[09/06, 19:33] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🌺भाग>>>>>>>1️⃣4️⃣0️⃣🌺
*मै जनक नंदिनी ,,,*भाग 1
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
पुष्पक विमान उड़ रहा था अपनी गति से …………..
वैदेही ! ये देखो ! यहाँ कुम्भकर्ण का वध किया है …….
मेरे श्रीराम बोले ।
मैं देखनें लगी……..ये गड्डा जो बना है ना …….ये कुम्भकर्ण के धड़ के कारण है…….वो इतना महाकाय था……..।
मैं हँसी…….तो मेरे श्रीराम प्रसन्न हुए ……और बोले …….नही कुम्भकर्ण के हाथ पैर मैने पहले ही काट दिए थे …..मात्र धड़ के कारण ये गड्डा हुआ है ।
और यहाँ मेघनाद……….लक्ष्मण नें पीछे से कहा ।
मैने पीछे मुड़कर देखा तो हाथ जोड़कर नजरें झुकाकर लक्ष्मण बोल रहे थे………..।
लक्ष्मण को देखकर मुझे पंचवटी की बात याद आगयी ……..मैने कितना भला बुरा कहा था इन्हें ……..ओह !
मैं क्षमा माँगना चाह रही थी ……..पर लक्ष्मण की स्थित देखकर मुझे उन्हें और संकोच में डालना अच्छा नही लगा ।
हनुमान नें कहा …….यहाँ रावण का वध किया था प्रभु नें ।
तभी…..एकाएक आँधी चल पड़ी ……..भयानक आँधी…….वृक्ष क्या पर्वत भी उड़ रहे थे उस आँधी में ……..।
पुष्पक विमान पर कोई असर नही होता …….किसी का ……..पर पुष्पक विमान भी इस आँधी के कारण अपना सन्तुलन खोनें लगा था ।
विभीषण की ओर मेरे श्रीराम नें देखा ……………..विभीषण के भी समझ में नही आया – कि ये हो क्या रहा है ।
आकाश में उड़ता हुआ एक वज्र आया ………..और वो सीधे हनुमान के ही लगा ……………ओह ! हनुमान मूर्छित हो गए ………..
मेरे श्रीराम उठे …….और अपनें सारंग धनुष में बाण लगाकर छोड़नें वाले थे कि…………उनके बाण को ही काट दिया उधर से ।
ये कौन है ? मैं परेशान हो उठी …………………..
“महारावण” त्रिजटा बोली ।
महारावण ? ये प्रश्न सबके मुँह से निकला ।
हाँ ……….ये क्षेत्र उसी का है …………………त्रिजटा बोल रही थी और हम सब उसकी बातें ध्यान से सुन रहे थे ।
लंकापति रावण …….हे श्रीराम ! आप जिसका वध करके आरहे हैं …..वैसे रावण जैसे तो इसके यहाँ अनेक हैं …….इसके सेवक ही लंकेश रावण से भी शक्तिशाली हैं ………।
क्रमशः…..
शेष चरित्र कल ………….!!!!
🌷जय श्री राम 🌷
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-98”
( हम सबकौ प्यारौ गोपाल )
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल …….
मैं जब काशी में रहतौ ….तब भगवान विश्वनाथ कौ एक नाम मोकूँ बड़ौ ही प्रिय लगतौ ….वो नाम है …पशुपति । अच्छा ! मेरे अनादि सखा कौ ही एक नाम है ….गोपाल । अब पशुपति और गोपाल इन दो नामन के अर्थ कौ अनुसन्धान करौ । का तुमकूँ दोनों ही नाम एक से नही लगें ? अब पशुपति कहो या गो पालक …अर्थ एक ही है ।
मैं देखूँ अपने गोपाल कूँ तब मोकूँ बड़ौ ही आनन्द आवै …वन में गौ चरातौ भयौ ये नील सुन्दर कितनौं सुन्दर लगे । जे अपनी गैयन ते कितनौं प्रेम करे है । और यही प्रेम नही करे गैया हूँ बहुत करे ।
मैं जब जब गोपाल की जे झाँकी कूँ देखूँ …….
