[ Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग >>>>>>>>>1️⃣3️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
त्रिजटा नें आकर मुझे जो बताया –
रामप्रिया ! मन्दोदरी को पता नही चलना चाहिए था ………कि हम लोग श्रीराम की सहायता कर रहे हैं ……………..।
वानर प्रवेश कर चुके थे ……………..
मैने धीरे से “जय श्रीराम” की आवाज लगाई ……………अंगद नें हमें देख लिया …………….तो हमारी ओर ही बढ़ें वो लोग ।
मन्दोदरी नें मेरी माँ की ओर देखा था ……..मेरी माँ नें हँसते हुये कहा …….उधर की सेना यही नारे लगाती है ना। !
बड़े ध्यान से हमें देख रही थीं मन्दोदरी ।
तभी …………..अंगद आये …………वो महल की ओर ही छुपे थे ….
मेरी माँ नें इशारे से कहा ……………सामनें वाला द्वार ……….।
अंगद के पीछे सुग्रीव और नल नील सब दौड़े ……
एक ही लात से द्वार तोड़ दिया था ………….
रावण यज्ञ कर रहा है ……………….वो अविचलित होकर एकाग्रता से यज्ञ कर रहा है ……..मन्त्र पढ़े जा रहा है ।
मन्दोदरी भागी पूजा गृह की ओर …………….कुछ अन्य रावण की रानियाँ भी भागी ……रामप्रिया ! ये सब देखकर मैं और मेरी माँ भी गयीं वहाँ ।
अंगद केश खींच रहा था रावण के …………….पर रावण फिर भी विचलित नही हुआ ….मन्त्र पढ़ता ही रहा ।
सुग्रीव नें एक लात मारी रावण गिर गया ……………पर फिर सम्भलकर यज्ञ करनें लगा था ।
रामप्रिया ! स्रुवा हाथ से खींच कर तोड़ दिया नल नील नें ।
यज्ञ कुण्ड में जल डाल दिया ……यज्ञ कुण्ड जल से ही भर दिया …. रावण फिर भी मन्त्र पढ़ता रहा ……उसे लग रहा था कि आहुति नही तो क्या हुआ मन्त्र का जाप ही कर लूँ ।
क्रमशः…..
शेष चरित्र कल …….!!!!!!
🌹 जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-84”
( ग्वाल बाल कौ जूठौ खावै – एक झाँकी )
कल ते आगै कौ प्रसंग …….
मैं मधुमंगल ……….
जे कन्हैया है ……सखा है जीव कौ कन्हैया । सनातन सखा । हर समय सम्भाल करे तुम्हारौ …..हर पल तुम्हारे साथ रहे है । कितनौं प्रेम करे तुमते …लेकिन तुम ? तुम तौ स्वार्थ से भरे संसार की ओर ही देखते रहो । या भोले से मित्र कूँ तौ देख ल्यो । ये अनादि काल ते तुम माहूँ देख रो है …..तुम बाके ओर देखो , या लिए देख रह्यो है ….लेकिन तुम्हारौ ध्यान कहूँ ओर ही है …..पत्नी , पति , बालक , स्वार्थ ते भरे रिश्ते नाते दार । लेकिन एक बार तौ याकी ओर देखो …..निहाल है जाएगौ ……अपने कूँ धन्य मानेगौ …..भोलौ भालौ है ना । बृजवासी जौ है …..जाने नही हैं संसार की झूठी रीतन कूँ ….जाकूँ अपनौं कह दै…वही अपनौं है । जाने कह दियौ …कन्हैया ! मैं तेरौ हूँ …….बस , बात खतम है गयी ….अब कन्हैया नही भूलेगौ तुम्हें ….तुम भले भूलते रहो । अजी ! सनातन सखा है हमारौ कन्हैया ।
मेरी ओर मुड्यो कन्हैया …..और बोल्यो ……मधुमंगल ! सब लाये हैं अपने अपने घरन ते कछु न कछु ……तू नही लायो ? अब मैं कहा कहूँ …..सब जाने कन्हैया …फिर हूँ कह रह्यो है ।
नही , आज तौ हम मधुमंगल के घर कौ खायेंगे । कन्हैया जिद्दी है ।
अब मैं कहा कहूँ …मैंने हूँ कह दियौ – कन्हैया ! कल मैं तेरे काजे खीर बनवा के लाउँगौ ….आज रहन दै । लेकिन जिद्दी है कन्हैया । उठ के खड़ौ है गयौ …..और मेरे हाथन कूँ पकड़ के बोलो ….मधुमंगल ! तू जा …और तेरे घर में जो बन्यो होय ….वो लेकर के आ ।
