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August 2, 2025 2:17 am

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श्री सीताराम शरणम् मम 139 भाग 2″ श्रीकृष्णसखा’मधुमंगल’ की आत्मकथा -96″, (साधकों के लिए)भाग- 17 तथा अध्यात्म पथ प्रदर्शक – 4 : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🌺भाग >>>>>>1️⃣3️⃣9️⃣🌺
*मै जनक नंदिनी ,,,*
भाग 2

 *(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*

🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐

“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –

मैं वैदेही !

त्रिजटा नही दिखाई दे रही ? मैने विभीषण से पूछा ।

वो विमान को और सुसज्जित करनें में लगे थे ।

त्रिजटा कल से ही मूर्छित है ……………विभीषण बोले ।

क्या ! क्या त्रिजटा मूर्छित है ? पर क्यों ?

आप ही जानें ………वो पूर्ण आपकी भक्ता हो चुकी है ………विभीषण नें मुझे उत्तर दिया ।

क्यों परेशान हो उठी हो वैदेही ? मेरे श्रीराम नें मुझे उद्विग्न देखा तो पूछ लिया ।

वो त्रिजटा मूर्छित है ! मैने नाथ से कहा ।

देखो ! वो क्या चाहती हैं वैदेही !

आपके साथ अयोध्या जाना ………..विभीषण नें उत्तर दिया ।

पर ! मैनें अपनें प्रभु के मुखारविन्द में देखा ।

सब जा रहे हैं ………हनुमान सुग्रीव अंगद जामवन्त और ये विभीषण भी ……….वैदेही ! तुम अपना राज्याभिषेक अपनी सखी को नही दिखाओगी ?

मैं प्रसन्न हो गयी थी ……………….मैने विभीषण की ओर देखा ……वो तुरन्त भागे अपनें महल की ओर ।

क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!

🌹🌹 जय श्री राम 🌹🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-96”

( कौमारवय कौ अवसान )


कल तै आगै कौ प्रसंग –

मैं मधुमंगल …..

यहाँ तै कुमार अवस्था कन्हैया की पूरी भई ।

अब कन्हैया में किंचित संकोच कौ जागरण भयौ है …..पहले जहाँ कछु भी बोलनौं , चालनौं हो ….लेकिन अब स्वभाव में परिवर्तन है । अब बड़े लोगन के सामने कन्हैया संकोच करे हैं । कन्हैया के अंगन में हूँ परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं । वक्ष पहले की अपेक्षा अब कछु फैल गयौ हो …..वाणी में हूँ गम्भीरता आय गयी है । अंगन में पहले जो बाल्य कोमलता ही वो अब नही है …..नयन में चपलता तौ है …..लेकिन बड़े लोगन कूँ देखते ही नयन संकोच तै भर जामें ।

रोहिणी ! देख ना ….चार पाँच दिनान ते कन्हैया कछु बदलो सौ लग रह्यो है …मैया यशोदा ने रोहिणी ते आज प्रातः ही कही । चौं जीजी ! तुम कूँ ऐसौ काहे कूँ लग रह्यो है ? रोहिणी जी ने पूछ्यो । तौ सहज भाव तै मैया बोलीं …..रोहिणी ! चार पाँच दिनान ते मोकूँ लग रह्यो है कि …..मैया हँसीं …..फिर बोलीं …..पहले मैं नहालाती लेकिन आज कल कहे है कन्हैया …मैं स्वयं नहाय लुंगौ मैया ! मैंने कही …रहन दै लाला ! तू अभी छोटौ ही है ……लेकिन कन्हैया स्वयं ही नहाय के आय गयौ ….पहली बार लाला अपने आप नहायौ …..मैया जे कहते भए प्रसन्न हूँ है और थोड़ी दुखी भी ….प्रसन्न या बात पे कि मेरौ लाला बड़ौ है रह्यो है …लेकिन मन में दुःख या बात कौ कि …अब लाला अपने सखान कूँ अधिक महत्व देगौ ।