गौचारण में है कन्हैया …..गैया याकूँ छोड़ें नही हैं ….जे जहां होयगौ …गैया वहीं चली जायेंगी ……और याकूँ घेर लिंगी । घेरके याकूँ अपलक निहारेंगी । गोपाल इनके शरीर में अपने कर कमल फेरेगौ तब तौ गैयन के आनन्द कौ कोई ठीकानौं नही रहे है । इतनी आनन्दित है जायें गौएं कि अपने बछड़ा कूँ छोड़ के अपने पालक गोपाल कूँ ही चाटनौं शुरू कर देय है ।
या झाँकी कौ दर्शन अन्तरिक्षचारी अमर देव वृन्द कर रहे हैं ……पशु है कै हूँ श्रीकृष्ण चरणन में इनकी ऐसी अद्भुत प्रीति ! देवता लोग गैयन के भाग कूँ सराह रहे हैं ..और अपने ते हूँ बृज के पशुन की महिमा अधिक बताय रहे हैं । जय हो , जय हो गोपाल की”……देवता पुष्प बरसा रहे हैं ।
धन्य है जे श्रीवृन्दावन …..और धन्य हैं याके पशु पक्षी गुल्म लता आदि ।
अब देखौ साँझ है वै में आयी है ….गैया वैसे कन्हैया कूँ छोड़े कहाँ हैं …..लेकिन लोभ कन्हैया ते दूर कर देय है । ( मधुमंगल यहाँ कहें…) साँझ की वेला है गयी ….अब गैया घेरनौं है …..तौ कहा करें ……..तौ कन्हैया ने वेणुनाद आरम्भ कीयौ । और वेणु में गैयन कौ नाम लै लै कै बुला रहे हैं …….गौरी ! तू कहाँ है ? जल्दी आ …..फिर दूसरी गाय कौ नाम पुकारवे लगे ……गंगा ! फिर तीसरी धौरी ! धूमरी ! गौरी ! अब …कन्हैया पुकारे और गैया न आवै जे है सके का ?
गैया भागीं ….अपने गोपाल की ओर । हजारन गौयें ….सब दौड़ पड़ीं , घास चर रहीं हीं …वेणु नाद सुन्यो …..लेकिन कन्हैया के आगे सब व्यर्थ है ….ऐसा चिंतन करती हुई दौड़ पड़ीं ।
वैसे एक बात मैं आप सबकूँ बताय रह्यो हूँ ।
जब कन्हैया श्रीवन में पहुँचे है अपनी गैयन कूँ लेय के …..तब गैया कन्हैया कूँ घेर लें ……कोई भी गैया कन्हैया कूँ छोड़ के नही जाएगी …..कोई नही जातीं । लेकिन हाँ ….कोई कोई चली जाती हैं ….हरे हरे और कोमल दूब देखकर । यही माया का प्रलोभन है …..हमारे सामने भगवान हैं …लेकिन हम उन्हें देख नही पा रहे …..ये माया का प्रभाव होता है …..माया ही खींच कर जीव को भगवान से दूर लै जाती है । मैं तौ यही देख रहा हूँ ……कन्हैया कूँ छोड़ के कोई कैसे दूर जा सके है ? लेकिन जा सके है , अधिकतर लोग जा ही रहे हैं कन्हैया कूँ छोड़ के ।
लेकिन करुणा देखो यहाँ गोपाल की …..हमने छोड़ दियौ हैं भगवान कूँ ….और अपने स्वार्थ के ताईं छोड़ो है । गैया चली गयीं कन्हैया ते दूर । क्यों गयी ? लोभ के कारण । हरे हरे दूब के कारण …..अजी ! यही तौ माया है । लेकिन देखौ …..कन्हैया कूँ जीव छोड़ देय ….लेकिन जीव कूँ कन्हैया नही छोड़े है । जीव भाग जाए दूर …लेकिन कन्हैया फिर सारी ग़लतियाँ भुलाय के जीव कूँ अपने पास बुलाय ले है । नही मानें आनौं तौ कन्हैया पकड़ के लै आवै । लकुट कौ डर दिखाय के लै आवै । कितनी करुणा है या छोटे से गोपाल में । जा कूँ पकड़ लेय बाकूँ छोड़ें नही है । याही लिए तौ जे गोपाल मात्र गैयन कौ पालक नही है …हमारी इंद्रियन कौ हूँ पालक है ……हमारी इंद्रियाँ जब भटकें इधर उधर …तब यही गोपाल है जो हमारी इंद्रियन कूँ अपनी ओर बड़े प्रेम ते खींचे है । फिर सम्भाल करे है ।
