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November 21, 2024 5:27 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(7-3),!! “नातो एक गोपाल ते”- ला.कुन्दन लाल !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (160) & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

श्रीसीतारामशरणम्मम(7-3),!! “नातो एक गोपाल ते”- ला.कुन्दन लाल !!,महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (160) & श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 7️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथll)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#सहजविरागरूपमनुमोरा…….
📙( #रामचरितमानस )📙

#मैवैदेही ! ……………._

🙏🙏👇🏼🙏🙏

राम ! इनका नाम है राम ………………सुनयना मैया नें भी अपनें मुँह से कहा ………राम ! सखियों नें भी जब नाम सुना तो उन्होंने भी कहा …….आहा ! राम ! ……..मै तो राम राम की रट अपनें हृदय में लगा ही रही थीं ………..

देवर्षि नारद जी नें इसी नाम के बारे में बताया था ना !

देवी सुनयना ! ऋषि विश्वामित्र नें मुझसे कहा …………….

अयोध्या के राजा चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी……..उनके पुत्र हैं ये ….बड़े पुत्र हैं राम ……और छोटे पुत्र हैं इनका नाम है लक्ष्मण ।

ये देखनें में सुकुमार लगते हैं ………पर ये महावीर हैं ……….आपको तो पता ही है ना ………ताड़का …….जो समस्त राक्षस जाति की रक्षिका थी ………..उसको इन्होंनें मार गिराया ।

मैने राजा दशरथ जी से इन्हें मांगा था ………क्यों की विदेह राज ! मेरे यज्ञ में ताड़का और मारीच सुबाहु…….ये सब विध्न डालते रहते थे ।

पर चक्रवर्ती जी नें मुझे निराश न किया …..और अपनें दो पुत्र दे दिए मुझे ।

मेरी कुटिया में आकर इन्होनें ताड़का का वध किया ……और मारीच सुबाहु का भी उद्धार किया ।

पर हे विदेह राज ! शिव धनुष पिनाक देखनें की राम को बड़ी उत्सुकता थी …..इसलिये मै इन्हें यहाँ भी ले आया ।

ठीक किया ऋषि आपनें ……………इनको ले आये ।

पर आप यहाँ नही रुकेंगें ………………आपके लिए मै दूसरी व्यवस्था करता हूँ ……………..मेरे पिता जनक जी नें कहा था ।

मेरी माँ को यही बतानें लगे थे……….वो अपनी पुत्री जानकी के लिए मैने जो महल बनवाया था ना ……..उसी महल में मैने ऋषि विश्वामित्र और उनके साथ में आये राम लक्ष्मण को ठहरा दिया ।

मेरी सखी चन्द्रकला मुझे देखकर आँखें मटकानें लगी थी …..।

मुझे लाज लग रही थी …………………

मेरे पिता जी अब शयन करनें जा रहे थे ………………पर उनके मुँह से अब बार बार यही शब्द निकल रहे थे ………राम ! राम ! राम !

मेरी सब सखियाँ दुष्ट हैं …..महादुष्ट हैं ………….मुझे छेड़नें के लिए …..सिर्फ राम न कहकर …….सीता राम ….सीता राम ……कहकर मुझे चिढानें लगी थीं ।

उनसे धनुष न टूटेगा ………………मैने भी अपनें कक्ष की ओर बढ़ते हुए कहा था अपनी सखियों से ………..

क्यों क्यों क्यों ? क्यों नही टूटेगा धनुष श्री राम से ।

सुना नही ………वो बहुत कोमल हैं ………..पिता जी नें कहा अभी ।

तो मेरी प्यारी जानकी ! तुम ही तोड़ देना ………और नाम लगा देना राम नें तोडा है …………..ऐसा कहकर सब हँसनें लगी थीं ।

हट्ट ! ऐसा थोड़े ही होता है ?

सब होता है …………जब राम धनुष के पास जाएँ …….तब तुम पिनाक धनुष की प्रार्थना कर लेना ……कि हे पिनाक ! आप हल्के हो जाओ ।

सिया जू ! आपनें ही तो कहा है ना …कि पिनाक चिन्मय है जड़ नही ।

मैने नही कहा ……देवर्षि नारद जी नें कहा था ।

पर पिनाक चिन्मय है ना ? चन्द्रकला नें पूछा ।

हाँ …….चिन्मय तो है पिनाक धनुष …………..

तब तो आपकी बात मान ही लेगा पिनाक ………..।

अब जाओ तुम लोग ……………..मै सोऊँगी ………..

मैने अपनी सखियों से हँसते हुए कहा ।

आपको आज नींद आएगी ……………शरद पूर्णिमा आरही है …….देखो देखो ………….क्या राम ऐसे ही हैं चाँद की तरह …….!

तुम जाओ यहां से …………………मैने सखियों को भगाया ।

और मै लेट गयी थी ………..राम ….. राम ……..कितनें सुन्दर हैं ….मेरे राम ! पिता जी कह रहे थे ……….वो ऐसे लगते हैं जैसे सुन्दरता ही आकार लेकर आगया हो …….ओह !


वन देवी ! आप बड़ी देर से “राम राम” कह रही हैं ………सम्राट राम का नाम आप क्यों ले रही हैं ?

ओह ! सामनें आकर बैठ गयी थीं ………….वो आश्रम की सेविका………….।

तुरन्त लेखनी बन्द कर दी ………….सीता जी नें …………ताल पत्र को लपेट कर रख दिया ।

महर्षि भी लिखते रहते हैं ………और आप भी ………….वो तो रामायण लिख रहे हैं ……आप क्या लिख रही हैं वन देवी !

मै क्या लिखूंगी ………………..बस ऐसे ही …………….

वन देवी ! अब तो दो महिनें ही बचे हैं ……….

किसके लिए दो महिनें बचे हैं ? मैने पूछा ।

आपके पुत्र होंगें ………और वो बूढी माई कह रही थी ……दो पुत्र होंगें आपके ……………सेविका बोलती चली गईं ।

पर आज सीता जी का ध्यान पूरा …………जनकपुर में ही था ।

उस समय के जनकपुर में …….जब श्री राम आये थे ……पिनाक को देखनें ……………

#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


!! “नातो एक गोपाल ते”- ला.कुन्दन लाल !!k


ये घटना सत्य है ….और अभी की है ….यानि लगभग पचास वर्ष की । वो बनिया थे …लाला कुन्दन लाल , उत्तर प्रदेश बुलन्दशहर के थे ये । यहीं इनकी एक छोटी सी किराने की दुकान थी ।

दम्पति थे किन्तु कोई सन्तान उनको हुई नही …इस बात का दुःख कुन्दन लाल को तो नही था पर हाँ , इनकी पत्नी को अवश्य था ।

बेटा चाहिए ?

