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November 21, 2024 1:13 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(19-2),“माता कुन्ती”,भक्त नरसी मेहता चरित (27) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(19-2),“माता कुन्ती”,भक्त नरसी मेहता चरित (27) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣9️⃣
भाग 2

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#मंगलमूललगनदिनुआवा…….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

पर मेरी ये काका की बेटियां ………….ये भी बहुत अच्छी हैं ……….जब जब आती हैं ………….मानों उत्सव ही मन जाता है ।

आपका विवाह होनें जा रहा है जीजी ?

काका की दोनों बेटियों नें पूछा था ।

लाज लग गयी थी …………..कुछ नही बोली मै ।

उस समय मेरी सखी चन्द्रकला जानें लगी ……………तब मैने उसे रोका ……..आगे क्या हुआ चन्द्रकले ! ये तो बताओ ।

हँसते हुए माण्डवी और श्रुतकीर्ति नें चन्द्रकला को भी अपनें हृदय से लगा लिया था ………………।

नही ….अभी नही …………मै बाद में आती हूँ ……ये कहकर जानें लगी चन्द्रकला ……………

अरे ! सुना ना ………ये सब अपनी ही बहनें तो हैं ……………मैने चन्द्रकला को समझाया …………फिर आगे की बात बतानें लगी थी चन्द्रकला ।

हे मिथिलेश ! आपकी एक और पुत्री है ………..जिसे आपनें पाल पोस कर बड़ा किया है ………ये बात गुरु वशिष्ठ जी नें पूछा था ।

हाँ ……….मेरी एक और पुत्री है …………जिसे मैने पाला है ….मेरे भाई की ही पुत्री है ……उर्मिला ।

हाँ ……..हम चाहते हैं कि उर्मिला का विवाह चक्रवर्ती नरेश के छोटे पुत्र लक्ष्मण के साथ हो………..ये बात जैसे ही सुनी महाराज मिथिलेश नें …….उनके नेत्रों से आनन्द के अश्रु बहनें लगे थे ।

जीजी ! देखो ना …….ये फिर मुझे छेड़नें लगीं हैं ……..चन्द्रकला ।

ये सच कह रही है उर्मिला ! मैने उर्मिला को कहा .।

वो तो शरमा कर भाग गयी ।

तू सच कह रही है ना चन्द्रकला ? मैने पूछा ।

मै क्यों झूठ बोलूंगी सिया जू !

आगे की बात और बताऊँ ? ये कहते हुए माण्डवी और श्रुतकीर्ति की ओर देखा था चन्द्रकला नें ।

क्यों ? बता …………और हाँ चन्द्रकला ! तू माण्डवी और श्रुतकीर्ति की और क्यों देख रही है ?

क्या इनका भी विवाह होनें वाला है ?

मैने जैसे ही पूछा ……….तो चन्द्रकला ने उत्तर दिया ………..

जी ! जी सिया जू ! रघुकुल के कुल गुरु इतनें में ही नही रुके थे ……उन्होनें बड़ी विनम्रता से आगे कहा था………….

महाराज ! आपके छोटे भाई हैं कुशध्वज …………..

जी ! गुरुदेव ! वो अभी आये ही हैं …..मेरे पिता नें कहा ।

उनकी दो पुत्री हैं ……………और हम चाहते हैं कि भरत और शत्रुघ्न के लिये उनकी दोनों पुत्री का कन्या दान आप करें ……।

चरण पकड़ लिए थे मेरे पिता नें गुरु वशिष्ठ जी के ।

हम को ये स्वीकार है …………….ये मेरे पिता नें कहा था ……और देखा था अपनें कुल गुरु शतानन्द जी की और ……

महान ऋषि वशिष्ठ जी के चरण का मै भी सेवक ही हूँ …………..

इनकी हर आज्ञा मुझे तो शिरोधार्य ही है ………….