रोहिणी ! कल तौ काछनी हूँ मेरे हाथन ते नाँय पहनी कन्हैया ने …स्वयं बाँध के चलौ गयौ ।

मैया आगे बोलीं …..आज ही देख ले रोहिणी ! कहाँ है लाला घर में …..पहले तौ उठतौ मोते पानी माँगतौ ….मोते कहतौ – मुँह धुलाय दै । वस्त्र दै , जे वस्त्र नही पहनूँगौ …..रोहिणी ! सब मोते कहतौ कन्हैया …लेकिन आज कल । मैया यशोदा कौ अंतर्द्वंद्व रोहिणी जी समझें हैं …हर मातान कूँ जे पुत्र कौ बदलाव अखरे । लेकिन सच तौ सच है …परिवर्तन तौ होनौं ही है ।

रोहिणी जी हूँ जेई बोलीं ….जीजी ! अब लाला बड़ौ है रह्यो है ।

मैया बोलीं ….हाँ , बड़ौ है रह्यो है ….आज पहली बार मोते बिना पूछे अपने सखान के संग चलो गयौ है ……फिर हंसती भई बोलीं ….आन दै रोहिणी ! कन्हैया कूँ आज बताऊँगी । नही जीजी ! जे वय कौ परिवर्तन सबकूँ स्वीकार करनौं ही पड़े । रोहिणी जी की बात सुनके मैया यशोदा कछु देर के लिए चुप भईं ….फिर बोलीं …तीन दिना पहले मैंने जब उबटन लगायौ लाला के तौ पहली बार लजा गयौ । मैया जे कहते भए हँसीं ….रोहिणी जी हूँ हंसीं ….फिर रोहिणी जी बोलीं ….अब तौ लजाएगौ ही ….किन्तु अपनी बहु तै नाँय लजाएगौ …..मैया यशोदा स्वयं जे कहके खूब हँसीं …रोहिणी जी हूँ साथ में हंसती रहीं ।


“नव नन्द”…..सभा में आज विराजें हैं …नन्द जी मुख्य गादी में बैठे हैं और आज बड़े ही सहज हैं ….

अन्य गोप आदि हूँ बैठे गम्भीर कोई विमर्श चल रह्यो है । तभी बात चलाय दई उपनंद ने कि “कन्हैया बड़ौ है रह्यो है”। कन्हैया की चर्चा सब चर्चन कूँ गौण बनाय दै है । नन्द बाबा मुस्कुराए और अपने भाई ते पूछवे लगे …कैसे बड़ौ है रह्यो है । वय में …..अब अवस्था हूँ तौ है रही है ….उपनन्द ने ही कही । नन्दबाबा आनन्द से विराजे हैं और कन्हैया के विषय में सुनकर और आनंदित हैं ….नही नही …कन्हैया की चर्चा तै तौ सबकूँ आनन्द आवै ….सब आनंदित हैं ।

कल मैं जाय रो अपने कालिदह माहूँ तौ कन्हैया कूँ मैंने देखी …वो हूँ जाय रो अपने सखान के संग …हँस रो …हाथ पे हाथ मार रो …..तभी मोकूँ देख लियौ कन्हैया ने । उपनंद यहाँ पे चुप है गये ….मुस्कुराते नन्दबाबा बोले …आगे ? आगे कहा ….मोकूँ देखते ही आँखिन ते अपने सखान कूँ संकेत करके चुप करायौ ….फिर चुप । उपनंद की बात सुनके सब हंसे ….उपनंद बोले ….आज तक ऐसौ कभी कन्हैया ने कियौ नही । अब कन्हैया कूँ एकान्त चहिए ….सुनन्द ने उपनंद कूँ कही । देखौ कन्हैया की अब अवस्था बड़ी है रही है ….बाके नयन नही देखे ? अपने सखान के संग अलग ही रहें ….चंचलता ते भरे रहें …लेकिन हम बड़ेन के सामने आते ही नयन संकोच ते भर जामें …..अब हम लोगन कौ संग कन्हैया कूँ नही रुचेगौ ….कन्हैया तौ सखान के संग ही अब सहज रहेगौ …..उपनंद इतनौं ही बोले । फिर नन्दबाबा की ओर देखते भए उपनन्द ने कही ….महाराज ! कन्हैया ने कल मोते एक बात कही है …नन्दबाबा ने पूछी – कौन सी बात ?
उपनंद बतायवै लगे ।

