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June 13, 2025 8:53 am

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श्री सीताराम शरणम् मम 139 भाग 3″ श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा -97″, (साधकों के लिए)भाग- 18 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शकअध्यात्म पथ प्रदर्शक : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🌺भाग >>>>>>1️⃣3️⃣9️⃣🌺
*मै जनक नंदिनी ,,,*
भाग 3

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

आपके साथ अयोध्या जाना ………..विभीषण नें उत्तर दिया ।

पर ! मैनें अपनें प्रभु के मुखारविन्द में देखा ।

सब जा रहे हैं ………हनुमान सुग्रीव अंगद जामवन्त और ये विभीषण भी ……….वैदेही ! तुम अपना राज्याभिषेक अपनी सखी को नही दिखाओगी ?

मैं प्रसन्न हो गयी थी ……………….मैने विभीषण की ओर देखा ……वो तुरन्त भागे अपनें महल की ओर ।

जब लौटकर आये तब वो बहुत प्रसन्न थे ………कह रहे थे अगर आप उन्हें अपनें साथ नही ले आजातीं तो त्रिजटा मर ही जाती ।

वो अब बहुत प्रसन्न है …………वो तैयारी में लगी है अयोध्या जानें की तैयारी में………और वो अभी अपनें राजकोष में गयी है …..आपके लिये सबसे बहुमूल्य हार खोज रही है …………वो कह रही है जब आप महारानी बनकर सिंहासन में विराजोगी ……तब वह आपको अपनी तरफ से वही माला भेंट में देगी ………………।

विभीषण भी ये कहते हुये भाव में डूब गए थे ………….

आपनें हमारी पुत्री त्रिजटा को और पत्नी को अपनी सखी बनाया ………हमारा कुल धन्य हो गया है ………………।

विभीषण ! मेरे श्रीराम नें विभीषण को फिर अपनें पास बुलाया ।

मेरा मन , मेरी बुद्धि, मेरा चित्त सब कुछ “भरत” में लगा हुआ है……मुझे डर है कि कहीं वो अपनें प्राण न त्याग दे…….इसलिये जितनी जल्दी हो सके अब हमें विदा करो ।

विभीषण तुरन्त उठे ……………उधर से त्रिजटा आगयी थी अत्यंत खुश थी वो …………सीधे मेरे हृदय से लग गयी ……………..

विमान में सब बैठनें लगे……….मध्य में दिव्य सिंहासन था …….उसमें मेरे प्रभु और मैं …….हम दोनों बैठे थे ।

हमारे पीछे लक्ष्मण और हनुमान चँवर लेकर ढुरा रहे थे ।

जय रघुवीर , जय जय रघुवीर …..जय रघुवीर , जय जय रघुवीर ।

जब विमान चल पड़ा …………..तब लंका वासी और वानर सेना सब जयजयकार करनें लगे थे …………।

ऊपर से विभीषण नें रत्नों और मणियों की वर्षा कर दी थी ।

मैं आनन्द से अपनें प्राणधन के साथ बैठी अत्यन्त सुख का अनुभव कर रही थी ।

शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-97”

( गोपाल कृष्णम् भजे )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल …….

हे बृजराज भैया ! कल मोकूँ पकड़ लियौ कन्हैया ने और बलभद्र ने …..उपनंद सभा में बृजराज बाबा कूँ बता रहे ।

कन्हैया ने कहा कही तुमते ? पूछ्यो बृजराज ने ।

उपनंद बोले …..कही ही नही ..प्रार्थना के स्वर में कही ….मोते कन्हैया ने हाथ जोड़ते भए कही ….चाचा ! अब हम दोनों भैया गौअन की सेवा करनौं चाहें । हे बृजराज भैया ! कन्हैया के स्वर में तौ अत्यन्त दीनता भरी ही …..वो आगे बोल्यो – चाचा ! अब हम किशोर अवस्था कूँ पार कर चुके हैं या लिए अब हमें अपने काम पे लग जानौं चहिए । बृजराज बाबा ने जब उपनन्द की बात सुनी तब बाबा मुस्कुराए ….मन ही मन गदगद है रहे कि मेरे राम श्याम अब बड़े है गए हैं । गर्व ते वक्ष फैल गयौ है बृजराज बाबा के …कि मेरौ लाला अब मेरे काम कूँ सम्भालेगौ ।