कहाँ भटक रहे हो …..इधर उधर कहाँ जा रहे हो …..देखो ! तुम्हारा पालक तौ ये रहा ।
मै तौ आनंदित हूँ ……मैं तौ अपने गोपाल के संग हूँ …..गोपाल के संग हूँ या लिए मोकूँ कोई डर नही है ….काहूँ तै डर नही है ।
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-19
प्रिय ! जगत में सन्त परम सुखदायी…
( गो. श्री तुलसी दास जी )
मित्रों ! कल सत्संग-साधना से सीधे मैं यमुना
जी के दर्शन करने गया…तो उस समय मेरे आंनद
की कोई सीमा नही रही… जब मैंने उन सिद्ध महात्मा
जी के दर्शन किये… जिन्होंने मुझे कई
महीनों पहले मानसिक ध्यान की शिक्षा दी
थी…वो एक घने वट वृक्ष के नीचे बैठे थे
…और ध्यान में लीन थे…उन्हें देह सुध
नही थी…उनकी अन्तःकरण की वृत्ति इष्टाकार हो
गयी थी…। मैंने अपने साथ के साधक को भेज
दिया, और यही कहा मैं एक दो घण्टे में
आजाऊंगा मेरे घर में बोल देना…फोन मेरे पास
है नही ।
उनमें एक अद्भुत ऊर्जा थी…मैं उनके ही साथ
ध्यान में लीन हो गया… क़रीब एक घण्टे में
ध्यान उन महात्मा जी का पूरा हुआ… मुझे
उन्होंने देखा तो गम्भीर ही रहे । मुझ से
धीरे से पूछा कैसे आये हो ?… मैंने कहा
…भगवन् ! बस आपके दर्शन करने…वो थोड़ा
सा मुस्कुराये… फिर मौन । अब मैंने ही
अपनी बुद्धि की कुलबुलाहट खत्म करने की सोची
और महात्मा जी से मैंने अपनी कुछ जिज्ञासा रखी ।
महात्मन् ! साधक का मतलब क्या है ? उन्होंने
कहा… जो अपने अन्तःकरण को साधे वह साधक है ।
मैंने कहा ..भगवन् ! साधक के भी प्रकार
होते हैं ?… हाँ क्यों नही… कच्चे, और
पक्के… मैंने कहा… कौन कच्चे हैं और
कौन पक्के हैं… ?
चलो ! मेरी झोपड़ी में वही बैठकर चर्चा करेंगे
…फिर कुछ सोचकर बोले तुम्हारे पास समय तो
है ना ?… मैंने कहा… समय ही समय है
…आप की कृपा हो जाए बस ।
झोपड़ी में एक तरफ पानी का घड़ा रखा हुआ था
…उसके अलावा और कुछ नही था… कुशा का आसन था… और एक धोती सूख रही थी ।
वो उसी आसन में बैठे और एक और आसन मेरे लिए दिया हम दोनों बैठ गये आनंद से ।
- कच्चे साधक वो होते हैं… जो बोलना जानते हैं
…मात्र बातें बनाते हैं पर साधना करने के
नाम पर कहते हैं कि – हमारे करने से क्या होगा
जब वह चाहेगा तभी हो जाएगा ।
पर पक्के साधक वो होते हैं जो बोलते नही है
…करते हैं… मात्र बातें नही बनाते
साधना करते हैं… होगा तो उसके करने से
ही पर जब हम सांसारिक कर्म कर रहे हैं तो
भगवत् कर्म में डायलॉग क्यों ?