क्रमशः….
Hari sharan
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼

        *💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*

                       *भाग - ४*

               *🤝 १. व्यवहार 🤝*

             _*सुखी जीवन का रहस्य*_ 

    यदि मनुष्य *'सुख कहाँ से आया'* इस स्थिर बुद्धि से विचार करे तो उसकी समझ में आ जायगा कि मिठाई मिलने या किसी इच्छित पदार्थ के मिलने पर चित्त शान्त हुआ और उसके कारण ही सुख का अनुभव हुआ। अतएव सुख का कारण मिठाई का मिलना नहीं है, बल्कि मिठाई द्वारा प्राप्त शान्ति के द्वारा ही उसकी अनुभूति हुई। इसके बदले मनुष्य भ्रमवश यह मान लेता है कि मिठाई से सुख मिला और इसी कारण वह सुख के लिये विषयों में दौड़ा करता है। इस बात को और भी स्पष्ट करके कहें तो कह सकते हैं कि (१) *मिठाई की इच्छा होने से चित्त चंचल हुआ,* (२) *मिठाई पाने से चित्त की चंचलता मिटकर शान्ति मिली,* (३) *चित्त शान्त होनेपर इसमें आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ा और सुखका अनुभव हुआ।*

   चित्त शान्त होने पर उसमें आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़नेपर सुख हुआ। इस मुख्य बात को भूलकर जीव इस भ्रम का सेवन करता है कि मिठाई से सुख मिला। इसी प्रकार वह विषयों का सेवन तो करता है सुख मिलने की आशा से, पर सुख नहीं मिलता। इसका समर्थन करते हुए श्रीविद्यारण्यजी कहते हैं-
   *यत्सुखाय भवेत्तत्तद् ब्रह्मैव प्रतिबिम्बनात्।*
   *वृत्तिष्वन्तर्मुखास्वस्य निर्विघ्नं प्रतिबिम्बनम्॥*
                    (पंचदशी)

   अर्थात् जिस पदार्थ के प्राप्त होने से सुख मिलता है, उसका कारण वह पदार्थ नहीं, बल्कि इच्छित पदार्थ की प्राप्ति से चित्त शान्त होता है और उसमें आत्मा का प्रतिबिम्ब निर्विघ्न पड़ता है, जिससे सुख की अनुभूति होती है। इससे यह सारांश निकला कि चित्त का स्थिर होना ही सुखप्राप्ति का उपाय है।

   इस प्रकार चित्त का शान्त रहना यानी भगवत्स्वरूप में लगे रहना। ही सच्चा सुख है। सुख का कोई दूसरा स्वरूप नहीं है। अब यह देखना है कि सुखकी प्राप्ति के लिये चित्त की शान्ति कैसे मिले? सुख-दुःख की परिभाषा करते हुए श्रीमनु भगवान् ने कहा है-
   *'सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।'*

   अर्थात् जिसकी प्राप्ति करने में अपने को दूसरों के ऊपर आश्रित रहना पड़ता है, वह दुःखरूप है और जिसकी प्राप्ति के लिये अपने अतिरिक्त दूसरे का अवलम्बन नहीं लेना पड़ता, वह सुख है।