ये एक बार श्रीवृन्दावन गये थे तो वहाँ एक बाबा इनको श्रीबाँके बिहारी जी के मन्दिर में मिल गये ….उन दिनों भीड़ होती नही थी …सामान्य दिनों में दस बीस लोग ही दर्शनार्थी वहाँ होते थे …कुन्दन लाल की पत्नी कुछ बोल रही थी …..वो आँखें बन्दकर के मिनमिना रही थी ….कह रही थी “बिहारी जी ! एक बेटा दे दो”। बगल में कुन्दन लाल और इनकी पत्नी , बाबा ने सुन लिया था …इसलिए हंसते हुए तेज आवाज में बोले थे ….बेटा चाहिए ? जी , पत्नी ने अपने जोड़े हाथ उन बाबा की ओर घुमा दिये थे ….बाबा ने कहा …मुझे नही उनको ही प्रणाम करो …किन्तु पत्नी बोली …..बाबा ! बेटा चाहिए । बस कुन्दन लाल उन बाबा को ही देख रहे थे …कुछ बोले नही थे । “तो इसी को बेटा मान ले ना” श्रीबाँके बिहारी जी की ओर देखते हुए वो बाबा बोले । किसको ? कुन्दन लाल अपनी पत्नी को बोले …बाबा कह रहे हैं बाँके बिहारी को ! पत्नी क्या कहे ….किन्तु कुन्दन को ये बात जम गयी थी …कुन्दन ने तुरन्त बाबा के पैर छूए ….और बोले ….क्या करूँ ? करना क्या है एक गोपाल जी ख़रीद ले पीतल के , और यमुना स्नान करा और उसी को घर ले जा …अपना स्नेह वात्सल्य उसी पर उढेल दे ।

बाबा इतना ही बोलकर चल दिए थे ….कुन्दन को बात लग गयी थी …हाँ , इनको क्यों न बेटा बनाया जाए, और जाते जाते बाबा ये भी बोले थे –

“सगे से ज़्यादा ये बाँके बिहारी तेरा साथ देगा “

कुन्दन लाल बहुत भोले थे ….उन्होंने पत्नी को कहा …”चल , हमें बेटा मिल गया”। इस समय कुन्दन लाल की आयु थी तीस वर्ष की और पत्नी की बीस वर्ष ….शादी के हो गये थे छ या सात वर्ष माता पिता कुन्दन लाल के बचपन में ही पधार गये थे ..चाचा ने पाला था पर वो भी एक दुकान और एक मकान छोड़कर चल बसे थे ….यानि कुन्दन लाल और इनकी पत्नी यही थे …विचित्र बात है …ठाकुर जी जिसे अपनाते हैं वो उसके समस्त मोह बन्धन को काटते जाते हैं ।

सन्तान हुई नही …मान्यता इनके यहाँ श्रीबाँके बिहारी की ही थी तो आए थे श्रीवृन्दावन दर्शन करने ….पत्नी ने बालक माँगा ओह ! ये श्रीबाँके बिहारी तो पीतल की मूर्ति के रूप इनके साथ हो लिए ….दुकान से ख़रीदी पीतल की गोपाल जी की मूर्ति , और यमुना में गोपाल जी को लेकर डुबकी लगाई । कुन्दन लाल ने उसी दिन से इनको अपना बेटा मान लिया था , पक्के दिल से मान लिया था ।


ओह ! कुन्दन लाल की पत्नी भी एक दिन पधार गयीं । अब तो बस ये गोपाल जी ही थे कुन्दन लाल के जीवन में …जो इनके बेटा थे । सरकारी पत्रों में भी इन्होंने अपना एक बेटा लिखाया था और नाम लिखा था “गोपाल जी”। किराने की दुकान में बैठते किन्तु ध्यान इनका गोपाल जी पर ही रहता ….दुकान में बैठे बैठे भी ये अपने बेटे का ही चिन्तन करते ……दुकान के सामने से केले का ठेला जा रहा होता ….तो इसका गोपाल कहता ….केले खाऊँगा ….ये केले लेकर दुकान किसी ओर को देखने के लिए कहते और घर जाते …केले का भोग लगाते …ठीक है ? इसका गोपाल भी खुश होकर “ठीक है” कहता । एक दिन इसका गोपाल रोने लगा जिसका भान कुंदन लाल को हो जाता था …ये दुकान को ऐसे ही छोड़कर घर गया तो इधर दुकान में चोरी हो गयी ….इसने अपने बेटे को कहा …गोपाल ! तेरे कारण देख चोरी हो गयी दुकान में ….तो इसका गोपाल बोला ….”तो मुझे दुकान में भी अपने साथ रखो “। मुझे अकेले छोड़कर क्यों जाते हो ? ये बात कुन्दन लाल को ठीक लगी …वो अब गोपाल को अपने साथ ही रखने लगा …..दुकान में भी और जहाँ जहाँ जाए वहाँ । इसका ये चंचल गोपाल कभी दुकान में बैठे बैठे कहता ..लड्डू खिलाओ ….कुन्दन लाल अपने बेटे के लिए लड्डू लेकर आता …कभी रबड़ी ।

एक दिन दुकान से घर लौटते समय वर्षा हो रही थी …मार्ग में कीचड़ हो गया था ….अन्धकार छाया था कुन्दन लाल गिर पड़े , चोट लगी लेकिन इसे अपनी कहाँ परवाह थी …गोपाल बेटे ! तुझे चोट तो नही आयी ? इसका गोपाल बोला …ये , यहाँ चोट लगी है ….चल ! मार्ग में एक हकीम जी थे उनसे गोपाल के लिए मरहम लेकर घर आए ….मरहम लगा दिया …अब दो रोटी बनाकर गोपाल को खिला कर खुद सत्तू पानी में घोल पीकर सो गये ….घुटनों में चोट लगी लाला कुन्दन लाल के ।

रात्रि में कौन ? लाला उठा, कोई कोमल हाथ लाला के घुटनों में मरहम लगा रहे थे …”मैं हूँ “ तेरा गोपाल “ ओह ! लाला के अश्रु बहते रहे ..जब जिद्दी उसका गोपाल बोला ..पिता जी ! सेवा तो बेटे का धर्म है ।


लाला अब वृद्ध होने को आया है …अस्सी के लगभग आयु लाला की हो रही है ….किन्तु इसका बेटा तो बड़ा नही हुआ …उतना ही छोटा है ।