मैंने कही ….घर में तौ कछु नही बन्यो ।
कन्हैया बोलो …..तेरी मैया जो खावै वही लै आ । मैंने हँसते भए कही …मेरी माता तौ हवा खावै ….तू कन्हैया हवा ही खाय लै । लेकिन कन्हैया ने गम्भीर है कै कही ….मधुमंगल ! तू जा …और घर में जो होय सो लै आ ।
अब मैं कहा करतौ ……मैं हूँ चल दियौ अपने घर ……मोकूँ पतौ है घर में कछु नही है ……मेरी माता जी पंद्रह दिन में सोलह दिना तौ एकादशी करे ….अब कहा धरौ होयगौ माता जी के पास ।
यही सब सोचते भए मैं आयौ …..माता जी की कुटिया में ।
भीतर गयौ तौ माता जी ने नेत्र खोल लिए …….. वत्स ! का चहिए ? मैंने सच बात बोल दई ….माता ! कन्हैया कूँ कछु खानौं है ….हमारे घर कौ खानौं है ….कछु होय तौ दै दो । मेरी माता जी हंसीं ….फिर बोलीं …वत्स ! बा तरफ गुड़ धर्यौ है ….गुड़ लै जा । इतनौं कहके माता जी तौ ध्यान में बैठ गयीं …..मैं गयौ …मैंने गुड़ लियौ …..गुड़ तौ बड़ौ ही पुरानौं हो ।
गुड़ लै कै मैं चल दियौ कन्हैया के पास । लेकिन मन में बात आय रही …..बहुत पुरानौं गुड़ है ….अति कठोर हूँ है ….आहा ! मेरौ लाला तौ अतिकोमल है …..और जे गुड़ ! मैंने गुड़ कूँ निकाल के फिर देख्यो …हाथ ते दबायौ ….लेकिन ।
अब मैं चलते चलते आय गयौ कन्हैया के पास ।
लेकिन यहाँ तौ ……..
मैं रुक गयौ …….मैं दूर ते देख रह्यो हूँ कन्हैया कूँ । अतीव कोमल है कन्हैया । एक सखा ने माखन कौ गोला कन्हैया के माहूँ मार्यो …तौ चोट लग गयी कन्हैया के ।
माखन ते चोट ! मैं चिन्ता में पड़ गयौ ……फिर मेरे पास में जो गुड़ है …….मैंने फिर गुड़ निकाल्यो ……गुड़ कूँ देखते भए मन में विचार आय रहे …..कि जे गुड़ देख लेगौ तौ कन्हैया अवश्य खायगौ ……और कन्हैया ने खायौ तौ …..बाके कहूँ मुख में , दाँत में चोट ना लग जाए …..फिर का करूँ ? हाँ ….मैं ही खाय लउँ । यही सोचके मैंने जैसे ही गुड़ मुँह में ड़ाल्यौ । अरे ! गुड़ तौ टूटे ही नाँय । मैंने और जोर लगायौ …..मेंरौ मुँह आड़ौ टेडौ है गयौ ….लेकिन गुड़ नही टूट्यौ ।
अब तौ सबकौ ध्यान मेरी ओर …..सब मेरी ओर देखवे लगे …….श्रीदामा मेरी ओर दोड्यो …..फिर तोक सखा हूँ ……कन्हैया कैसे रुकतौ …..मेरे पास में आयौ कन्हैया ….फिर बोलो …मधुमंगल ! का खाय रो है ? मैंने कही …लड्डू है । मेरी माता जी ने बनाये हैं । श्रीदामा बोलो …वाह रे मधुमंगल ! पहली बार ऐसौ लड्डू देख्यो …जाकूँ खायवे में इतनौं व्यायाम करनौं पड़ रो है । श्रीदामा की बात पे सब हँसे ….मैं हूँ हंस्यो …..लेकिन कन्हैया मेरे पास आय के गम्भीर है कै बोलो …..मधुमंगल ! आज तौ हमने सोच लियौ है कि …आज हम तेरे घर कौ ही खायेंगे । मैंने हँसते भए कही ….अब तौ मुँह में चलो गयौ …कहाँ ते खायगौ ? लेकिन कन्हैया गम्भीर है ….बाने अपने एक हाथ ते मेरौ मुँह पकड्यो ….फिर दूसरे हाथ ते मुँह में धरी गुड़ निकाल के अपने मुँह में धर लियौ …….और आनंदित है तौ भयौ बोलो ……इतनौं स्वाद आज तक काहूँ वस्तु में नही आयौ ….जितनौं स्वाद मधुमंगल ! तेरे या गुड़ में है ………….मैं दूर खड्यो बस अश्रु बहा रह्यो हो …….कितनौं प्रेमी है अपनौं सखा । कन्हैया सखा ।
क्रमशः……
Hari sharan
[ Niru Ashra: || श्री हरि: ||
— :: x :: —श्रीभगवन्नाम – स्मरण
( पोस्ट 4 )
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गत पोस्ट से आगे …….