    हमें अपने सिवा यानी अपनी आत्मा के अतिरिक्त मन, बुद्धि या इन्द्रियों के ऊपर अवलम्बन करना पड़ता है, इसे *परवशता* कहते हैं। यानी भोग्य-पदार्थों के साथ इन्द्रियों के संयोग के द्वारा जो सुख का अनुभव होता दीख पड़ता है, उसमें परवशता है। इसलिये वहाँ दु:ख में ही सुख की भ्रान्ति होती है-ऐसा समझना चाहिये। भोगपदार्थों की प्राप्ति प्रारब्ध के अधीन है। इसलिये उनकी प्राप्ति में भी परवशता है और पदार्थों के साथ इन्द्रियों का संयोग होना मन के अधीन है। इसलिये उसमें भी परवशता है और यह भी कोई नियम नहीं कि संयोग होने से सुख का ही अनुभव होगा; क्योंकि एक ही वस्तु से मन कभी सुख का अनुभव करता है तो कभी दुःख का । अतएव सुख का अनुभव होने में भी परवशता है। सबका सारांश यह है कि आत्मानुभव के सिवा जो दूसरे सुख का अनुभव होता है, वह वास्तविक सुख नहीं; बल्कि सुख की भ्रान्ति ही है। इस बात को भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में बहुत सरल रीति से समझाया है-
   *'सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।'*

अर्थात्-
‘यद् आत्यन्तिकं सुखमस्ति तद् अतीन्द्रियमस्ति।अतएव तद् बुद्धिग्राह्यमस्ति।’

   यानी जिसे आत्यन्तिक सुख कहते हैं, वह निरतिशय और अक्षय सुख है, उसका अनुभव इन्द्रियों द्वारा नहीं हो सकता। इसलिये उसका अनुभव बुद्धि के द्वारा यानी सूक्ष्म-बुद्धि के द्वारा ही हो सकता है। *'बुद्धि के द्वारा आत्यन्तिक सुख का अनुभव होता है'*। इसका अर्थ इतना ही है कि जीव जब विशुद्ध हुई सूक्ष्मबुद्धि के द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप को समझता है। यानी *'मैं आनन्दस्वरूप आत्मा हूँ, इसलिये सुख-दुःख से परे होने के कारण सुख की प्राप्ति के लिये मुझे कुछ भी यत्न करना नहीं है। चीनी की डली को मिठास प्राप्त करने में जैसे परिश्रम नहीं करना पड़ता, उसी प्रकार मुझ आनन्दस्वरूप आत्मा को सुख पाने के लिये परिश्रम करना पड़ता ही नहीं'* -ऐसा अनुभव होने पर अक्षय सुख की प्राप्ति होती है।

क्रमशः…….✍

  *🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*

[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-17

प्रिय ! सबते सेवक धरम कठोरा…
(श्री रामचरितमानस )

मित्रों ! बाबा आपके कुञ्ज में वृन्दावन के समस्त साधू सन्तों का एक भण्डारा करवाने की मेरी इच्छा है आप आज्ञा दें ।
उन पंजाब से आये उद्योगपति ने बाबा के चरणों में अपनी प्रार्थना रखी । देखो ! सन्त सेवा , साधू सेवा , दीन दुःखी की सेवा… ये परम श्रेष्ठ है…”सेवा” से अन्तःकरण पवित्र होता है… और धन भी पवित्र होता है , तन भी पवित्र होता है… सेवा साधक के लिए आवश्यक है… कोई भक्त , कोई साधु हमारा अन्न खाता है तो हमारा जो भी दुर्भाग्य है वो भी खा जाता है । परसों की बात थी… शाम के सत्संग -साधना में हम सब लोग बैठे थे… तब उन उद्योगपति ने अपनी बात रखी तो बाबा “सेवा” पर ही बोलने लग गए… हमारे मन के अहँकार को “सेवा” खा जाती है… क्यों कि “सेवा” में दीनता चाहिए… “सेवा” में नम्रता चाहिए… और व्यक्ति जब विनम्र होता है , तब उसका अभिमान गलता है ।
पर ये “सेवा” दुनिया को प्रचारित करने की वस्तु नही है… ये तो गुप्त रूप से होनी चाहिए । गौरांगी ने कहा… बाबा ! अपने भी कुञ्ज में साधु सन्तों का भण्डारा हो जाए ना ! इसी बहाने से हम भी “सेवा” कर लेंगे…हमारी भी “सेवा” में हाजिरी लग जायेगी । बाबा बोले… देखो ! सेवा को साधारण मत समझो… ये कोई काला धन ठिकाने लगाने की जगह नही है… नही तो आजकल तो लोग इनकमटैक्स से बचने के लिए भण्डारा करवाते हैं… पर ये भावना अगर है… तो तुम्हें पुण्य तो मिलेगा… पर साधना में और आंतरिक रूप से तुम्हें कोई विशेष लाभ नही प्राप्त होगा ।
“सेवा” तो कामना रहित होकर करनी चाहिए… हमें सेवा करने का सौभाग्य मिला बस यही “परम लाभ” है… ।