गोपाल ! एक दिन कुन्दन लाल ने कहा ….मुझे यमुना जल चाहिए …मेरे पास खतम हो गया है ….मैं यमुना जल से ही तुझे नहलाता हूँ …इसलिए मुझे श्रीवृन्दावन जाने दे । पर मैं कहाँ रहूँगा ? दो दिन के लिए तू पड़ोसी के यहाँ रह जाना …वो तेरी सेवा करेंगे । रहने दे ना बाबा ! मैं तेरी तरह सामान्य पानी से ही नहा लूँगा …पर अब तेरे बिना मेरा मन नही लगेगा …तू मत जा । अच्छा ! कुन्दन लाल ने मान ली बात …माननी ही पड़ी ..क्या करता लाला कुन्दन । इसका बेटा नही रह पाएगा इसके बिना और ये भी तो । नही गया श्रीवृन्दावन ।

समय बीतता गया ….और एक दिन लाला कुन्दन लाल दुकान में बैठा बैठा देह त्याग देता है ।

बनिया समाज जुटा …..सम्पत्ति किसके नाम ? तो इसने अपनी सारी सम्पत्ति दुकान मकान आदि अपने बेटे गोपाल के नाम कर दी थी । ये गोपाल कौन है ? और लाला कुन्दन का बेटा ?

अर्थी तैयार की गयी …..श्मशान में सब लोग मिलकर ले गये …चिता तैयार की …और जैसे ही अग्नि देने की बारी आयी ….कौन देगा आग ? मैं दूँगा ….एक आवाज सामने से आयी ….वो बड़ा सुन्दर सा लड़का था ….संवारा सा , घुंघराले उसके केश थे ……क्या कहें ! उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ..उसके सिर में घड़ा था …..ये यमुना जल है ….मैं लाला कुन्दन लाल का बेटा हूँ गोपाल । पर हमने कभी देखा नही …बनिया समाज ने कहा …मैं श्रीवृन्दावन में रहा …इसलिए मुझे नही देखा होगा ….मेरे पिता जी की इच्छा थी की यमुना जल के लिए ….वो ये कहते हुए रोने लगा ….उसने पिता को चिता से उतारा यमुना जल से स्नान कराया …सुन्दर पीताम्बरी पहनाई …तुलसी की लकड़ी रखी , देह को चिता में रखा और परिक्रमा देते हुए अग्नि दी ।

कहते हैं अग्नि बुझने तक वो वहीं बैठा रहा …फिर अश्रु पोंछते हुये गोपाल चला गया ।

ये सत्य घटना है ………
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (160)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-2

बोले कि नहीं, उनका भी प्रेम पूर्ण नहीं है क्योंकि वियोग के तराजू पर जिसका प्रेम कभी तौला नहीं गया, उसका प्रेम पूर्ण है, इसका पता कैसे लगे? तो बोले- भाई सारस का भी प्रेम पूरा नहीं और चक्रवाक-चक्रवाकी का भी प्रेम पूरा नहीं, तो प्रेम पूरा होवे कैसे? बोले कि चंद्रमा और चकोर का प्रेम पूर्ण है? तो बोले- नहीं, चंद्रमा और चकोर के प्रेम में भला क्या रखा है? इसी प्रकार कुई (कुमुदिनी) और चंद्रमा के प्रेम में पूर्णता कहाँ है? फिर प्रेम का पता कैसे लगे? तो बोले कि बस एक काम हमारे हाथ में दे दो, तो हम प्रेम का पता बता दें। वह क्या? कि हम दिन भर में सौ मर्तबा चकोर को चंद्रमा बना दें, और चंद्रमा को चकोर बना दें। तो चंद्रमा चकोर बनकर देखेगा कि चकोर के हृदय में चंद्रमा से कितनी प्रीति होती है। और चकोर को मालूम पड़ेगा कि चंद्रमा को चंद्रमा बना दें, और चंद्रमा को चकोर बना दें। तो चंद्रमा चकोर बनकर देखेगा कि चकोर के हृदय में चंद्रमा से कितनी प्रीति होती है। और चकोर को मालूम पड़ेगा कि चंद्रमा कितना रसीला है।

चंदा चकोर होय पीवै यदि चकोर चंद्रमा अपने रस का आस्वादन करे तब उसको मालूम होगा कि चंद्रमा का रस पीने में कितना स्वाद आता है। और यदि चकोर चंद्रमा हो जाय तब देखे कि चकोर उसके साथ कितना प्रेम करता है। मछली पानी हो जाया करे और पानी मछली हो जाया करे तब पानी में कैसा रस है और मछली में कैसी प्यास है यह एक-दूसरे को मालूम पड़े जब तक दोनों अलग-अलग हैं तब तक प्यास और रस दोनों का आस्वादन नहीं होगा। तो देखो, यहाँ कृष्ण गोपी हो जाते हैं, और गोपी कृष्ण हो जाती है।+

राधा कृष्ण हो जाती है और कृष्ण गोपी हो जाते हैं; इसका वर्णन है श्रीमद्भागवत में-

कस्याश्चित्पूतनायन्त्याः कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम।[1]
दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डधृक ।।[2]

कोई एक गोपी हो गयी कृष्ण और दूसरी बन गयी पूतना। दूसरी बोली और देखो-देखो, मैं कृष्ण, मेरी गति देखो, कैसी सुन्दर चाल से मैं चलती हूँ। कृष्णोऽहं पश्यतगतिं ललितामिति तन्मताः गोपी कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण करती कृष्ण हो गयी, राधा आपहि श्याम भई। ब्रह्म चैतन्य में द्रष्टा और दृश्य का भेद नहीं है। जैसे ब्रह्मसत्ता में कर्ता और कर्म का भेद नहीं है, ऐसे आनन्दसत्ता में भोक्ता और भोग्य का भेद नहीं है। प्रेम में राधा और कृष्ण का भेद नहीं है।

ऐसा अखण्ड प्रेमरस से परिपूर्ण यह श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम जो है, वह प्रेम मालिक है। और राधा-कृष्ण दोनों उसके स्वरूप खिलौना हैं। वह प्रेम राधा को कृष्ण बनाकर खेलता है, कृष्ण को राधा बनाकर खेलता है; वह दोनों को बनाता है, बिगाड़ता है, प्रेम मालिक है। सारी सृष्टि को चलाने वाले कृष्ण हैं और कृष्ण को चलाने वाला है प्रेम। प्रेम कृष्ण का सेवक नहीं है, कृष्ण का मालिक है। व्रजवासियों के प्रेम के निरूपण में एक विशेषता है। क्या? वे कहते हैं- प्रेम समुद्र है, और राधा और कृष्ण उसकी दो तरंगें है। राधा और कृष्ण विवर्त हैं, और विवर्ती है प्रेम, आनन्द-ब्रह्म। राधा-कृष्ण में भोक्ता-भोग्य का भेद नहीं है असल में तो प्रेम ही प्रेम है, रस ही रस है।++