प्रेम और आनन्द का अविनाभावी सम्बन्ध है, जहाँ प्रेम है वहाँ आनन्द है ही | इसी से गोपियों के प्रेम का महत्व है | भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीमती राधारानी इसी प्रेम और आनन्द के मूर्तिमान रूप हैं | भगवान् का जो आनन्दस्वरूप है वही श्रीमती राधा है | राधारानी के प्रेमास्पद भगवान् हैं और भगवान् की प्रेमास्पदा श्रीराधा हैं | प्रेम का स्वभाव है ‘तत्सुखे सुखित्वम’ प्रेमास्पद के सुख में सुखी होना, यही काम और प्रेम का अन्तर है | काम में अपने सुख की इच्छा है और प्रेम में प्रियतम के सुख की | राधाजी श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ही अवतीर्ण हुई हैं और अपनी सेवा से श्रीकृष्ण को आनन्द होता देखकर परम सुखी होती हैं | इधर राधाजी को सुखी देखकर श्रीकृष्ण के सुख की वृद्धि होती हैं और श्रीकृष्ण के सुख की वृद्धि से राधाजी का सुख और भी बढ़ जाता है | इस प्रकार एक-दूसरे के आनन्द से दोनों का आनन्द उतरोतर बढ़ता रहता है | यह उतरोतर बढ़ने वाला आनन्द ही भगवान् का नित्यरास है | प्रेम में यही तो विलक्षणता है | इसमें कहीं ‘अलम’ नहीं होता | प्रेम का स्वरूप ही है – ‘प्रतिक्षणवर्धमानम’ | प्रेमास्पद का सुख ही अपना सुख है | चाहे उसका वह सुख प्रेमी के लिये लोक-दृष्टि से कितना ही कष्टकर क्यों न हो | प्रेमी चातक की भावना है –
जों घन बरषे समय सिर जों भरि जनम उदास |
तुलसी या चित चातकहि तऊ तिहारी आस ||
रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गे अंग |
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रूचि रंग ||
बरषी परुष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक |
तुलसी परी न चाहिए चतुर चातकहि चूक ||
चढत न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष |
तुलसी प्रेम पयोधि की तातें नाप न जोष ||
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शेष आगामी पोस्ट में …..