लेकिन अभी तौ छोटौ है कन्हैया …….बृजराज बाबा ने कही ।

तब सभा में उपस्थित समस्त गोप समुदाय बोल उठ्यो…..कि हे बृजराज ! तुम्हारौ लाला तौ अनेक दैवीय शक्तिन ते भर्यो भयौ है …..हमने तौ अनुभव किए हैं ……गोप लोग बृजराज बाबा कूँ कहवे लगे …..बृजराज सबकी बातन कूँ सुन रहे हैं ……हाँ , देखवे में ही अत्यंत सुकुमार लगे कन्हैया किन्तु बलन कौ बली …वीरन कौ वीर है…..तभी दूसरौ गोप बोल उठ्यो …मात्र वीर ही नही हैं तुम्हारौ लाला …..बुद्धिमान हूँ है ….और हे बृजराज ! तुम्हारे बालक के बुद्धि कौ विकास अन्य सामान्य बालकन की तरह नही भयौ है …..क्रम में विकास नही भयौ ….विलक्षण बुद्धि अपने आप प्राप्त है गयी तुम्हारे बालक कूँ । अपने लाला की प्रशंसा सुनके बृजराज बाबा मन ही मन तौ बहुत प्रसन्न भए …..लेकिन फिर सोची बाबा ने , अपने पुत्र की प्रशंसा अधिक सुननौं उचित नही है …..या लिए बृजराज बोले ….तौ कन्हैया गौ चारण कूँ जाए ? सब ने करतल ध्वनि ते या बात कौ समर्थन कीयौ ……अब कन्हैया गोपाल बनवे की तैयारी में हैं ।


बृजराज बाबा ने दूसरे दिन ही मेरी माता जी पौर्णमासी और ऋषि शांडिल्य कूँ बुलायौ …अपनी सभा में ही बुलायौ ….और सबके सामने हाथ जोड़के प्रार्थना करी कि हे ऋषिवर ! मेरे लाला के गौचारण कौ मुहूर्त निकाल देओ । जे सुनते ही मेरी माता जी बड़ी प्रसन्न भईं और ऋषि ने तुरन्त मुहूर्त निकाल दियौ । मुहूर्त – कार्तिक शुक्ल अष्टमी ।

नन्दकुल चन्द्र की जय …….
गोपाल कृष्ण की जय …..
रोहिणी नन्दन की जय …..

आहा ! आज अलग ही शृंगार है कन्हैया कौ ….पूरे गोपाल बन गए हैं ।

अन्तरिक्षचारी देवता खड़े हैं और नन्द नन्दन कौ रूप देखके मोहित है गए हैं ।

एक काली कमरिया काँधे में डाल लियौ है ….हाथ में लकुट हूँ है ।

कन्हैया और बलभद्र कौ हाथ पकड़ के बृजराज बाबा गौअन के निकट लै गए हैं …..चारों ओर गोप गोपी की भीर है ….सब अपलक गोपाल बन रहे कन्हैया कूँ निहार रहे हैं । कन्हैया गए और सबते प्रथम …गौअन की पूजा करी । तिलक लगायो ….गुड़ खिलायो ….ब्राह्मण स्वस्तिवाचन कर रहे हैं ….शंख ध्वनि है रही है …गोपियाँ मंगल गान कर रही हैं ।

गोप भेष में कन्हैया और बलभद्र सुन्दरातिसुन्दर लग रहे हैं ……..