तो बाबा कल भण्डारा पक्का है ?… बाबा बोले… रहने दो… ये भी प्रपञ्च ही है… अब भण्डारा करते हुये किसी का भी अपमान हो गया तो भण्डारे का तुम्हें पुण्य तो मिलेगा नही… बल्कि पाप और भोगना पड़ेगा… क्यों कि तुम ने भगवत् स्वरूप साधु का अपमान जो कर दिया । इसलिये रहने दो… भजन करो… और जो धन लाये हो… उसे कहीं दे दो… ऐसी जगह दो… जहाँ तुम्हारे धन का सदुपयोग हो ।
नही बाबा ! आप अनुमति दें… हम किसी का अपमान नही करेंगे… हम सब जितने भी साधु आएंगे सबको भगवत् भाव से प्रणाम करके उनको बैठाएंगे… और उन्हें प्रसाद पवा कर ससम्मान विदा करेंगे । बाबा बोले… नही साधुओं को ही नही… जो भिखारी हैं उनका भी आदर करना होगा… हाँ बाबा ! उनको भी आदर देंगे… बाबा बोले… यहाँ के जो पक्षी हैं… और बन्दर हैं… कुत्ते हैं… उनको भी, उनका जो आहार है… वो इन सबको भी देना होगा । जी बाबा ! आप जैसी आज्ञा देंगे वही होगा । बाबा कुछ सोच रहे थे…
तभी गौरांगी बोली फिर बाबा पक्का हुआ ना ?… बाबा बोले… तुम लोग मानोगे तो हो नही… कर लो भण्डारा… पर याद रहे… भण्डारे में कोई भी दुःखी होकर नही जाना चाहिए ।

कल शाम को भण्डारा रखा गया था… समस्त साधुओं को बुलाया गया… बाबा स्वयं अपने ही हाथों से साधुओं के चरणों को धोकर और अपनी पीली चादर से पोंछ कर आसन दे रहे थे । चारों ओर साधु महात्मा विराजे थे… बाबा ने कहा… साधु तो आगये पर यहाँ के वृन्दावन वासी और गरीब लोग हैं…वो नही आये ?
गौरांगी ने कहा… बाबा ! शायद उनको भण्डारे की पर्ची देना हम लोग भूल गए… बाबा ने कहा… तुमने पर्ची बाँटी है ?…अरे!
ये तो ठाकुर जी का दरबार है… जो भी आओ प्रसाद को पाओ ।
बाबा मुझ से बोले… हरि ! कुञ्ज का दरवाजा खोल दो… जो भी आये उसे श्रद्धा से बैठाओ… और जो जितना ज्यादा गरीब है… जिसके जितने ज्यादा वस्त्र फ़टे हैं… उनके प्रति ज्यादा श्रद्धा रखो । मैंने कहा… पर बाबा ! कुञ्ज का दरवाजा खोल देंगे… तो बहुत भीड़ आजायेगी… बाहर भिखारी लोग बहुत हैं… बाबा बोले… तो क्या हुआ… आने दो… यही तो आनंद है… पर प्रसाद कम पड़ गया तो ?… बाबा बोले… साधक होकर ऐसी भाषा क्यों बोलते हो… अरे ! भगवत् प्रसाद क्या कभी कम पड़ा है… ? नही अन्नपूर्णा स्वयं रसोई में बैठ कर आज भोग बना रही हैं… मैं कह रहा हूँ… दरवाजा खोल दो… और तुम लोग स्वयं व्यवस्था देखो । बाबा की आज्ञा माननी ही थी… तो दरवाजा खोल दिया गया । सब भिखारी और गरीब बच्चे लोग… सब आगये । सबको बैठाया गया ।
विचित्र हैं हमारे पागलबाबा , कहते ही नही है… जो कहते हैं वो करते हैं । बाबा ने उन भिखारियों के भी पैर स्वयं अपने हाथों से धोये… और अपनी ही उस पवित्र चादर से पोंछें ।