रासलीला का अन्तरंग-3

गोपी में काम का स्वरूप संस्कृत भाषा में एक ग्रंथ है ‘प्रेमपत्तनम्’ प्रेम का शहर, प्रेम की नगरी; ‘पत्तनम्’, माने शहर जैसे दक्षिण में विजिगापत्तनम्, विशाखापत्तनम्। ‘पत्तनम्’ को अंग्रेजी वालों ने पट्टनम् कर लिया है। उसी से बिहार में जो ‘पटना’ शहर है वह ‘प्रेम-पत्तनम्’ ही है। अब उस ‘प्रेम-पत्तनम्’ नामक ग्रंथ में कथा है कि ये जो वेद हैं वे तो उस प्रेम की नगरी की चहार-दीवारी हैं, उसकी रक्षा करती है। बड़े-बड़े इतिहास-पुराण-न्याय वैशेषिक शास्त्र सब उसकी रक्षा में लगे रहते हैं। और प्रेमपत्तनम् के राजा का नाम है- मधुर-मेचक। मेचक माने श्याम, काला। तो मधुर कृष्ण, मधुर श्याम वहाँ के राजा हैं। उन्होंने पहले एक ब्याह कर रखा था, उनकी श्रीमती थीं शास्त्राभ्यास की पुत्री ‘मति’।

मतिदेवी से ब्याह कर रखा था। बाद में कहीं अकस्तमात्- ‘रति’ से उनकी देखा-देखी हो गयी, तो घर में ले आये ‘रति’ को। (रति माने प्रीति) इस पर ‘मतिदेवी’ को बड़ा गुस्सा आया और वह प्रेमपत्तनम् छोड़करके फिर अपने पिता ‘शास्त्राभ्यास’ के घर चली गयी, और पतिव्रता धर्म का पालन करने लगी। जब ‘प्रीति’ का राज्य हुआ प्रेमपत्तनम् में, तो उन्होंने कुछ कानून बनाये। मधुर-मेचक को बिलकुल अपने वश में करके उन्होंने पुराने सब कानून पलट दिये। उलटा हो गया सब। तो वही उलटे कानून की जो नगरी है उसका नाम है प्रेमनगरी; और उसका नाम है वृन्दावन! जिन्होंन यह पुस्तक लिखी है उन्होंने वहाँ बताया है कि प्रेमनगरी में चौंसठ कानून लागू होते हैं। उनमें से सिर्फ एक कानून की चर्चा मैं अभी करने वाला हूँ क्योंकि वे सब कानून सुनने में और समझने में काफी देर लगेगी।

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।
क्ष्वेत्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणामुत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ।।

तो प्रेमपत्तनम् की एक धारा मैं सुनाता हूँ। श्रीकृष्ण ने रास के प्रसंग में क्या किया? कि गोपियों के हृदय में काम को उद्दीप्त किया- उत्तम्भयन् रतिपतिम्। कल सुनाया था कि काम को उद्दीप्त करने का अर्थ यह हुआ कि पहले जैसा गोपियों के हृदय में काम रहा ही न हो! श्रीकृष्ण ने काम को जागृत किया और जगाने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ी- बाहुप्रसार, परिरम्भण- इत्यादि, जो इस श्लोक में है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[4/22, 8:05 PM] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 8 . 21
🌹🌹🌹
अव्यक्तोSक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् |
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || २१ ||

अव्यक्तः – अप्रकट; अक्षरः – अविनाशी; इति – इस प्रकार; उक्तः – कहा गया; तम् – उसको; आहुः – कहा जाता है; परमाम् – परम; गतिम् – गन्तव्य; यम् – जिसको; प्राप्य – प्राप्त करके; न – कभी नहीं; निवर्तन्ते – वापस आते हैं; तत् – निवास; परमम् – परं; मम – मेरा |

भावार्थ
🌹🌹🌹
जिसे वेदान्ती अप्रकट और अविनाशी बताते हैं, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है |

तात्पर्य
🌹🌹🌹

ब्रह्मसंहिता में भगवान् कृष्ण के परमधाम को चिन्तामणि धाम कहा गया है, जो ऐसा स्थान है जहाँ सारी इच्छाएँ पूरी होती हैं | भगवान् कृष्ण का परमधाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है और वह पारसमणि से निर्मित प्रसादों से युक्त है | वहाँ पर वृक्ष भी हैं, जिन्हें कल्पतरु कहा जाता है, जो इच्छा होने पर किसी भी तरह का खाद्य पदार्थ प्रदान करने वाले हैं | वहाँ गौएँ भी हैं, जिन्हें सुरभि गौएँ कहा जाता है और वे अनन्त दुग्ध देने वाली हैं | इस धाम में भगवान् की सेवा के लिए लाखों लक्ष्मियाँ हैं | वे आदि भगवान् गोविन्द तथा समस्त कारणों के करण कहलाते हैं | भगवान् वंशी बजाते रहते हैं (वेणु क्वणन्तम्) | उनका दिव्य स्वरूप लोकों में सर्वाधिक आकर्षक है, उनके नेत्र कमलदलों के समान हैं और उनका शरीर मेघों के वर्ण का है | वे इतने रूपवान हैं कि उनका सौन्दर्य हजारों कामदेवों को मात करता है | वे पीत वस्त्र धारण करते हैं, उनके गले में माला रहती है और केशों में मोरपंख लगे रहते हैं | भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण अपने निजी धाम, गोलोक वृन्दावन का संकेत मात्र करते हैं, जो आध्यात्मिक जगत् में सर्वश्रेष्ठ लोक है | इसका विषद वृतान्त ब्रह्मसंहिता में मिलता है | वैदिक ग्रंथ (कठोपनिषद् १.३.११) बताते हैं कि भगवान् का धाम सर्वश्रेष्ठ है और यही परमधाम है (पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा परमा गतिः) | एक बार वहाँ पहुँच कर फिर से भौतिक संसार में वापस नहीं आना होता | कृष्ण का परमधाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं, क्योंकि वे दोनों एक से गुण वाले हैं | आध्यात्मिक आकाश में स्थित इस गोलोक वृन्दावन की प्रतिकृति (वृन्दावन) इस पृथ्वी पर दिल्ली से १० मील दक्षिण-पूर्व स्थित है | जब कृष्ण ने इस पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था, तो उन्होने इसी भूमि पर, जिसे वृन्दावन कहते हैं और जो भारत में मथुरा जिले के चौरासी वर्गमील में फैला हुआ है, क्रीड़ा की थी |

#मैंजनकनंदिनी…. 7️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#सहजविरागरूपमनुमोरा…….
📙( #रामचरितमानस )📙

#मैवैदेही ! ……………._

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राम ! इनका नाम है राम ………………सुनयना मैया नें भी अपनें मुँह से कहा ………राम ! सखियों नें भी जब नाम सुना तो उन्होंने भी कहा …….आहा ! राम ! ……..मै तो राम राम की रट अपनें हृदय में लगा ही रही थीं ………..