चिरंजीव कन्हैया ! सब गोप चिल्ला उठे । जितौ रे लाला ! सब बोलवे लगे ।

मैया यशोदा के नेत्रन ते तब अश्रु बह चले जब सबकूँ प्रणाम करते भए कन्हैया ने अपने मैया यशोदा के पाँव छूये । तब मैया के अश्रु बह चले …….मैया ने अपने गोपाल कूँ उठाय के हृदय ते लगाय लियौ है ।

“गोपाल कृष्णम् भजे”……..देवता लोग यही कहके प्रणाम कर रहे हैं ।

क्रमशः……
Hari sharan
Niru Ashra: ( सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-18

प्रिय ! संगहिं ते गून ऊपजे, संगहिं ते गुन जाए…
(सन्त वाणी )

मित्रों ! आज प्रातः की अद्भुत वेला है
…क्यों कि बाबा के कुँज में आज कई मोर
एक साथ आगये हैं… और उनकी मधुर ध्वनि से
कुञ्ज गुँजित हो रहा है । आँखें बन्द हैं
…दो दिन से मेरा मन कुछ चंचलता से भर गया
है… संग भी ठीक है… आहार विहार भी ठीक
है… फिर क्या कारण है ? मैंने आज बाबा
से नही पूछा , मैंने स्वयं ही प्रयोग किया कि
कारण क्या है मन की चाँचल्यता का… फिर आज
मैंने पूरे 2 घण्टे आँखें बन्द करके ही सत्संग
का आनंद लिया मन शान्त हो गया ।
मित्रों ! महाकवि श्री सूरदास जी की कल एक
व्यक्ति आलोचना कर रहा था… कि श्री सूरदास
जी को आँखें फोड़ने की क्या जरूरत थी… अरे !
श्री सूरदास जी को क्या इतना भी नही पता कि मन
का मुख्य खेल है… आँखें फोड़ने से क्या होता
है ?… मैंने उन सज्जन से कहा ..था
…मन की चंचलता… और विषय की ओर मन का
लगना… इसका कारण आँखें भी हैं… आप
जैसा देखते हैं… आपका मन वैसा हो जाता है
…आप निगाह में अगर तीव्र फड़काऊ ड्रेस
को पहनने वाली किसी कामुक लड़की को रखेंगे
…या अपनी आँखों से उसे देखेंगे… तो मन
खराब होगा ही…यही बात स्त्री के ऊपर भी
लागू है… । आँखें मुख्य हैं…ये जितनी चंचल होंगी…उतनी ही मन की चंचलता बढ़ाएंगी… क्यों कि ये देखती है…और मन उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता है …फिर मन ने बुद्धि को अपने वश में किया
है… मन तुम्हारी बुद्धि को चला रहा है
…मन मालिक बन बैठा है… फिर बुद्धि
जब मन की कही बात पर चलने लग जाती है… तब
वह सारी बातें चित्त पर अंकित होने लग जाती
हैं… और वही अंकित ही हमें पाप और पुण्य
में धकेलती रहती है… कभी नर्क में कभी
स्वर्ग में… ।

मैं आज आँखें बन्द करके बैठा हूँ सत्संग में
…और इससे मुझे लाभ भी हुआ… मेरा मन
शान्त होकर सत्संग का रस लेता रहा… क्यों कि
भटकने के लिए उसे कुछ मिला नही… और भीतर के विचारों को शान्त मेरे द्वारा चल रही माला
में जो मैं भगवन् नाम जप रहा था… उससे विचार
शान्त होते जा रहे थे ।
बाबा बोल रहे थे –