मंगल होगा राजन् ! सब मंगल होगा ………………हमारे कुल गुरु शतानन्द जी नें मेरे पिता को कहा था ।

शरमा रही थीं माण्डवी और श्रुतकीर्ति ……………

मेरे नेत्रों से ख़ुशी के आँसू झर ही रहे थे ………………हम सब बहनें एक साथ रहेंगीं ………अब मै अकेली कहाँ ! मैने अपनें हृदय से लगा लिया था उन दोनों को भी………।

उन दिनों मेरा जनकपुर झूम रहा था…..मेरे जनकपुरवासी झूम रहे थे ।

क्रमशः ….
शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


Niru Ashra: “माता कुन्ती”

भागवत की कहानी – 26


भगवान श्रीकृष्ण परमधाम चले गये …हस्तिनापुर अर्जुन लौट के आये हैं द्वारिका से …सबने देखा है अर्जुन को ! ओह ! ये वही अर्जुन है जिसके नाम से ही शत्रुदल के स्वेद छूटने लगते थे । ये वही गांडीवधारी है जिसके टंकार से पृथ्वी ही नही स्वर्ग के देव भी कम्पित हो उठते थे । कैसा धूमिल मुखमण्डल हो गया है अर्जुन का …..ओह ! मानों किसी ने तेज निचोड़ लिया हो , गांडीव भी बड़ी मुश्किल से सम्भाला जा रहा है अर्जुन से । माता कुंती ने कहाँ पहचाना था अर्जुन को ! अरे स्वयं सम्राट युधिष्ठिर नही पहचान पाये थे …..यहाँ तक कि द्वार पर खड़े द्वारपालों ने रोक दिया था …वो तो जैसे तैसे डर झगड़ कर अर्जुन भीतर तक आए थे । अर्जुन ने युधिष्ठिर के पैर छुए तब ध्यान से देखने पर समझ में आया कि ये तो अर्जुन है ! श्रीकृष्ण को छोड़ने द्वारिका गया था …अब आया है । तभी कुंती माता वहाँ आयीं थीं ….युधिष्ठिर ! अर्जुन से सम्पर्क हुआ क्या ? सुना है कुछ दिन पहले द्वारिका में भयावह समुद्री लहरें उठीं हैं …मुझे तो कृष्ण की चिंता लग रही है । सैनिक भेज कर पता लगाओ ना युधिष्ठिर ! कुंती ये कह ही रहीं थीं कि अर्जुन ने उनके पाँव छुए ..तब भी अर्जुन को नही पहचाना …अर्जुन का तेज ही खतम हो गया था ।

माता ! ये अर्जुन है । युधिष्ठिर ने कहा था ।

क्या ! ऐसा दीन हीन अर्जुन ! कुंती ने मुख देखा अर्जुन का । हाँ है तो ये अर्जुन ही ….किन्तु ये क्या हुआ इसे ! अच्छा ! बता कृष्ण कैसे हैं ? कुंती माता को अब यही पूछना है ।