देवर्षि नारद जी नें इसी नाम के बारे में बताया था ना !

देवी सुनयना ! ऋषि विश्वामित्र नें मुझसे कहा …………….

अयोध्या के राजा चक्रवर्ती सम्राट दशरथ जी……..उनके पुत्र हैं ये ….बड़े पुत्र हैं राम ……और छोटे पुत्र हैं इनका नाम है लक्ष्मण ।

ये देखनें में सुकुमार लगते हैं ………पर ये महावीर हैं ……….आपको तो पता ही है ना ………ताड़का …….जो समस्त राक्षस जाति की रक्षिका थी ………..उसको इन्होंनें मार गिराया ।

मैने राजा दशरथ जी से इन्हें मांगा था ………क्यों की विदेह राज ! मेरे यज्ञ में ताड़का और मारीच सुबाहु…….ये सब विध्न डालते रहते थे ।

पर चक्रवर्ती जी नें मुझे निराश न किया …..और अपनें दो पुत्र दे दिए मुझे ।

मेरी कुटिया में आकर इन्होनें ताड़का का वध किया ……और मारीच सुबाहु का भी उद्धार किया ।

पर हे विदेह राज ! शिव धनुष पिनाक देखनें की राम को बड़ी उत्सुकता थी …..इसलिये मै इन्हें यहाँ भी ले आया ।

ठीक किया ऋषि आपनें ……………इनको ले आये ।

पर आप यहाँ नही रुकेंगें ………………आपके लिए मै दूसरी व्यवस्था करता हूँ ……………..मेरे पिता जनक जी नें कहा था ।

मेरी माँ को यही बतानें लगे थे……….वो अपनी पुत्री जानकी के लिए मैने जो महल बनवाया था ना ……..उसी महल में मैने ऋषि विश्वामित्र और उनके साथ में आये राम लक्ष्मण को ठहरा दिया ।

मेरी सखी चन्द्रकला मुझे देखकर आँखें मटकानें लगी थी …..।

मुझे लाज लग रही थी …………………

मेरे पिता जी अब शयन करनें जा रहे थे ………………पर उनके मुँह से अब बार बार यही शब्द निकल रहे थे ………राम ! राम ! राम !

मेरी सब सखियाँ दुष्ट हैं …..महादुष्ट हैं ………….मुझे छेड़नें के लिए …..सिर्फ राम न कहकर …….सीता राम ….सीता राम ……कहकर मुझे चिढानें लगी थीं ।

उनसे धनुष न टूटेगा ………………मैने भी अपनें कक्ष की ओर बढ़ते हुए कहा था अपनी सखियों से ………..

क्यों क्यों क्यों ? क्यों नही टूटेगा धनुष श्री राम से ।

सुना नही ………वो बहुत कोमल हैं ………..पिता जी नें कहा अभी ।

तो मेरी प्यारी जानकी ! तुम ही तोड़ देना ………और नाम लगा देना राम नें तोडा है …………..ऐसा कहकर सब हँसनें लगी थीं ।

हट्ट ! ऐसा थोड़े ही होता है ?

सब होता है …………जब राम धनुष के पास जाएँ …….तब तुम पिनाक धनुष की प्रार्थना कर लेना ……कि हे पिनाक ! आप हल्के हो जाओ ।

सिया जू ! आपनें ही तो कहा है ना …कि पिनाक चिन्मय है जड़ नही ।

मैने नही कहा ……देवर्षि नारद जी नें कहा था ।

पर पिनाक चिन्मय है ना ? चन्द्रकला नें पूछा ।

हाँ …….चिन्मय तो है पिनाक धनुष …………..

तब तो आपकी बात मान ही लेगा पिनाक ………..।

अब जाओ तुम लोग ……………..मै सोऊँगी ………..

मैने अपनी सखियों से हँसते हुए कहा ।

आपको आज नींद आएगी ……………शरद पूर्णिमा आरही है …….देखो देखो ………….क्या राम ऐसे ही हैं चाँद की तरह …….!

तुम जाओ यहां से …………………मैने सखियों को भगाया ।

और मै लेट गयी थी ………..राम ….. राम ……..कितनें सुन्दर हैं ….मेरे राम ! पिता जी कह रहे थे ……….वो ऐसे लगते हैं जैसे सुन्दरता ही आकार लेकर आगया हो …….ओह !


वन देवी ! आप बड़ी देर से “राम राम” कह रही हैं ………सम्राट राम का नाम आप क्यों ले रही हैं ?

ओह ! सामनें आकर बैठ गयी थीं ………….वो आश्रम की सेविका………….।

तुरन्त लेखनी बन्द कर दी ………….सीता जी नें …………ताल पत्र को लपेट कर रख दिया ।

महर्षि भी लिखते रहते हैं ………और आप भी ………….वो तो रामायण लिख रहे हैं ……आप क्या लिख रही हैं वन देवी !

मै क्या लिखूंगी ………………..बस ऐसे ही …………….

वन देवी ! अब तो दो महिनें ही बचे हैं ……….

किसके लिए दो महिनें बचे हैं ? मैने पूछा ।

आपके पुत्र होंगें ………और वो बूढी माई कह रही थी ……दो पुत्र होंगें आपके ……………सेविका बोलती चली गईं ।

पर आज सीता जी का ध्यान पूरा …………जनकपुर में ही था ।

उस समय के जनकपुर में …….जब श्री राम आये थे ……पिनाक को देखनें ……………

#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[4/22, 8:05 PM] Niru Ashra: !! “नातो एक गोपाल ते”- ला.कुन्दन लाल !!


ये घटना सत्य है ….और अभी की है ….यानि लगभग पचास वर्ष की । वो बनिया थे …लाला कुन्दन लाल , उत्तर प्रदेश बुलन्दशहर के थे ये । यहीं इनकी एक छोटी सी किराने की दुकान थी ।

दम्पति थे किन्तु कोई सन्तान उनको हुई नही …इस बात का दुःख कुन्दन लाल को तो नही था पर हाँ , इनकी पत्नी को अवश्य था ।

बेटा चाहिए ?

