Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🦚भाग *1️⃣4️⃣6️⃣🦚*
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 1

*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
मेरे बड़े देवर भरत ! मैने देखा ………मेरे नाथ के भी नेत्र उन्हीं को खोज रहे थे उस अपार भीड़ में……..जगह तिल रखनें की भी नही थी अयोध्या की भूमि में और आकाश में ……सभी जगह लोग थे ………”श्रीरघुनाथ जी की जय जय जय” आकाश गूँज रहा था ….लोगों का उत्साह बढ़ता ही जा रहा था……..हम सब विमान में बैठे अपलक नीचे दृष्टि किये हुए थे ।
भरत भैया ! उनकी दृष्टि ऊपर थी………वो हाथ जोड़े ऊपर की ओर विमान को ही देख रहे थे…….विमान नीचे उतर रहा था ।
मैने देखा जैसे जैसे विमान नीचे की ओर जा रहा था ……वैसे ही भरत भैया के पद भी डगमगा रहे थे…भावोन्माद में …….उनके नेत्रों से अश्रु निरन्तर प्रवाहित हो रहे थे ।
मैं अब अपनें श्रीराम को देखनें लगी थी……क्या सोच रहे हैं मेरे श्रीराम ? इस बार मैं उनकी भावस्थिति समझ नही पा रही थी ।
ये करुणावरुणालय अपनों पर न्यौछावर हो जानें के लिये उत्सुक तो थे ही ………पर उसके आगे ? शायद आज तो भगवती सरस्वती भी कुछ न जान पाती कि मेरे श्रीराम के मानस में क्या चल रहा है ?
आज अयोध्या का उल्लास चरम पर था …………….
“श्रीराघवेंद्र सरकार की जय जय जय” धरा और गगन गूँज रहा था ।
आगये – आगये मेरे आराध्य !
भाव की उच्चस्थिति में विराजमान भरत चिल्ला उठे थे ।......ओह ! 14 वर्ष कम तो नही होते .......एक एक पल युगों के समान बिताये थे .........भरत भैया नें ।
पर रुक गए भरतभैया……..क्यों ? पीछे जा रहे हैं अब ……..भीड़ आगे बढ़ रही है ……..पर भरतभैया पीछे क्यों जा रहे हैं ?
मेरे मन का यह प्रश्न वाणी से प्रकट हो गया था ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-114”
( जय जय श्रीबलभद्र )
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……
श्रीबलभद्र भैया हम सब बृजजनन के पालक हैं …हाँ , बालक तौ कन्हैया है …वारौ कन्हैया ….हम सब कन्हैया कौ ध्यान रखें हैं …और हाँ , इन दिनों बलभद्र भैया हूँ कन्हैया कौ कछु अधिक ही ध्यान रख रहे हैं …जब तै कालीय कूँ नथ के कन्हैया आयौ है तब तै दाऊ भैया हर समय अपने अनुज के ही चिन्तन में लगे रहें । और हाँ …हम सबकूँ हूँ बाके ध्यान में लगाय राखो है ।
आज गौचारण में बहुत भूख लगी …..छाक आयी तौ होगी …लेकिन हम तौ आज वन में ही भटक गए हे ….हम ही बाहर नही निकल पा रहे …तौ छाक लायवै वारौ कहाँ तै हमें खोज लैतौ ।
अब तौ दोपहरी हूँ बीत गयी …..मारे भूख के हम सब परेशान है वै लगे ।
कन्हैया हमतै पूछ रो …कहा भयौ ? मैंने कही ….कन्हैया ! तू तौ बड़े बड़े राक्षसन कूँ मारे ….आज एक काम कर दै! कन्हैया बोलो …कह ..का बात है ? मैंने कही …हमें एक राक्षस बड़ौ ही परेशान कर रो है ….लाला ! तू मार दै । कन्हैया बोलो …कौन सौ राक्षस है ? मैंने सहज ही कही ..भूख , क्षुधा । कन्हैया ! अगर जे राक्षस नही होतौ तौ जीवन कितनौं सुन्दर है जातौ । मैं कह ही रह्यो हो …..कि दाऊ भैया बाही समय आय गए ……और पूछवे लगे ….कहा कह रो तू कन्हैया तै ? मैंने कही ….भूख लग रही है । तौ दाऊ भैया बोले …..तुम लोग हर बात कन्हैया तै काहे कूँ कहो हो ? विचारे कूँ दुःख होवै …..मत कहो ….मोतै कहो …दाऊ भैया बोले …..भूख लगी है ना ….तौ देखो सामने ….कितने सुन्दर ताल के फल है …..सुगन्धी हूँ आय रही है ……जाओ , और बड़े प्रेम तै खाओ ।