ओह ! बैठ गया वहीं पर अर्जुन …और हिलकियों से रोने लगा ……बहुत जोर जोर से रो रहा था ….लोग इकट्ठे हो गए थे द्रोपदी भी आगयी थी , भीम नकुल सहदेव आदि सब वहाँ उपस्थित हो गये थे ….वो बालक परीक्षित भी आया था …..वो देख रहा था अपने दादा अर्जुन को इस तरह रोते हुये ….वो किससे पूछे ….कि क्या हुआ ? कुंती माता अर्जुन के निकट गयीं थीं सिर में हाथ रखा ….वो केश ..मानों कई दिनों से तैल नही लगाया है …रूखे केश …उन्हीं में अपना हाथ फेरा था । बोल ना ! कैसा है मेरा कृष्ण ? कुंती माता ने फिर पूछा था । तब हिलकियों से रोते हुये अर्जुन ने कहा था ……कृष्ण ने हमारी हर पल रक्षा की । भैया ! आज मैंने अनुभव किया …..क्या अनुभव किया अर्जुन ? सम्भालते हुए अर्जुन को युधिष्ठिर पूछते हैं । यही कि मेरे पास जो शक्ति थी वो मेरी नही थी ….वो तो श्रीकृष्ण प्रदत्त थी ……आज मेरे पास शक्ति नही है ….पता है भैया ! आज मैं ये गांडीव चला नही सकता ….अरे ! चलाने की बात करते हो …मुझ से उठाया नही जा रहा ….मेरा स्कन्ध दूख रहा है …..मार्ग में मुझे सामान्य भील मिले थे ….उन्होंने मुझे देखा तो लड़ने लगे ….हा हा हा …अर्जुन रोते रोते हंसने लगा ……भगवान शंकर के सामने इस अर्जुन ने गांडीव उठाया था …..युद्ध हुआ था हम दोनों में …..उस समय भगवान शंकर भी मुझे मान गये थे ….किन्तु आज ..ये सामान्य से भीलों ने मुझे लूट लिया । कुंती अर्जुन को देखती है फिर अर्जुन को सम्भालते हुए कहती है ….तुम लोग आज जीवित हो तो केवल श्रीकृष्ण कृपा के कारण ……तुम लोगों को मारने का कैसा कैसा प्रयास किया गया ….किन्तु श्रीकृष्ण ने तुम सबकी रक्षा की । अर्जुन कुंती के चरणों को पकड़ कर कहता है ….माता ! चाहे लाक्षागृह हो या द्रुपद राजा के यहाँ का स्वयंवर …..या महाभारत का युद्ध ….प्रत्येक काल में श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण ….अर्जुन धड़ाम से धरती में गिर गया है ….श्रीकृष्ण की मधुर स्मृति में वो खो गया है । कुंती माता कहती हैं युधिष्ठिर से ….कृष्ण का वियोग सहन नही हो रहा इसे …इसलिए इसकी ऐसी दशा हुई है ….फिर हंसती हैं माता कुंती ……मैंने तो उससे कहा था मुझे दुख दे ….वो चौंक गया था …कहने लगा दुख भी कोई माँगता है भुआ ! ओह ! कितने मीठे बोल उसके ….भुआ ! मुझे भुआ कहता है…..मैंने उससे कहा ….नही , मुझे तो तू दुख दे । क्यों ? फिर पूछने लगा …तो मैंने कहा …देख कृष्ण ! सुख में तेरी याद तो आती नही है …दुख में तेरी खूब याद आती है ….मैंने उसे उदाहरण भी दिए थे ….कि देख …पहले हम दुखी थे तो हर समय तुझे बुलाते रहते थे ….तेरा ही स्मरण होता था , तू आता रहता था …लेकिन अब , अब सुख आगया ….युधिष्ठिर को तूने राजा बना दिया …युद्ध जिता दिया …अब दुःख नही है, तो तू द्वारिका जा रहा है …तू हमें दुःख दे ….ताकि तेरी याद बनी रहे तो तू भी आता जाता रहेगा । कुंती हंसती हैं ….द्रोपदी को देखकर कहती हैं ….उसके मुँह से भुआ ! आहा ! मानों कानों में अमृत घुल जाती थी । उसे बहुत चिंता थी तुम सबकी ….उसने मथुरा से अक्रूर को भेजा था ….केवल ये जानने के लिए की उसकी भुआ कैसी है …उसकी भुआ के लड़के कैसे हैं …..पता है युधिष्ठिर ! वो एकान्त में कहता था भुआ ! तुम लोगों को मैं महाभारत जिता कर रहूँगा …चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े । कुंती ये कहते हुये यहाँ रुक गयीं ….फिर अर्जुन की ओर देखा ….देखो , मैं भी बात बात में भूल गयी अर्जुन ! बता मेरा कृष्ण कैसा है ? वहाँ भयानक समुद्री लहरें चल रहीं थीं ? द्वारिका सुरक्षित तो है ना ? हाँ , क्या होगा द्वारिका को , कृष्ण जिसका रक्षक हो ……..कुंती देखती हैं ….अर्जुन कि साँसें उखड़ रही हैं …..तुम लोग भी , बेचारा अर्जुन द्वारिका से आया है जल तो पिलाओ इसे । कुंती फिर कहती हैं …मैं ही लाती हूँ … कहते हुए कुंती माता भीतर गयीं …जल लिया …लेकर आरही हैं …….अर्जुन ! श्रीकृष्ण ठीक तो हैं ना ? उन्हें कुछ हुआ तो नही …..युधिष्ठिर ने पूछा ….कुंती जल लेकर आचुकी हैं ……अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा – भैया ! श्रीकृष्ण हम सबको अनाथ छोड़कर परमधाम चले गये …..ओह !