*देखो ! ये मन कुछ भी करने को तैयार हो जाएगा
…ये मन योग, प्रणायाम, धारणा… ध्यान
समाधी… तीर्थ व्रत… तपस्या सब करने को
तैयार हो जाएगा… पर इस मन को बोलो… एक
घण्टा शांति से बैठकर नाम जपो… नही
मानेगा… बाबा बोले… करके देख लो
…बहुत उछलकूद मचायेगा… क्यों ?
क्यों कि भगवान का नाम… मन को मारता है
…भगवन् नाम का ये काम ही है सबसे पहले मन
पर अटैक करना । बाबा बोले… तुम लोग कर रहे
हो ना नाम जप ?… तुम लोगों को तो
अनुभव होगा… ये मन नाम जप नही करना चाहता
…। बाबा आज रहस्यमयी बातें बता रहे थे
…बाबा बोले – देखो ! मन का स्वभाव है
…कुछ करना… या करते रहना… बाबा
सहजता में हँसे और बोले – ये मन वो भूत
है…जो बिना काम के रह ही नही सकता… और
बिना काम के रह गया तो तुम्हें इतना परेशान कर
देगा… विचारों के जाल में फंस जाओगे ।
और फिर तुम लोगों के साथ दिक्कत ये है कि
तुम्हारी बुद्धि , मन के कहे पर चलती है
…तुम्हारा “मन” मालिक है… जैसा जैसा
“मन” बोलता है… बेचारी बुद्धि वही करती है
…बाबा बोले – इसका उपाय यही है कि
अपनी बुद्धि को मालिक बनाओ… और मन को
बुद्धि के अनुसार चलाओ… “मन के अनुसार
बुद्धि नही बुद्धि के अनुसार मन” । बाबा
बोले… पर एक बात ध्यान देने की है कि जिस
बुद्धि को तुमने मालिक बनाने का फैसला कर लिया
है तो अब अच्छा संग बुद्धि को दो
…”सत्संग” को बुद्धि की खुराक बनाओ
…अच्छे का संग करो… सन्तों का संग
करो… । एक साधक ने बाबा से पूछा बाबा –
सन्त का अभिप्राय ? उस पूछने वाले ने कहा
…बाबा ! कल क्या हुआ कि मैं जा रहा था
..एक वेदान्ती महात्मा मिले… मैंने उन्हें
प्रणाम किया तो वो बोले… क्या करते हो ?
…मैंने कहा… सत्संग और साधना । वो
बोले… ये तुम्हारे हाथ में क्या है ?
…मैंने कहा – माला है… और इसमें मैं
भगवान के नाम का निरन्तर जप करता हूँ
…उन्होंने कहा… ये सब करने से कुछ
नही होता… तुम आत्म चिंतन करो…ये जप ,
बेकार है । वो साधक बोला… बाबा !
मैंने उन्हें प्रणाम किया और बड़े प्रेम से कहा
…अब मैं आपके पास कभी नही आऊँगा… उन्होंने कहा
…क्यों ?
मैंने कहा… मेरी साधना में विघ्न हो रहा है
…मेरा मन चलायमान हो रहा है…इसलिए मैं
आपसे अब कभी नही मिलूँगा ।
बाबा बोले ! वो महात्मा तो यमुना जी के
किनारे बैठे रहते हैं… हाँ बाबा वही हैं
…हाँ… ठीक बोले तुम… उन महात्मा की
वृत्ति और उन महात्मा का अन्तःकरण पूर्ण
वेदांतमय हो गया है । अच्छे हैं वो महात्मा
…पर तुमने ठीक कहा… उनका अच्छा होना
हमारे लिए काफी नही है ना… हमें तो हमारी
साधना को बढ़ाने वाला मित्र या महात्मा चाहिए
…। बाबा बोले… देखो ! एक बात कहता हूँ
…सन्त कहकर , महात्मा कहकर किसी का भी
संग करो… नही । हो सकता है… वो
महात्मा “योग” के मार्ग का हो… और तुम इस
“प्रेम साधना” के पथिक हो… अब ऐसी स्थिति
में अगर तुम्हें कोई “योग” का महात्मा मिल जाए
…और तुम उसका संग करो… तो साधना बिगड़
जायेगी… । क्यों कि तुम थे प्रेम
मार्ग के… और वो है… योग मार्ग का ।
… पर बाबा सब तो एक ही हैं
…सारे मार्ग तो वहीं जाते हैं… नही बाबा ?