Niru Ashra: (साधकों के लिए)
भाग-5
प्रिय ! भजहु राम बिनु हेतु सनेही…
(श्री रामचरितमानस)
मित्रों ! वो पंजाब से आये थे… बहुत बड़े उद्योगपति थे… लग्जरी कारें थीं उनके पास… कल उन्होंने ही श्री बाँके बिहारी जी का फूलों का बंगला बनवाया था क़रीब 15 लाख रूपये में… अपने शहर जाते जाते दर्शन करने आगये थे पागलबाबा के ।
गौरांगी ने मेरे कान में कहा हरि जी ! इन्हीं सेठ जी ने कल अपने एक किसी परिचित के हाथों श्री बिहारी जी का प्रसाद भिजवाया था… बाबा ने पूछा था क्या है ?… तो इन सेठ जी के परिचित व्यक्ति ने कहा सेठ जी ने भिजवाया है… उसी समय बाबा ने वो जो मिठाई आयी थी वापस भिजवा दी… फिर इन सेठ जी का पुत्र स्वयं आया था और कहा… बिहारी जी का प्रसाद है… तब बाबा ने उस प्रसाद को ग्रहण किया था… और बाबा ने हँसते हुये कहा था…सेठ जी- ने भिजवाया है कहा… तो भैया ! मैं तो सेठों का कुछ भी नही लेता… इसलिए मैंने वापस भिजवा दिया था… हाँ वो अगर ये कहता कि
प्रसाद है बिहारी जी का… तब तो हम ले ही लेते ।
गौरांगी ने कहा… यही सेठ जी हैं जिन्होंने कल बिहारी जी में बड़ा फूलों का
बंगला बनवाया था… मैंने कहा गौरांगी ! छोड़…सुन बाबा क्या बोल रहे हैं… ।
बाबा से उन सेठ जी ने बड़ी विनम्रता से कहा… बाबा मैं क्या करूँ ? मेरे लिए कुछ साधना बतायें!…
बाबा बोले – भजन करो… ख़ूब भजन करो…
बाबा बोले… दान करो… ख़ूब करो
…पैसे हैं तो उसका सदुपयोग करो… अच्छी बात है दान करना… पर याद रखना दान से भी पतन होने की सम्भावना है
…क्यों कि अहँकार आजाता है दान देने वाले के मन में… इसलिए दान दो… पर भजन मुख्य है… भजन सर्वश्रेष्ठ है… बाबा बोले दान से धन शुद्ध होता है…पर अन्तःकरण शुद्ध नही होता… और मुख्य है हमारा अन्तःकरण… यानी मन, बुद्धि
चित्त और अहँकार… इसे कहते हैं अन्तःकरण… बाबा बोले सेठ जी ! अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाने का प्रयास करो… और याद रखना अन्तःकरण शुद्ध होगा तो आपका शरीर भी स्वस्थ रहेगा… क्यों कि अन्तःकरण की शुद्धता यानी
प्रसन्नता… प्रसन्नता यानी उसकी कृपा की वर्षा… प्रसाद ही तो प्रसन्नता है… और प्रसाद का अभिप्राय ही कृपा है… यानी सेठ जी ! प्रसन्नता का हमारे हृदय में आना ही भगवत् कृपा का प्रत्यक्ष प्रमाण है… कि कृपा हो गयी । बस सेठ जी ! हमें इतना प्रयास करना है कि… हमारा अन्तःकरण शुद्ध हो… ।
और अन्तःकरण शुद्ध तब होगा जब हम भजन करेंगे… सेठ जी ने पूछा बाबा भजन का मतलब
क्या है ?… बाबा बोले… सेवा… भजन का मतलब है सेवा । उन सर्वव्यापी परमात्मा की सेवा में निरन्तर अपने को लगा देना यही भजन है… कहीं गन्दगी देखी… स्वयं ही उस गन्दगी को साफ करके ये भावना रखना कि मेरे प्रभु यहाँ आकर बैठेंगे… मेरे भगवान पता नही किस रूप में यहाँ आयें… मैंने उनके लिए ये सफाई की है…।… अन्तःकरण की
शुद्धि के लिए भजन… शरीर से सेवा… मुख से भगवन् नाम का निरन्तर जप… और ध्यान… सेठ जी ! साधना करो