द्रोपदी तभी चिल्लाई …..माता कुंती को क्या हुआ ? युधिष्ठिर दौड़े …भीम ने देखा ….ओह ! श्रीकृष्ण के परमधाम गमन की बात सुनते ही कुंती माता ने अपना देह त्याग दिया था । ये इनसे सहन नही हुआ । सूत अपने अश्रुओं को पोंछते हुए शौनक से कहते हैं …श्रीकृष्ण हैं ही इतने प्यारे ।
[Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (27)


🕉🌝🚩बसो मोरे नैनन में नँदलाल ।। टेक ।।

मोहनी मूरति साँवरी सूरति, नैणा बने बिसाल ।

अधर सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल[1] ।

छुद्र घंटिका कटि तट सोभित, नूपुर सबद रसाल ।

मीराँ प्रभु संतन सुखदाई, भक्‍त बछल गोपाल ।।3।।🚩🌝🕉🌸🙏

🙏🏵नरसीराम के सम्बधी मदनराय बड़नगर वासी चकित

‘वत्स ! इसमें आश्चर्य कौन -सी बात है ? मैं तो सदा भक्त के अधीन रहता हूँ । भक्त जिस भाव से मुझे भेजता है, उसी के अनुरूप मुझे स्वरूप धारण करना पड़ता है । क्या मैंने गोपियों की भावना के अनुसार स्वरूप धारण कर उनकी इच्छा पूर्ति नहीं की थी ? बालक भक्त प्रहलाद को जिस समय विषपान कराया गया, उस समय क्या विषस्वरूप बनकर मैंने उसकी रक्षा नहीं की थी ? पुत्र ! अपने भक्त के लिये भी काम करना मेरे लिये दुष्कर नहीं ।’ भगवान ने नरसिंह राम का समाधान किया ।

वहाँ से बारात बड़ी सज-धज के साथ रवाना हुई । हाथी , घोड़े, रथ,पैदल-चतरंगिणी बारात थी । अनेकों प्रकार के बाजे बज रहे थे । कितनी ही गाड़ियों पर डेरे ,तम्बू और सजावट के सामान लदे हुए थे । जब स्वयं द्वारिकाधीश भगवान की ही बारात थी, तब उसमें कमी किस बात की हो सकती थी ?

बारात निश्चित समय पर बड़नगर पहुँच गयी और एक स्थान पर आकर ठहर गयी । बारात का ठाट देखकर सब लोग यही कहते थे कि मानो कोई चक्रवर्ती राजा अपने पुत्र का विवाह करने आये है ।

इधर मदन मेहता भी अपनी हैसियत के अनुसार विवाह की खूब तैयारी कर रखी थी । दूर -दूर के सगे -सम्बनधी और मित्र श्रीमन्त लोग ब्याह में सम्मिलित होने के लिये आये थे । बारात का आगमन सुनकर वह सब लोगों के साथ स्वागत करने के लिए उस स्थान पर आये ।

नारायणी बारात की अपूर्व शोभा देखकर वह चकित रह गये । उन्होंने सोचा-‘ ऐसी बारात तो कोई राजा भी नहीं ला सकता था । जो मनुष्य मेरे यहाँ ब्याह करने आया है , वह कोई साधारण आदमी नहीं हो सकता । मैंने बड़ी भूल की जो इनको अभिमान भरा पत्र लिख भेजा ।

इस बारात का भोजनादि द्वारा सत्कार करना तो दूर रहा , मैं तो पर्याप्त जल भी नहीं पहुँचा सकता । इस प्रकार सोचते हुए वह शीघ्र नरसिंह मेहता से मिलने के लिए आगे बढ़े । वह जब भगवान श्रीकृष्ण के डेरे के सामने आये तो उन्होंने अनुमान किया कि यही समधी का डेरा हो सकता है ।

उन्होंने पहरेदार से खबर भेजी कि मदनराय मिलने के लिए आये है । आज्ञा लेकर पहरेदार उन्हें अन्दर ले गया उन्होंने भगवान को प्रणाम करते हुए कहा -‘नरसिंह राम जी ! आपको मैं प्रणाम करता हूँ.

क्रमशः ………………!


Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 9 . 29
🌹🌹🌹
समोSहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योSस्ति न प्रियः |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् || २९ ||

समः – समभाव; अहम् – मैं; सर्व-भूतेषु – समस्त जीवों में; न – कोई नहीं; मे – मुझको; द्वेष्यः – द्वेषपूर्ण; अस्ति – है; न – न तो; प्रियः – प्रिय; ये – जो; भजन्ति – दिव्यसेवा करते हैं; तु – लेकिन; माम् – मुझको; भक्त्या – भक्ति से; मयि – मुझमें हैं; ते – वे व्यक्ति; तेषु – उनमें; च – भी; अपि – निश्चय ही; अहम् – मैं |