…बाबा थोड़ी तेज़ आवाज में बोले
…तुम्हें राजनीति करनी है ?…बोलो ?
तुम्हें नेता बनना है ?… कि तुम्हें अपनी
साधना देखनी है ?… अरे ये समन्वय की बात जो
नेता लोग है… उन्हें करने दो !… तुम तो
अपनी साधना देखो !… सीधी सादी बात है
मार्ग सारे अच्छे हैं… कोई खराब मार्ग नही
है… पर तुम जिस मार्ग पर निकल चुके हो
…और आगे भी बढ़ चुके हो… अब अगर किसी और मार्ग के साधु की ऊर्जा ने तुम्हें अपनी
ओर खींचा ( बाबा बोले – ये खींचना उन महात्मा
के द्वारा नही भी हो सकता है , पर उनकी साधना की ऊर्जा तुम्हें खींच सकती है)
तो फिर तुम न इधर के रहे , न उधर के ।
इसलिए ये बात ध्यान रहे… जो तुम्हारे
मार्ग का साधु नही है… उसको प्रणाम करो
…वन्दन करो… भगवत् बुद्धि रखकर उन्हें
नमन करो… पर उनका सत्संग मत करो
…बाबा बोले… ये बात तुम्हें हो सकता
है अच्छी न लगे… पर साधना के पथ पर चले
हो तो मन के प्रति सावधान शुरू में रहना ही
पड़ेगा । बाबा बोले… ऐसा नही है कि
तुम्हें इसी तरह ही जीवन भर रहना है…नही
…ये तो उस समय तक के लिए है कि जब तक ये
साधना का पौधा बड़ा न हो जाए… ये उस समय तक के लिए जब तक जो पौधा तुमने लगाया है
…उसे कहीं कोई बकरी आकर चर न जाए
…इसलिए ये बाड़ लगाना जरूरी है… साधना
के प्रारम्भिक अवस्था में… क्यों कि साधना
का पौधा अभी बहुत छोटा है… और आजकल बहुत लोग ऐसे भी हैं जो इसी फ़िराक में रहते हैं कि
इसे साधना से हटा दें… । बाबा हँसे
…और बोले… अरे परिवार के लोगों को ही देखो
…पति दारू पीये पत्नी को कोई दिक्कत नही
है… पर पति अगर माला लेकर भजन करे तो
दिक्कत है… पति अगर गलत काम करे तो कोई
बात नही… पर पति अगर साधुओं के पास जाए
तो दिक्कत है ।
बाबा बोले… चारों ओर से बकरियां लग जाती
हैं… उस पौधे को खाने के लिए… इसलिए
ये बाड़ लगाना जरूरी है । बाबा हँसते हुये बोले
…बाद में तो तुम शराबियों के साथ में भी
बैठो तो भी कोई फ़र्क नही पड़ सकता तुम्हारे मन
में… क्यों कि अब वह साधना का पौधा बड़ा
ही नही… एक विशाल वृक्ष बन गया है ।
बाबा बोले… इसलिए अभी तुम लोगों की
प्रारम्भिक अवस्था है… इसलिये संग करो तो
ऐसे का करो… जो तुम्हारी साधना को बढ़ाए
…तुम्हारी साधना को बिगाड़ दे
…तुम्हारे भाव को बदल दे… ऐसे व्यक्ति
का संग बिलकुल मत करो… चाहे वह कितना भी बड़ा सिद्ध क्यों न हो… और अगर तुम्हारी साधना
ऐसे व्यक्ति के संग से बढ़ती है… जो जीन्स
पहना हुआ है… तो जीन्स वाले का ही संग करो
…क्यों कि अभी हमें अपने इस साधना के
नन्हें पौधे को बचाना है ।…इतना बोलकर बाबा
चुप हो गये । मेरा मन आज शान्त हो गया था
…अब मैंने अपनी आँखें खोलीं और सोचा
दृष्टि को भी बचाना पड़ेगा साधक को । हाँ
शुरुआत में ये सब अत्यंत आवश्यक हैं…बाबा
सही कहते हैं ।
तभी एक मोर बाबा के सामने आगया… बाबा
गौरांगी की ओर देखे… गौरांगी उठी और दाने
लेकर आयी… बाबा ने बड़े प्रेम से अपने हाथों
से दाने खिलाये उस समय का माहौल इतना
प्रेमपूर्ण हो गया था कि मैं उस का वर्णन नही कर
सकता ।