ये एक बार श्रीवृन्दावन गये थे तो वहाँ एक बाबा इनको श्रीबाँके बिहारी जी के मन्दिर में मिल गये ….उन दिनों भीड़ होती नही थी …सामान्य दिनों में दस बीस लोग ही दर्शनार्थी वहाँ होते थे …कुन्दन लाल की पत्नी कुछ बोल रही थी …..वो आँखें बन्दकर के मिनमिना रही थी ….कह रही थी “बिहारी जी ! एक बेटा दे दो”। बगल में कुन्दन लाल और इनकी पत्नी , बाबा ने सुन लिया था …इसलिए हंसते हुए तेज आवाज में बोले थे ….बेटा चाहिए ? जी , पत्नी ने अपने जोड़े हाथ उन बाबा की ओर घुमा दिये थे ….बाबा ने कहा …मुझे नही उनको ही प्रणाम करो …किन्तु पत्नी बोली …..बाबा ! बेटा चाहिए । बस कुन्दन लाल उन बाबा को ही देख रहे थे …कुछ बोले नही थे । “तो इसी को बेटा मान ले ना” श्रीबाँके बिहारी जी की ओर देखते हुए वो बाबा बोले । किसको ? कुन्दन लाल अपनी पत्नी को बोले …बाबा कह रहे हैं बाँके बिहारी को ! पत्नी क्या कहे ….किन्तु कुन्दन को ये बात जम गयी थी …कुन्दन ने तुरन्त बाबा के पैर छूए ….और बोले ….क्या करूँ ? करना क्या है एक गोपाल जी ख़रीद ले पीतल के , और यमुना स्नान करा और उसी को घर ले जा …अपना स्नेह वात्सल्य उसी पर उढेल दे ।

बाबा इतना ही बोलकर चल दिए थे ….कुन्दन को बात लग गयी थी …हाँ , इनको क्यों न बेटा बनाया जाए, और जाते जाते बाबा ये भी बोले थे –

“सगे से ज़्यादा ये बाँके बिहारी तेरा साथ देगा “

कुन्दन लाल बहुत भोले थे ….उन्होंने पत्नी को कहा …”चल , हमें बेटा मिल गया”। इस समय कुन्दन लाल की आयु थी तीस वर्ष की और पत्नी की बीस वर्ष ….शादी के हो गये थे छ या सात वर्ष माता पिता कुन्दन लाल के बचपन में ही पधार गये थे ..चाचा ने पाला था पर वो भी एक दुकान और एक मकान छोड़कर चल बसे थे ….यानि कुन्दन लाल और इनकी पत्नी यही थे …विचित्र बात है …ठाकुर जी जिसे अपनाते हैं वो उसके समस्त मोह बन्धन को काटते जाते हैं ।

सन्तान हुई नही …मान्यता इनके यहाँ श्रीबाँके बिहारी की ही थी तो आए थे श्रीवृन्दावन दर्शन करने ….पत्नी ने बालक माँगा ओह ! ये श्रीबाँके बिहारी तो पीतल की मूर्ति के रूप इनके साथ हो लिए ….दुकान से ख़रीदी पीतल की गोपाल जी की मूर्ति , और यमुना में गोपाल जी को लेकर डुबकी लगाई । कुन्दन लाल ने उसी दिन से इनको अपना बेटा मान लिया था , पक्के दिल से मान लिया था ।


ओह ! कुन्दन लाल की पत्नी भी एक दिन पधार गयीं । अब तो बस ये गोपाल जी ही थे कुन्दन लाल के जीवन में …जो इनके बेटा थे । सरकारी पत्रों में भी इन्होंने अपना एक बेटा लिखाया था और नाम लिखा था “गोपाल जी”। किराने की दुकान में बैठते किन्तु ध्यान इनका गोपाल जी पर ही रहता ….दुकान में बैठे बैठे भी ये अपने बेटे का ही चिन्तन करते ……दुकान के सामने से केले का ठेला जा रहा होता ….तो इसका गोपाल कहता ….केले खाऊँगा ….ये केले लेकर दुकान किसी ओर को देखने के लिए कहते और घर जाते …केले का भोग लगाते …ठीक है ? इसका गोपाल भी खुश होकर “ठीक है” कहता । एक दिन इसका गोपाल रोने लगा जिसका भान कुंदन लाल को हो जाता था …ये दुकान को ऐसे ही छोड़कर घर गया तो इधर दुकान में चोरी हो गयी ….इसने अपने बेटे को कहा …गोपाल ! तेरे कारण देख चोरी हो गयी दुकान में ….तो इसका गोपाल बोला ….”तो मुझे दुकान में भी अपने साथ रखो “। मुझे अकेले छोड़कर क्यों जाते हो ? ये बात कुन्दन लाल को ठीक लगी …वो अब गोपाल को अपने साथ ही रखने लगा …..दुकान में भी और जहाँ जहाँ जाए वहाँ । इसका ये चंचल गोपाल कभी दुकान में बैठे बैठे कहता ..लड्डू खिलाओ ….कुन्दन लाल अपने बेटे के लिए लड्डू लेकर आता …कभी रबड़ी ।

एक दिन दुकान से घर लौटते समय वर्षा हो रही थी …मार्ग में कीचड़ हो गया था ….अन्धकार छाया था कुन्दन लाल गिर पड़े , चोट लगी लेकिन इसे अपनी कहाँ परवाह थी …गोपाल बेटे ! तुझे चोट तो नही आयी ? इसका गोपाल बोला …ये , यहाँ चोट लगी है ….चल ! मार्ग में एक हकीम जी थे उनसे गोपाल के लिए मरहम लेकर घर आए ….मरहम लगा दिया …अब दो रोटी बनाकर गोपाल को खिला कर खुद सत्तू पानी में घोल पीकर सो गये ….घुटनों में चोट लगी लाला कुन्दन लाल के ।

रात्रि में कौन ? लाला उठा, कोई कोमल हाथ लाला के घुटनों में मरहम लगा रहे थे …”मैं हूँ “ तेरा गोपाल “ ओह ! लाला के अश्रु बहते रहे ..जब जिद्दी उसका गोपाल बोला ..पिता जी ! सेवा तो बेटे का धर्म है ।


लाला अब वृद्ध होने को आया है …अस्सी के लगभग आयु लाला की हो रही है ….किन्तु इसका बेटा तो बड़ा नही हुआ …उतना ही छोटा है ।

गोपाल ! एक दिन कुन्दन लाल ने कहा ….मुझे यमुना जल चाहिए …मेरे पास खतम हो गया है ….मैं यमुना जल से ही तुझे नहलाता हूँ …इसलिए मुझे श्रीवृन्दावन जाने दे । पर मैं कहाँ रहूँगा ? दो दिन के लिए तू पड़ोसी के यहाँ रह जाना …वो तेरी सेवा करेंगे । रहने दे ना बाबा ! मैं तेरी तरह सामान्य पानी से ही नहा लूँगा …पर अब तेरे बिना मेरा मन नही लगेगा …तू मत जा । अच्छा ! कुन्दन लाल ने मान ली बात …माननी ही पड़ी ..क्या करता लाला कुन्दन । इसका बेटा नही रह पाएगा इसके बिना और ये भी तो । नही गया श्रीवृन्दावन ।

समय बीतता गया ….और एक दिन लाला कुन्दन लाल दुकान में बैठा बैठा देह त्याग देता है ।

बनिया समाज जुटा …..सम्पत्ति किसके नाम ? तो इसने अपनी सारी सम्पत्ति दुकान मकान आदि अपने बेटे गोपाल के नाम कर दी थी । ये गोपाल कौन है ? और लाला कुन्दन का बेटा ?