पत्तल सबको दी गयी… बाबा ने बड़े प्रेम से सबको कहा… आप सब लोग मिलकर भगवन् नाम का गान करें । भगवन् नाम का गान सबने प्रारम्भ किया… जय हो ! गौरांगी आनंदित हो रही थी… सब साधक स्वयं ही लगे थे… बाबा ने अपने साधकों को कह दिया था… कि ये भी साधना ही है… सेवा से बढ़कर कोई साधना नही है… सब साधक कोई पानी परोस रहा है… कोई पूड़ी दे रहा है… कोई रायता परोस रहा है… कोई लड्डू दे रहा है… । चारों ओर आंनद का वातावरण फैला हुआ था… मुझे बाबा ने भण्डारे की जय जयकार लगाने की आज्ञा दी… मैंने जयकारा लगाना शुरू किया… जय हो ! क्या दिव्य आंनद छा गया था… और कुञ्ज के वृक्षों में पक्षी भी बैठे हैं…… पर शान्त थे… मैंने गौरांगी को दिखाया कि देख गौरांगी ! बाबा के दरबार में पक्षी भी कितने समझदार हैं… गौरांगी बोली… ये पक्षी नही… ये भी साधक हैं । मैंने कहा ..इनको पता है ..कि ये पहले पंगत हो जाए उसके बाद में हमें बाबा प्रसाद देंगे ही ।
बाबा स्वयं घूम घूम कर देख रहे थे… कि किसी को कुछ कमी तो नही पड़ रही है… ।