“नैनन में रसना नही… नही रसना में नैन”

Harisharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ५*

               *🤝 २. व्यवहार 🤝*

              _*धन साधन है या साध्य*_ 

   बृहस्पतिस्मृति में एक श्लोक है-
   *आदरेण  यथा  स्तौति   धनवन्तं   धनेच्छया।*
   *तथा चेद् विश्वकर्तारं को न मुच्येत बन्धनात्॥*

   'धन की इच्छा से मनुष्य जैसे आदर और विवेक से धनवान् की सेवा-स्तुति करता है, वैसे ही ईश्वर-प्राप्ति की इच्छा से विश्वरचयिता भगवान् की सेवा करे तो जन्ममृत्यु के बन्धन से छूट जाय।' *श्रीभर्तृहरि* ने एक प्रसंग में कहा है-

‘न रम्यं नारम्यं प्रकृतिगुणतो वस्तु किमपि।’

   अर्थात् *'जगत् में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो स्वभाव से ही अच्छी या बुरी हो।'* अच्छी-बुरी वस्तु बनती है उसके उपयोग के अनुसार। अणुशक्ति से लोकसुख के कार्य भी हो सकते हैं और अणुबम से निरीह लाखों प्राणी मारे भी जाते हैं। साँप दूध पीता है तो उससे जहर पैदा होता है और वह मनुष्यों के प्राण हरता है। वही दूध एक बालक को पिलाया जाय तो उससे बालक के शरीर का गठन होता है। इसी प्रकार धन स्वभाव से बुरा नहीं है, उसका दुरुपयोग ही उसे बुरा बनाता है और उसी से मनुष्य का अध:पतन होता है। यदि सदुपयोग होता है तो उससे मनुष्य की उन्नति होती है। धन का उपयोग जहाँतक साधन के रूप में होता है, वहाँतक वह हानिकारक नहीं होता, पर यदि धन को साधन के बदले साध्य के सिंहासन पर बैठा दिया जाता है तो वह निश्चय ही मनुष्य का पतन कराता है।

   यह बात तो सर्वसम्मत है कि मनुष्य-जीवन का ध्येय भगवत्प्राप्ति है; क्योंकि दूसरे किसी भी शरीर में भगवत्प्राप्ति की योग्यता नहीं है, जबकि विषय-सुख तो चौरासी लाख योनियों में अपने-आप मिल जाता है। अतएव भगवत्प्राप्ति को ही जीवन का ध्येय मानकर जीवन-निर्वाह के साधन के तौर पर न्याय और धर्म के अनुसार धन कमाना बुरा नहीं है, वरं कमाना अत्यन्त आवश्यक है। पहले भी और आज भी धन के बिना जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता। इसी से अर्थ को भी एक पुरुषार्थ बताया गया है। जो मनुष्य अपना निर्वाह भी नहीं कर सकता, वह दूसरों की सहायता कैसे कर सकता है? अपना निर्वाह करते हुए दूसरे की सहायता करना-यह भी जीवन का एक बड़ा लाभ है। एक श्लोक है-

भिक्षुका नैव भिक्षन्ति बोधयन्ति गृहे गृहे।
दीयतां दीयतां लोका अदातुः फलमीदृशम्॥

   भावार्थ यह कि - भीख माँगनेवाले भीख नहीं माँगते, वे तो घर-घर यह शिक्षा देते हैं कि भाई ! दान करो, दान करो, इस जन्म में दान न करोगे तो इस समय जैसी हमारी स्थिति है, वैसी ही तुम्हारी होगी। इस चातुर्मास में नहीं बोओगे तो वर्षभर क्या खाओगे? हम लोगों ने पूर्वजन्म में दान नहीं किया, इसीसे आज भीख माँग रहे हैं इस प्रत्यक्ष उदाहरण से शिक्षा ग्रहण करो।

   क्रमशः.......✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
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Author: admin

Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877

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