अर्थी तैयार की गयी …..श्मशान में सब लोग मिलकर ले गये …चिता तैयार की …और जैसे ही अग्नि देने की बारी आयी ….कौन देगा आग ? मैं दूँगा ….एक आवाज सामने से आयी ….वो बड़ा सुन्दर सा लड़का था ….संवारा सा , घुंघराले उसके केश थे ……क्या कहें ! उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे ..उसके सिर में घड़ा था …..ये यमुना जल है ….मैं लाला कुन्दन लाल का बेटा हूँ गोपाल । पर हमने कभी देखा नही …बनिया समाज ने कहा …मैं श्रीवृन्दावन में रहा …इसलिए मुझे नही देखा होगा ….मेरे पिता जी की इच्छा थी की यमुना जल के लिए ….वो ये कहते हुए रोने लगा ….उसने पिता को चिता से उतारा यमुना जल से स्नान कराया …सुन्दर पीताम्बरी पहनाई …तुलसी की लकड़ी रखी , देह को चिता में रखा और परिक्रमा देते हुए अग्नि दी ।

कहते हैं अग्नि बुझने तक वो वहीं बैठा रहा …फिर अश्रु पोंछते हुये गोपाल चला गया ।

ये सत्य घटना है ………
[4/22, 8:05 PM] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (160)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

रासलीला का अन्तरंग-2

बोले कि नहीं, उनका भी प्रेम पूर्ण नहीं है क्योंकि वियोग के तराजू पर जिसका प्रेम कभी तौला नहीं गया, उसका प्रेम पूर्ण है, इसका पता कैसे लगे? तो बोले- भाई सारस का भी प्रेम पूरा नहीं और चक्रवाक-चक्रवाकी का भी प्रेम पूरा नहीं, तो प्रेम पूरा होवे कैसे? बोले कि चंद्रमा और चकोर का प्रेम पूर्ण है? तो बोले- नहीं, चंद्रमा और चकोर के प्रेम में भला क्या रखा है? इसी प्रकार कुई (कुमुदिनी) और चंद्रमा के प्रेम में पूर्णता कहाँ है? फिर प्रेम का पता कैसे लगे? तो बोले कि बस एक काम हमारे हाथ में दे दो, तो हम प्रेम का पता बता दें। वह क्या? कि हम दिन भर में सौ मर्तबा चकोर को चंद्रमा बना दें, और चंद्रमा को चकोर बना दें। तो चंद्रमा चकोर बनकर देखेगा कि चकोर के हृदय में चंद्रमा से कितनी प्रीति होती है। और चकोर को मालूम पड़ेगा कि चंद्रमा को चंद्रमा बना दें, और चंद्रमा को चकोर बना दें। तो चंद्रमा चकोर बनकर देखेगा कि चकोर के हृदय में चंद्रमा से कितनी प्रीति होती है। और चकोर को मालूम पड़ेगा कि चंद्रमा कितना रसीला है।

चंदा चकोर होय पीवै यदि चकोर चंद्रमा अपने रस का आस्वादन करे तब उसको मालूम होगा कि चंद्रमा का रस पीने में कितना स्वाद आता है। और यदि चकोर चंद्रमा हो जाय तब देखे कि चकोर उसके साथ कितना प्रेम करता है। मछली पानी हो जाया करे और पानी मछली हो जाया करे तब पानी में कैसा रस है और मछली में कैसी प्यास है यह एक-दूसरे को मालूम पड़े जब तक दोनों अलग-अलग हैं तब तक प्यास और रस दोनों का आस्वादन नहीं होगा। तो देखो, यहाँ कृष्ण गोपी हो जाते हैं, और गोपी कृष्ण हो जाती है।+

राधा कृष्ण हो जाती है और कृष्ण गोपी हो जाते हैं; इसका वर्णन है श्रीमद्भागवत में-

कस्याश्चित्पूतनायन्त्याः कृष्णायन्त्यपिबत्स्तनम।[1]
दुष्टाहे गच्छ जातोऽहं खलानां ननु दण्डधृक ।।[2]

कोई एक गोपी हो गयी कृष्ण और दूसरी बन गयी पूतना। दूसरी बोली और देखो-देखो, मैं कृष्ण, मेरी गति देखो, कैसी सुन्दर चाल से मैं चलती हूँ। कृष्णोऽहं पश्यतगतिं ललितामिति तन्मताः गोपी कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण करती कृष्ण हो गयी, राधा आपहि श्याम भई। ब्रह्म चैतन्य में द्रष्टा और दृश्य का भेद नहीं है। जैसे ब्रह्मसत्ता में कर्ता और कर्म का भेद नहीं है, ऐसे आनन्दसत्ता में भोक्ता और भोग्य का भेद नहीं है। प्रेम में राधा और कृष्ण का भेद नहीं है।

ऐसा अखण्ड प्रेमरस से परिपूर्ण यह श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम जो है, वह प्रेम मालिक है। और राधा-कृष्ण दोनों उसके स्वरूप खिलौना हैं। वह प्रेम राधा को कृष्ण बनाकर खेलता है, कृष्ण को राधा बनाकर खेलता है; वह दोनों को बनाता है, बिगाड़ता है, प्रेम मालिक है। सारी सृष्टि को चलाने वाले कृष्ण हैं और कृष्ण को चलाने वाला है प्रेम। प्रेम कृष्ण का सेवक नहीं है, कृष्ण का मालिक है। व्रजवासियों के प्रेम के निरूपण में एक विशेषता है। क्या? वे कहते हैं- प्रेम समुद्र है, और राधा और कृष्ण उसकी दो तरंगें है। राधा और कृष्ण विवर्त हैं, और विवर्ती है प्रेम, आनन्द-ब्रह्म। राधा-कृष्ण में भोक्ता-भोग्य का भेद नहीं है असल में तो प्रेम ही प्रेम है, रस ही रस है।++