एक व्यक्ति आया… उसका भेष साधुओं का था… पर उसमें से जो ऊर्जा निकल रही थी… वो साधुओं की हो ही नही सकती… पर हमें तो आज यहाँ साधना करनी है… “सेवा की साधना” ।
उस व्यक्ति को भी मैंने पत्तल दिया… वो साधु वेष धारी व्यक्ति बोला… हमें भण्डारा नही खाना… हमें तो दक्षिणा दो… हम जाते हैं… मैंने हाथ जोड़कर कहा… महात्मन् ! आप अब भण्डारे में बैठ चुके हैं… तो आप कुछ तो खाएं… उसके बाद आपको दक्षिणा भी मिलेगी । पर उस व्यक्ति ने आक्रोश में भर कर कहा… मुझे ज्यादा सिखा रहा है… बुला अपने महन्त जी को… अभी बताता हूँ… मैंने फिर हाथ जोड़ कर कहा… आप ऐसा न करें… आप शांति बनाकर रखें… । वो तो मेरी बात सुनकर और क्रोध में भर गया… और उठ गया… बोला… कहाँ है तेरे महाराज जी ! बुला उन्हें ।… हल्ला होते हुये देखकर बाबा स्वयं दौड़े हुये आये… और उस साधु के सामने झुक कर बोले… महात्मा जी ! बताइये क्या अपराध हो गया हमसे… आप को क्या चाहिए ?
वो महात्मा के भेष में कोई हुड़दंगी ही था… उसने इधर देखा न उधर रायता और सब्जी ली… और बाबा के सिर में डाल दिया । मुझ से सहन नही हुआ… मैं उसका हाथ पकड़ कर बाहर निकालने ही वाला था कि… तुरन्त बाबा ने मुझे पीछे धकेल दिया… और बाबा स्वयं उसके पैर में पड़ गए… और नेत्रों से अश्रु बहाते हुये बोले… कितने कृपालु हैं आप… आपने अपनी प्रसादी मुझ जैसे प्रमादी को दे दी… और दी ही नही… मेरे सिर में ही डाल दिया… जय हो… हाँ मेरा दिमाग भी आज कल खराब रहता है… हाँ मैं आजकल अहँकार में रहता हूँ… हे दयालु ! साधु के रूप में आये मेरे भगवान !…आपने ही मेरा अहँकार नष्ट करने के लिए ये लीला की है… आपको जो चाहिए बोलिये… मेरे ये साधक नए नए हैं… ये कुछ नही समझते बच्चे हैं… पर आप तो अन्तर्यामी हैं… इन्हें क्षमा करें… ऐसा कहते हुये बाबा उस व्यक्ति के पैर में ही पड़ गए… । समस्त साधक और भण्डारे के आयोजक वो सेठ जी… और सभी सन्त महन्त इस दृश्य को देखकर भावुक हो गए थे । मैं तो बाबा का यह रूप देखकर एक वृक्ष के पीछे छुपकर रो रहा था ।
अब तो उस साधु वेष धारी व्यक्ति को बड़ा संकोच हुआ कि ये तो महानता की प्रतिमूर्ति हैं । झुक कर उस ने बाबा को उठाया… बाबा ने कहा… हे भगवन् ! आपने मुझे क्षमा तो कर दिया ना… और अगर आपने क्षमा नही किया तो मेरा ये भण्डारा सब व्यर्थ चला जायेगा… मुझ से अपराध हो गया ऐसा मैं मानूँगा । उन साधुवेश धारी व्यक्ति ने अब हाथ जोड़कर कहा… गलती मेरी ही है… आप ऐसा न करें । बाबा बोले… आपको दक्षिणा चाहिए ना ?… लीजिये… बाबा ने उन्हें दक्षिणा देनी चाही… पर अब उस व्यक्ति हृदय बदल चुका था… उसकी आँखें अब जल बहाने लगीं… गौरांगी मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी… और धीरे से बोली… हमारे बाबा पारस मणि हैं… लोहे को भी गोल्ड बना देते हैं… देखो हरि जी ! हमें जो उपदेश नित्य बाबा देते हैं… कि नम्रता साधक के आभूषण हैं… ये बात बाबा कहते ही नही हैं… उसे करते भी हैं… और ये सब बाबा हमें ही तो शिक्षा दे रहे हैं कि झुक कर ही किसी को जीता जा सकता है… स्वयं हार कर ही सामने वाले को पराजित किया जा सकता है… यही तो हमें सीखना है… । मैंने कहा… पर गौरांगी अपने बाबा के मन में तो उसको हरा कर मैं जीतूँ ऐसी भावना भी तो कहाँ होगी…झुक जाऊँगा तो ये हार जायेगा… ये भावना आगई… तो फिर ये तो नाटक हुआ ना… पर बाबा ने नाटक नही किया है… बाबा तो जो हैं… वही हैं… भीतर से भी ऐसे… और बाहर से भी ।
