपया मुझे बतायें मैं क्या करूँ ?
…बाबा कुछ सोच कर बोले… तुम्हारे
चित्त को साफ करना होगा… उस चित्त में से
वासना के कीटाणु निकालने होंगे… तब
तुम्हें शान्ति मिलेगी । क्या करना होगा मुझे ?
…बाबा बोले नित्य आना होगा
…प्रातः 5 बजे… कब तक ?… बाबा
बोले… 1 महीना तक… और शाम को 6 बजे से
8 बजे तक… । बाबा बोले… ये
सत्संग नही है… ये तुम्हारा ईलाज
है… मैं जो कहूँगा वो तुम्हें करना होगा
…हाँ बाबा करूँगा…। बाबा ने कहा –
किताबें पढ़ते हो ?… हाँ बाबा पढ़ता हूँ
…किस तरह की किताबें ? ओशो की… बाबा
बोले… छोड़ दो… जब तक मैं न कहुँ मत
पढ़ो ओशो को… बाबा बोले… ओशो स्वयं
बुद्धिमान थे… प्रबुद्ध थे… पर सब
तो प्रबुद्ध नही है ना… ? अब तुम कुछ कह
रहे हो… कहने का उद्देश्य कौन देखता है
…आज कल तो जो तुम कह रहे हो… वही
व्यक्ति सुनता है और जीवन में उतारता
है…भोग को भोगने से कभी भी तृप्ति मिल ही
नही सकती ये तो अकाट्य सत्य है… ।
बाबा बोले – तुम मोबाइल नही चलाओगे
…मोबाइल का मतलब इंटरनेट से है
…तुम नेट यूज नही करोगे… 1 महीने
तक । और भोजन में तुम रोटी चावल मूंग
की छिलके वाली दाल… लौकी या तोरई आलू
की सब्जी… पर मिर्च और तेज़ मसाला नही
…बाबा बोले – रात्रि में 10 बजे तक
सो जाओगे… और 4 बजे सुबह उठ कर स्नान
इत्यादि से निवृत्त होकर यहाँ कुञ्ज में
आजाओगे .।…उसने हाथ जोड़कर… स्वीकृति
में अपना सिर भी हिलाया । बाबा ने…एक
झोली माला दी… और कहा – 1 लाख नाम का
नित्य जप करोगे…बाबा ने भगवन् नाम का उपदेश
भी दिया… ये मन्त्र है… जो सिद्ध है बाबा का…

“राधे कृष्ण राधे कृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे
राधे श्याम राधे श्याम श्याम श्याम राधे राधे”

  • आज प्रातः वो युवक मुझे मिला कुञ्ज में
    साधना में लगा हुआ था… उसको मैं रोज देखता
    हूँ… अब उसके चेहरे में प्रसन्नता छाई
    हुयी रहती है… क़रीब 20 दिन हो गये हैं
    …मैंने उससे कल ही पूछा था अब चित्त
    प्रसन्न रहता है कि नही ?… उसने खुश होकर कहा
    …जहाँ मैं उस युवती को 24 घण्टे याद करके
    रोता रहता था… अब नही याद आती उसकी…ये कहते हुये वो बहुत प्रसन्न था… । पर आज जब
    वो मिला तो मेरे पास में दौड़ा हुआ आया… और
    बोला… महाराज ! कल वो मिली थी… उसको
    देखा बस दिमाग खराब हो गया… पर पहले जैसी
    बात नही थी… मैंने बाबा के कहे अनुसार अपने
    मन में झांक कर देखा तो उसे देखकर पहले जैसी
    स्थिति तो नही हुयी… पर महाराज ! मैं
    डिस्टर्ब तो हो ही गया । मैंने कहा… चलो
    बाबा से ही पूछा जाए… बाबा के चरणों में
    प्रणाम करके हम बैठ गये… बाबा ने उस युवक से
    पूछा क्या स्थिति है अब मन और चित्त की ?
    …मैंने उसकी परेशानी बाबा को बताई
    …क्योंकि वो संकोच कर रहा था… बाबा
    बोले… कोई बात नही… अभी भी चित्त में
    कुछ उस युवती के प्रति किये गये वासना के
    बीज शेष बचे हुये हैं… थोड़ा इंफेक्शन
    है अभी .. ठीक हो जाएगा… । उस युवक ने पूछा
    बाबा ! जब चित्त में से ये सब्जेक्ट ही निकल
    जाए तब मेरी स्थिति क्या ऐसी होगी कि वो मेरे
    सामने से गुजरे और मुझे कुछ फ़र्क ही न पड़े
    …बाबा मैं यही चाहता हूँ… बाबा ने
    कहा… वो तुम्हारे सामने से गुजरेगी… और
    तुम्हें उसकी ओर देखने की इच्छा भी नही होगी
    …तुम्हें अपने ऊपर हँसी आएगी कि मैं इसके
    पीछे मरने की सोच रहा था… । बाबा
    बोले देखो ! सोच का ही फ़र्क है… एक
    हाड मांस के पुतले से इतनी आसक्ति ?… अरे
    अत्यंत गन्दा है ये देह क्या सुंदर है
    इसमें बताओ…? बाबा बोले – बस बाहर का पतला
    सा चमड़ा ही तो है जो भी है… बाकी तो अंदर
    मल मूत्र रक्त पीब यही तो भरा हुआ है
    …बाबा बोले… देखो ! ये परिवर्तन मैं
    बोलकर भी कर देता… मैं बोलता और तुम सुनते
    तब भी हो जाता… पर तुम सुनने की स्थिति
    में थे ही नही… तुम को मैं कुछ भी कहता
    …वो जो वासना के कीटाणु तुम्हारे चित्त में
    बैठ गये थे… उन्हें मारना जरुरी था
    …अब तुम चिन्ता मत करो । आज के बाद तुम
    ठीक हो… बाबा ने कहा… अब ये माला और झोली रख दो… और निश्चिन्त होकर जाओ ।
    आश्चर्य था… कि वो युवक रो पड़ा और
    बोला…अब मुझे कोई नही चाहिए… आज मैंने
    जाना कि प्रेम तो गुरु से भी हो सकता है
    …निष्काम प्रेम है आपका…आपकी आँखों से
    प्यार झरता है…अब मैं ये माला आपको नही दूँगा
    …अब तो मैं नित्य नाम जप और नित्य ध्यान
    करूँगा… सच्चा आनंद यहाँ है… सच्चा
    प्रेम यहाँ है… । बाबा कुछ नही बोले
    …मैं प्रणाम करके उस युवक के साथ जब बाहर
    आया तो बारिश हो रही थी… कुञ्ज भींगें
    हुये थे… मोर नाच रहे थे… उस युवक को
    इतना आनंद आया… कि बारिश में भींग कर नाचा
    …भींगते हुये नाचा… और मेरे पास आकर
    बोला… “धन्यवाद” मैंने उसे गले से लगा
    लिया था । उसने रोते हुये मुझ से पूछा बाबा जी ने क्या चमत्कार किया ? मैं तो सोचता था… इस जन्म में मैं उसे भूल ही नही पाऊँगा… पर बाबा ने
    …वो ये कह कह कर रोता ही जा रहा था पर
    अब उसके अश्रु आंनद के थे… उसका मन और चित्त
    बाबा ने पवित्र कर दिया था… चित्त में जो भी था
    वह सब बाहर निकाल दिया था बाबा ने…वो युवक
    आनंदित था… अति आनन्दित ।

“आज कल पाँव ज़मी पर नही पड़ते मेरे”

Harisharan

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