भावार्थ
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मैं न तो किसी से द्वेष करता हूँ, न ही किसी के साथ पक्षपात करता हूँ | मैं सबों के लिए समभाव हूँ | किन्तु जो भी भक्तिपूर्वक मेरी सेवा करता है, वह मेरा मित्र है, मुझमें स्थित रहता है और मैं भी उसका मित्र हूँ |

तात्पर्य
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यहाँ पर प्रश्न किया जा सकता है कि जब कृष्ण का सबों के लिए समभाव है और उनका कोई विशिष्ट मित्र नहीं है तो फिर वे उन भक्तों में विशेष रूचि क्यों लेते हैं, जो उनकी दिव्यसेवा में सदैव लगे रहते हैं? किन्तु यह भेदभाव नहीं है, यह तो सहज है | इस जगत् में हो सकता है कि कोई व्यक्ति अत्यन्त उपकारी हो, किन्तु तो भी वह अपनी सन्तानों में विशेष रूचि लेता है | भगवान् का कहना है कि प्रत्येक जीव, चाहे वह जिस योनी का हो, उनका पुत्र है, अतः वे हर एक को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करते हैं | वे उस बादल के सदृश हैं जो सबों के ऊपर जलवृष्टि करता है, चाहे यह वृष्टि चट्टान पर हो या स्थल पर, या जल में हो | किन्तु भगवान् अपने भक्तों का विशेष ध्यान रखते हैं | ऐसे हो भक्तों का यहाँ उल्लेख हुआ है – वे सदैव कृष्णभावनामृत में रहते हैं, फलतः वे निरन्तर कृष्ण में लीन रहते हैं | कृष्णभावनामृत शब्द ही बताता है है कि जो लोग ऐसे भावनामृत में रहते हैं वे सजीव अध्यात्मवादी हैं और उन्हीं में स्थित हैं | भगवान् यहाँ स्पष्ट रूप से कहते हैं – मयि ते अर्थात् वे मुझमें हैं | फलतः भगवान् भी उनमें हैं | इससे ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् की भी व्याख्या हो जाती है – जो मेरी शरण में आ जाता है, उसकी मैं उसी रूप में रखवाली करता हूँ | यह दिव्य आदान-प्रदान भाव विद्यमान रहता है, क्योंकि भक्त तथा भगवान् दोनों सचेतन हैं | जब हीरे को सोने की अँगूठी में जड़ दिया जाता है तो वह अत्यन्त सुन्दर लगता है | इससे सोने की महिमा बढती है, किन्तु साथ ही हीरे की भी महिमा बढती है | भगवान् तथा हिव निरन्तर चमकते रहते हैं और जब कोई जीव भगवान् की सेवा में प्रवृत्त होता है तो वह सोने की भाँति दिखता है | भगवान् हीरे के समान हैं, अतः यह संयोग अत्युत्तम होता है | शुद्ध अवस्था में जीव भक्त कहलाते हैं | परमेश्र्वर अपने भक्तों के भी भक्त बन जाते हैं | यदि भगवान् तथा भक्त में आदान-प्रदान का भाव न रहे तो सगुणवादी दर्शन ही न रहे | मायावादी दर्शन परमेश्र्वर तथा जीव में मध्य ऐसा आदान-प्रदान का भाव नहीं मिलता, किन्तु सगुणवादी दर्शन में ऐसा होता है |

प्रायः यह दृष्टान्त दिया जाता है कि भगवान् कल्पवृक्ष के समान हैं और मनुष्य इस वृक्ष से जो भी माँगता है, भगवान् उसकी पूर्ति करते हैं | किन्तु यहाँ पर जो व्याख्या दी गई है वह अधिक पूर्ण है | यहाँ पर भगवान् को भक्त का पक्ष लेने वाला कहा गया है | यह भक्त के प्रति भगवान् की विशेष कृपा की अभिव्यक्ति है | भगवान् के आदान-प्रदान भाव को कर्म के नियम के अन्तर्गत नहीं मानना चाहिए | यह तो उस दिव्य अवस्था से सम्बन्धित रहता है जिसमें भगवान् तथा उनके भक्त कर्म करते हैं | भगवद्भक्ति इस जगत का कार्य नहीं है, यह तो उस अध्यात्म का अंश है, जहाँ शाश्र्वत आनन्द तथा ज्ञान का प्राधान्य रहता है |

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