भण्डारा पूरा हो गया था…सब सन्तों के जूठन प्रसाद को थोड़ा थोड़ा करके मुझ से उठवाया… और हम सब साधकों को वो झूठन प्रसादी सन्तों और भक्तों की दी… । हाँ एक बात और… जब मैं उन सन्तों के पत्तल से जूठन उठा रहा था… तो बाबा मुझे बड़े ध्यान से देख रहे थे…सन्तों के बीच में एक भिखारी (जो जाति का निम्न था) का पत्तल भी था… मैंने उस पत्तल को छोड़ दिया… बाबा तुरंत चिल्लाये… हरि ! भेद बुद्धि गलत है… इस समय यहाँ सब सन्त हैं… यहाँ कोई जाति भेद मत करना… सबके पत्तल से प्रसादी उठाओ… और बाबा बोले… सबको भगवत् बुद्धि से देखो…यहाँ आज जो भी आये हैं… सब भगवान हैं… सब हमारे ऊपर कृपा करने आये हैं… कोई ब्राह्मण है ..कोई क्षत्रिय है… कोई बनिया है… और कोई शुद्र है… अगर ऐसी बुद्धि रखोगे… तो अपराध हो जायेगा… इसलिए बस यही सोचो कि सब भगवान ही हैं… और मैं भगवान का जूठन खाऊँगा… । बाबा को लाकर दिया वो सब सन्तों और भक्तों की जूठन प्रसादी, तो बाबा ने तुरन्त उसे माथे से लगाया और उसमें से किनिका निकाल कर खाये… हम सबको भी दिया… और बाबा बोले…इसको खाने से अहँकार से मुक्ति मिलेगीं…खाओ… ।
और जब सब सन्तों को विदा करके मैंने दरवाजे की ओर देखा ..तो गौरांगी चिल्लाई…बाबा ने कहा… क्या हुआ ?… गौरांगी बोली… बाबा कुत्ते हैं… बाबा बोले… पागल चिल्ला क्यों रही है ?… हजारों कुत्ते हैं… बाबा बोले… कोई नही बेचारे ये भी आज खुश होंगे… कि हमारे बाबा के यहाँ आज भण्डारा हो रहा है… सबको दो… । कुत्ता, बन्दर पक्षी… सबने प्रसाद पाया… बाबा बोले कुछ बचा है ?… आश्चर्य था कि अभी भी पूड़ी बच गयी थी… बाबा बोले – मैंने कहा था ना… अन्नपूर्णा हैं आज रसोई में… । गौरांगी बोली… बाबा कल के लिए रख लो ..पूड़ी… बाबा बोले… मैंने आज तक कल के लिए कुछ नही रखा… जाओ… ये पूड़ी जमुना जी में मछलियों को खिला दो ।
गौरांगी और हम दोनों गये जमुना जी… जाते जाते… वो जो सेठ जी थे… उन्होंने चार पचास पचास रूपये की गड्डियां बाबा को दीं और कहा…बाँट देना आप बाबा…अब मैं भी जाता हूँ… बाबा ने उस नोट की गड्डी को बाहर जितने भी गरीब के बच्चे थे… और कुछ भिखारी थे… उनसब को बाँट दिया… । बाबा बोले… भण्डारा करो तो सब प्रसन्न होने चाहिएँ… समझे ! गरीब भी ..भिखारी भी… पशु भी ..पक्षी भी… जल के जीव भी । बाबा ! अब एक महीने बाद दूसरा भण्डारा मेरे भाई की ओर से… बाबा ने कहा ये मेरे कुञ्ज में अंतिम भण्डारा है… अब नही होगा… क्यों बाबा ?… बाबा बोले… बहुत सावधानी रखनी पड़ती है…किसी का भी दिल दुखा तो समझो सब भण्डारे में पानी फिर गया ।

हम मछली को पूड़ी डाल कर लौटे… तो बाबा ने कहा… चलो जाओ अब… रात्रि हो गयी है… भगवन् नाम लेते हुये सो जाना
हम लोग प्रणाम करके अपने अपने घर की ओर निकल गये ।

“सन्तन के संग लाग रे तेरी अच्छी बनेगी”

Harisharan

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