कच्चे साधक वो होते हैं जो उनके मन मुताबिक
बात कही जाए तो उसे ठीक मानते हैं… पर
थोड़ी भी उनके मन के मुताबिक चर्चा सत्संग में
नही हुयी… तो उनकी श्रद्धा गायब हो जाती है
…और तर्कों की झड़ी लग जाती है… पर पक्के
साधक वो होते हैं जो सन्त और गुरु जन जो कहते
हैं उसे वो विवेक से समझने का प्रयास करते हैं
…सीधे ज़िद्द नही करते कि ऐसा है ही नही
…और फिर अपने मन को उस सिद्धान्त के
अनुकूल बनाते हैं… न कि सिद्धान्त को मन
मुताबिक बनाना… बल्कि मन को सिद्धान्त के
अनुकूल बनाना ।
कच्चे साधक वो होते हैं… जो बात बात में
ये कहते हैं कि हम तो ख़ूब साधना करते हैं
…हम तो इतना भजन करते हैं… हम तो भगवान
की याद में रोते हैं… हमारा तो सबकुछ
उन्हीं का है… पर छोटी सी बात पर ही वो
भड़क जाते हैं और सारे अन्तःकरण की मलीन
वासनाएं प्रकट होने लग जाती हैं ।
पर सच्चे साधक तो वो होते हैं जो साधना करने
के बाद भी निरन्तर जप और ध्यान करने के बाद भी
ये कहते हैं कि, कहाँ ! हम जैसे लोगों से कहाँ
साधना होगी… हम कहाँ भक्ति और प्रेम को समझ
पायेंगे… जप तो बस नाटक के रूप में ही
करते हैं… लोगों को दिखाने के लिए, बाकी हम
तो नाना प्रकार के विषयों में फँसे हुये हैं ।
ये बात जब इन महात्मा जी के मुख से सुनी तो
मुझे अपने पागलबाबा की याद आगई… कल एक
बहुत बड़े सेठ जी आये थे… दिल्ली के थे
…किसी ने बता दिया होगा यहाँ पागलबाबा
रहते हैं… कुछ नही लेते… पैसा वैसा मत
ले जाना…तो वो आये थे… बाबा अपनी
निजानंद की मस्ती में बैठे थे… एक चित्रपट
लाये थे वो सेठ जी ..जिसमें श्री किशोरी जी से
ठाकुर जी मिल रहे हैं… एक हो रहे हैं
…ऐसा मधुर प्रेम…बाबा तो प्रेम मूर्ति हैं हीं… इस चित्रपट को देखते ही भावावेश में आगये… और थोड़ी ही देर में मूर्छित होकर गिर पड़े…अश्रु प्रवाहित हो रहे थे… तन मन की सुध नही थी । मैंने ही भगवान का चरणोदक पिलाया तब जाकर बाबा को थोड़ा होश आया था । सेठ जी को समझ में नही आया कि ये बाबा को क्या होगया ? मुझ से सेठ जी ने पूछा ये क्या हो गया था बाबा को ?… मैं कुछ बोलता उससे पहले ही बाबा बोल उठे… मुझे मिरगी है… मुझे मिरगी का रोग है इसलिए बीच बीच में ऐसा हो जाता है । वो सेठ जी तो चले गये… उनके जाने के बाद बाबा ने मुझ से कहा था…अपनी साधना अनधिकारीयों को नही बतानी चाहिए…वो समझ ही नही पायेगा…मैंने कहा… बाबा ! पर समझाना तो पड़ेगा ही ना… ऐसे मिरगी कहने से तो बाबा ! बात फैल जायेगी…और लोग सच में ही मिरगी मान लेंगे ।
बाबा सहजता में बोले… मानने दो… देखो ! साधक हो तो अपनी शर्त में जीयो… अपने अन्तःकरण को ध्यान में रखो… अपने अन्तःकरण को साधो… दुनिया को ढिढ़ोरा मत पीटो कि मैं बहुत बड़ा भक्त हूँ… ।