रासलीला का अन्तरंग-3

गोपी में काम का स्वरूप संस्कृत भाषा में एक ग्रंथ है ‘प्रेमपत्तनम्’ प्रेम का शहर, प्रेम की नगरी; ‘पत्तनम्’, माने शहर जैसे दक्षिण में विजिगापत्तनम्, विशाखापत्तनम्। ‘पत्तनम्’ को अंग्रेजी वालों ने पट्टनम् कर लिया है। उसी से बिहार में जो ‘पटना’ शहर है वह ‘प्रेम-पत्तनम्’ ही है। अब उस ‘प्रेम-पत्तनम्’ नामक ग्रंथ में कथा है कि ये जो वेद हैं वे तो उस प्रेम की नगरी की चहार-दीवारी हैं, उसकी रक्षा करती है। बड़े-बड़े इतिहास-पुराण-न्याय वैशेषिक शास्त्र सब उसकी रक्षा में लगे रहते हैं। और प्रेमपत्तनम् के राजा का नाम है- मधुर-मेचक। मेचक माने श्याम, काला। तो मधुर कृष्ण, मधुर श्याम वहाँ के राजा हैं। उन्होंने पहले एक ब्याह कर रखा था, उनकी श्रीमती थीं शास्त्राभ्यास की पुत्री ‘मति’।

मतिदेवी से ब्याह कर रखा था। बाद में कहीं अकस्तमात्- ‘रति’ से उनकी देखा-देखी हो गयी, तो घर में ले आये ‘रति’ को। (रति माने प्रीति) इस पर ‘मतिदेवी’ को बड़ा गुस्सा आया और वह प्रेमपत्तनम् छोड़करके फिर अपने पिता ‘शास्त्राभ्यास’ के घर चली गयी, और पतिव्रता धर्म का पालन करने लगी। जब ‘प्रीति’ का राज्य हुआ प्रेमपत्तनम् में, तो उन्होंने कुछ कानून बनाये। मधुर-मेचक को बिलकुल अपने वश में करके उन्होंने पुराने सब कानून पलट दिये। उलटा हो गया सब। तो वही उलटे कानून की जो नगरी है उसका नाम है प्रेमनगरी; और उसका नाम है वृन्दावन! जिन्होंन यह पुस्तक लिखी है उन्होंने वहाँ बताया है कि प्रेमनगरी में चौंसठ कानून लागू होते हैं। उनमें से सिर्फ एक कानून की चर्चा मैं अभी करने वाला हूँ क्योंकि वे सब कानून सुनने में और समझने में काफी देर लगेगी।

बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।
क्ष्वेत्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणामुत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ।।

तो प्रेमपत्तनम् की एक धारा मैं सुनाता हूँ। श्रीकृष्ण ने रास के प्रसंग में क्या किया? कि गोपियों के हृदय में काम को उद्दीप्त किया- उत्तम्भयन् रतिपतिम्। कल सुनाया था कि काम को उद्दीप्त करने का अर्थ यह हुआ कि पहले जैसा गोपियों के हृदय में काम रहा ही न हो! श्रीकृष्ण ने काम को जागृत किया और जगाने के लिए बड़ी कोशिश करनी पड़ी- बाहुप्रसार, परिरम्भण- इत्यादि, जो इस श्लोक में है।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻

Niru m: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 8 . 21
🌹🌹🌹
अव्यक्तोSक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् |
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम || २१ ||

अव्यक्तः – अप्रकट; अक्षरः – अविनाशी; इति – इस प्रकार; उक्तः – कहा गया; तम् – उसको; आहुः – कहा जाता है; परमाम् – परम; गतिम् – गन्तव्य; यम् – जिसको; प्राप्य – प्राप्त करके; न – कभी नहीं; निवर्तन्ते – वापस आते हैं; तत् – निवास; परमम् – परं; मम – मेरा |

भावार्थ
🌹🌹🌹
जिसे वेदान्ती अप्रकट और अविनाशी बताते हैं, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है |

तात्पर्य
🌹🌹🌹

ब्रह्मसंहिता में भगवान् कृष्ण के परमधाम को चिन्तामणि धाम कहा गया है, जो ऐसा स्थान है जहाँ सारी इच्छाएँ पूरी होती हैं | भगवान् कृष्ण का परमधाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है और वह पारसमणि से निर्मित प्रसादों से युक्त है | वहाँ पर वृक्ष भी हैं, जिन्हें कल्पतरु कहा जाता है, जो इच्छा होने पर किसी भी तरह का खाद्य पदार्थ प्रदान करने वाले हैं | वहाँ गौएँ भी हैं, जिन्हें सुरभि गौएँ कहा जाता है और वे अनन्त दुग्ध देने वाली हैं | इस धाम में भगवान् की सेवा के लिए लाखों लक्ष्मियाँ हैं | वे आदि भगवान् गोविन्द तथा समस्त कारणों के करण कहलाते हैं | भगवान् वंशी बजाते रहते हैं (वेणु क्वणन्तम्) | उनका दिव्य स्वरूप लोकों में सर्वाधिक आकर्षक है, उनके नेत्र कमलदलों के समान हैं और उनका शरीर मेघों के वर्ण का है | वे इतने रूपवान हैं कि उनका सौन्दर्य हजारों कामदेवों को मात करता है | वे पीत वस्त्र धारण करते हैं, उनके गले में माला रहती है और केशों में मोरपंख लगे रहते हैं | भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण अपने निजी धाम, गोलोक वृन्दावन का संकेत मात्र करते हैं, जो आध्यात्मिक जगत् में सर्वश्रेष्ठ लोक है | इसका विषद वृतान्त ब्रह्मसंहिता में मिलता है | वैदिक ग्रंथ (कठोपनिषद् १.३.११) बताते हैं कि भगवान् का धाम सर्वश्रेष्ठ है और यही परमधाम है (पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा परमा गतिः) | एक बार वहाँ पहुँच कर फिर से भौतिक संसार में वापस नहीं आना होता | कृष्ण का परमधाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न हैं, क्योंकि वे दोनों एक से गुण वाले हैं | आध्यात्मिक आकाश में स्थित इस गोलोक वृन्दावन की प्रतिकृति (वृन्दावन) इस पृथ्वी पर दिल्ली से १० मील दक्षिण-पूर्व स्थित है | जब कृष्ण ने इस पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था, तो उन्होने इसी भूमि पर, जिसे वृन्दावन कहते हैं और जो भारत में मथुरा जिले के चौरासी वर्गमील में फैला हुआ है, क्रीड़ा की थी |

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