…बाबा कुछ देर सोच कर बोले… सेठ जी ! अब नींद तो आती नही होगी ? अवस्था हो गयी है आपकी… हाँ बाबा ! नींद की गोली खानी पड़ती है… बाबा ने कहा मत खाओ नींद की गोली… एक काम करो… माला लेकर राम राम, श्याम श्याम जपो… रात्रि में सोते समय भगवान का नाम लो… और जब तक नींद न आये माला लेकर नाम जपते रहो… संख्या रखो नाम की… कि आज इतना जपा कल इतना जपा था…और नाम जपते जपते देखना नींद आजायेगी…बाबा बोले… इससे अन्तःकरण भी शुद्ध होता जायेगा… और अन्तःकरण शुद्ध हो गया तो
बस बात बन गयी…इसलिए भजन करो… तन से सेवा करो… मन से प्रेम… और जिह्वा से भगवन् नाम लो, ध्यान का अभ्यास करो । सेठ जी ने प्रणाम किया…और बोले – बाबा आपकी कुछ सेवा ?… बाबा ने कहा .. नही तुम्हारा पैसा लेकर मैं अपना भजन तुम्हें नही दूँगा… हाँ सेठ जी ! सन्त या साधक, जिसका पैसा लेकर खाता है… उस साधक की साधना और उस सन्त का भजन और तप उसके पास चला जाता है जिसका पैसा सन्त और साधक ने खाया है… इसलिए सेठ जी ! आप स्वयं भजन कीजिये… और ये धन जो आपके पास है… इसे साधकों को न दीजिये… क्यों कि इस धन के कारण उनकी साधना और डिस्टर्ब हो जायेगी… आप को अपना धन कहीं लगाना ही है… तो वृन्दावन में या अपने क्षेत्र में , वृक्ष लगवाइये… ये सेवा है… ।
इतना बोल कर बाबा चुप हो गये ।
वो सेठ जी भी थोड़ी देर शान्त बैठे रहे… फिर प्रणाम करके चले गये… गाड़ियों का रेला भी उनके पीछे चला गया ।
गौरांगी ने कहा… बाबा ! अब लगता है साधना ठहर सी गयी है… कुछ नया अनुभव में नही आरहा… बस वही माला में भगवन् नाम का जप… वही ध्यान… वही सुमिरन… ।
बाबा ने कहा… अब तुम लोग इत्र की दुकान में बैठ गये हो ना…तो तुम्हें अब जो इत्र की सुगन्ध है वो सुगन्ध मालूम नही हो रही… पर तुम्हारे पास से जो गुजरेगा उसे समझ में आएगा कि यहाँ तो सुगन्ध है… यहाँ तो खुशबु है..। तुम्हें जो अनुभव हो रहा है… ये स्वाभाविक ही है…गौरांगी ! याद रहे ..ये मन है ना… ये जल्दी बोर हो जाता है… इसकी ये आदत ही है… इसलिए मन को समझते हुये अपनी साधना को बढ़ाते रहो ।
नही नही… ऐसा मत सोचो कि तुम्हारे में वह ऊर्जा , जो पहले तुम्हें महसूस होती थी अब नही है… बाबा बोले बढ़ेगी… पर अभी तुम्हें पता नही चल रहा…क्यों कि उतने ऊर्जा में ही तुम हो… अब जब ऊर्जा बढ़ेगी तब तुम्हें महसूस होगी… हाँ दूसरे व्यक्ति को अनुभव में आएगा कि ये साधक ऊर्जावान है .। बाबा बोले… चिन्ता मत करो…तुम लोग ठीक जा रहे हो… बस मन के प्रति सावधान… ध्यान, चिंतन, नाम जप… और सन्तों के चरित्रों का पठन, ये करते रहो । गौरांगी ने कहा… बाबा एक बात पूछूँ ?
…बाबा ने हंसकर कहा…क्या बात है ?
…गौरांगी ने कहा… बाबा ! श्री मीरा बाई और श्री नरसी मेहता… इन महापुरुषों जैसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ेगा ?
…बाबा सहजता से बोले… ये प्रेम का मार्ग है बहुत सरल है… बस 24 घण्टों में 12 घण्टे जब चिंतन अपने इष्ट का होने लग जाए… बस समझ लेना उसी अवस्था में पहुँच गये , सिद्धावस्था में… 12 घण्टे अन्तःकरण की इष्टाकार वृत्ति हो जाए…बस यही तो है लक्ष्य… इसके बाद तो प्रत्यक्ष दर्शन ही हैं… साक्षात् दर्शन ।
“अखियाँ हरि दर्शन की प्यासी
देख्यो चाहत कमल नयन को निशि दिन रहत उदासी”
गौरांगी ने ये पद अपने हाथों में वीणा लेकर
सुनाया…
Harisharan


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