कच्चे साधक वो होते हैं… जो ख़ूब लंबा तिलक लगाएंगे… कपड़े बढ़िया बढ़िया पहनेंगे…भेष ऐसा बनाएंगे जैसे बहुत बड़े महापुरुष हैं… पर भीतर से दरिद्र होते हैं…जो कच्चे साधक होते हैं…वो साधना के नाम पर जीरो होते हैं… और दिखावे में अव्वल होते हैं… पर सच्चे साधक वो होते हैं जो बाहरी भेष में ध्यान नही देते… पर उनके भीतर एक साधना की आग होती है… सच्चे साधक वो होते हैं… जो बाहरी आवरण को ध्यान में ज्यादा नही रखते… बाहर कैसे भी हों… पर अपने अन्तःकरण के प्रति सदैव जागरूक रहते हैं… मन खराब न हो ..बुद्धि में विकृति न आये ।
पर जो कच्चे साधक हैं… उन्हें इन सबसे कोई मतलब नही होता… इनका एक ही काम रहता है कि “भगवत् कृपा से ही होगा” (ये इन कच्चे साधकों का बोलना ही होता है , नही तो हृदय से अगर ये ऐसा ही मान लें , तो बस उद्धार है) ऐसा बोल बोलकर इतने दुर्लभ जीवन को ऐसे ही बिता देते हैं… बातें बनाने से तो भगवत् प्राप्ति नही होगी ना ।… होगी तो कृपा से ही… पर तुम्हारी अपनी तड़फ़ भी तो होनी चाहिए… तुम्हारी चाह देखता है भगवान… वो महात्मा जी बड़े प्रेम से मुझे बता रहे थे… ।
कच्चे साधक वो होते हैं जो प्रमाद में रहते हैं… पर सच्चे साधक सदैव उत्साहित रहते हैं । कच्चे साधकों में उदासी सी छाई रहती है… पर सच्चे साधकों में एक आंनद और प्रसन्नता दिखाई देती है…उदासी इसलिए कि आंतरिक कुछ परिवर्तन हुआ नही है ना… पर सच्चे साधक सदैव प्रसन्न इसलिए रहते हैं कि उन्होंने अपने अन्तःकरण को जान लिया है… मन को कैसे कहाँ मोड़ना है… बुद्धि को कैसे विवेकवान बनाना है… और चित्त में कैसे भगवत् प्रेम को संग्रहित करना है… ।
वो मुझ से बोले… अब तुम देखो कि तुम किस कोटि में आते हो… कच्चे नही सच्चे साधक बनो…किसी को दिखाने के लिए नही… अपने अन्तःकरण की शुद्धि के लिए साधक बनो… फिर देखना तुम्हारे ऊपर भगवत् कृपा की वर्षा होगी मंगल ही मंगल होगा ।
मैं प्रणाम करके चल दिया…जनकपुर से मेरे प्रिय मित्र आये हैं ।
जनकपुर के मित्र ने मुझ से पूछा… आप पागलबाबा से इतना प्यार क्यों करते हैं क्या है इनमें… मैंने कहा… कुछ नही है इनमें… पर मुझे प्यार हो गया है… पर अब क्या करूँ मैं , हमारे हिन्दू धर्म में तलाक की परम्परा भी तो नही है । हम दोनों ख़ूब हँसे ।
“तुम्ही हो नैया तुम्ही खिवैया , तुम्ही हो बन्धु सखा तुम्ही हो”
Harisharan
] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ६*
*🤝 २. व्यवहार 🤝*
_*धन साधन है या साध्य*_
अब यह देखना है कि धन को यदि साध्य या जीवन का ध्येय मान लें तो वह किस प्रकार हानिकारक होता है! चित्तका ऐसा स्वभाव है कि वह जिस वस्तु का चिन्तन करता है, उसी आकार का बन जाता है। अतएव यदि धनको ही जीवन का ध्येय बना लेंगे तो जीवन का सारा समय धन के चिन्तन में ही जायगा और परिणाम में चित्त के ध्येयाकार बन जानेपर धन के सिवा दूसरी चीज अच्छी लगेगी ही नहीं। शास्त्र में कहा है-
जगल्लुब्धा धनमयं कामुकाः धनमयं कामुकाः कामिनीमयम्।
नारायणमयं धीराः पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥
भाव यह कि धन ही जिसका ध्येय है, वह जगत्-भर को एक धन-संग्रह के साधनरूप में देखता है, उसे धन के सिवा दूसरी दृष्टि ही नहीं है। कामी पुरुष जगत् को स्त्री-प्राप्ति के साधनरूप में देखता है। धीर-साधक पुरुष ईश्वर-प्राप्ति को जीवन का ध्येय बनाता है; इसलिये वह ज्ञान की आँखों से जगत् को नारायणरूप देखता है।
जब मनुष्य के सारे व्यापार–सारी चेष्टाएँ केवल धन की प्राप्ति के लिये ही होती हैं, तब उसका अध:पतन किस प्रकार होता है, इसको भगवान् ने गीता के दूसरे अध्याय में विशदरूप से समझाया है। वहाँ कहा है- मनुष्य जब धन को (मूल में 'विषय' शब्द है, पर मनुष्य धन की प्राप्ति इसीलिये करता है कि उससे भोग मिलते हैं) जीवन का ध्येय बनाता है, तब उसका चित्त हर समय धन का ही चिन्तन करता है। चिन्तन करते-करते उसी में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उसको प्राप्त करने की प्रबल कामना जाग उठती है, कामना में प्रतिरोध होनेपर अर्थात् इच्छित वस्तु की प्राप्ति में विघ्न आनेपर क्रोधाग्नि भभक उठती है, क्रोध से विवेक का नाश हो जानेपर कर्तव्याकर्तव्य का भान नहीं रहता। ऐसा होनेपर सारासार, धर्माधर्म या नीति-अनीति के विचार ही मन में नहीं आते। परिणाम में मनुष्य का मनुष्यत्व मिट जाता है और वह क्या बन जाता है-यह कहा नहीं जा सकता। उसे क्या कहना चाहिये- *'ते के न जानीमहे।'* यह बात समझ में नहीं आती-उसका सर्वनाश हो जाता है।
*समस्त पाप इस विषय-लालसा से ही होते हैं। यह विषयों की लालसा और विषयों की प्राप्ति के लिये धन की लालसा-धन इकट्ठा करने से नहीं मिटती। ज्यों-ज्यों धन का ढेर लगता जाता है, त्यों-ही-त्यों अधिक से अधिक प्राप्त करने की तृष्णा भी बढ़ती ही जाती है। धन से या विषय-भोग से किसी का मन भरा हो, ऐसा भूतकाल में भी कभी नहीं सुना गया, फिर आज के भोगपरायणकाल में तो ऐसा होगा ही कैसे?*
‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते।’
भगवान् ने कहा है लालसा को-कामना को तो मार ही डालना चाहिये। उसको मारे बिना अर्थात् वैराग्य के द्वारा उसका दमन किये बिना उसके बन्धन से छूटने का दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*


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