लेकिन ……….श्रीदामा इतनौ ही कह के चुप है गयौ ।
लेकिन कहा ? दाऊ भैया ने पूछी ।
दाऊ भैया ! वहाँ एक गधा रहे है ……कन्हैया अब हंस्यो ।
हाँ , सच में दाऊ भैया ! वहाँ एक गधा है ….जो ताल वन की रक्षा में है । लेकिन गधा तौ फल खावै नही है ? दाऊ पूछवे लगे ।
मैंने हँसते भए कही ….भैया ! तभी तौ गधा है । अब फिर मेरी बात पे सब हँसवे लगे ।
कन्हैया तू रुक , आज मैं देखूँगौ वा राक्षस कूँ …..जे कहते भए दाऊ भैया हम सब कूँ लै कै बा ताल वन में पहुँच गए ……अब तौ हमें विश्वास है कि कोई हमारौ कछु बिगाड़ नही सके है …या लिए हम सब निश्चिन्त है कै ताल के फल तोड़ तोड़ के खायवे लगे …….तभी एकाएक एक विशाल पर्वत उड़तौ भयौ आयौ , दाऊ भैया झुक गए , तौ पर्वत दूर जाएके गिरौ हो ।
कन्हैया पीछे तै बोलवे लगे ….भैया ! जे धेनुक राक्षस महाबली है बच के ……..
दाऊ बोले …कन्हैया ! तू मत आ यहाँ ….तू वहीं रह …कितनौं हूँ बड़ौ बली होय ….मैं देख लूँगौ …तू वहीं रह । लेकिन गधा असुर हूँ उद्दण्डी हो …..वो दौड़तौ भयौ आयौ …..दाऊ देख रहे हैं ……आय के दुलत्ती बलभद्र के ऊपर मारनौं शुरू कियौ …..दाऊ तौ बचते रहे ….लेकिन याकी दुलत्ती जब गलती तै पहाड़न में पड़ती तौ पहाड़ गिर पड़ते …..जे देखके सब ग्वाल बाल परेशान है गए …….लेकिन असुर अभी भी मारवे में लग्यो भयौ है ।
लेकिन अब दाऊ भैया के पीछे जायके जब याने लात मारवे कौ प्रयास कियौ …..सब हम ग्वाल बाल चिल्लाए ….दाऊ भैया ! पीछे ……जैसे ही दाऊ भैया ने पीछे देखी ….असुर लात मारवे ही वारौ हो कि छ्ट्ट तै बाके पाँव दाऊ भैया ने पकड़ लिए ….अब तौ बाकूँ दाऊ घुमाएवे लगे …..हम सब सखा करतल ध्वनि कर रहे हैं …..दाऊ भैया ! दाऊ भैया ! सब जोर जोर तै बोल रहे हैं ….गधा चीख रह्यो है …लेकिन दाऊ जी छोड़ नही रहे …..बड़ी तेजी तै बाकूँ घुमाय रहे हैं ….एक घड़ी घुमाय के दाऊ जी ने जब बाकूँ छोड़ो…..तौ वो धेनुक असुर पहाड़ी तै जाय के टकरायौ ….पहाड़ी चूर्णचूर्ण है गयी ……
लेकिन हम सब आनंदित है गए …….बलभद्र भैया के पास में कन्हैया गए और हँसते भए बोले ….का भैया ! गधा कूँ मार दियौ ? बलभद्र रिसाय गए …और बोले …जे का सामान्य गधा हो ? कन्हैया बोले …गधा तौ गधा है ……..कन्हैया की बात पे सब हँसवे लगे …..तभी नभ तै पुष्प बरसन लागे । सब जयजयकार करवे लगे हैं ….बोलो …जय जय श्रीबलभद्र ।
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - २४*
*🤝 ७. व्यवहार 🤝*
_*शरीर की रचना*_
*शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारकम्।*
*अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञैस्तत्त्वमात्मनः ॥*
शब्दशास्त्र अपार है और इस कारण वह महान् अरण्य के समान है। अरण्य में प्रवेश करने पर भूल हो ही जाती है और इससे चित्त अवश्य ही भ्रम में पड़ जाता है। अतएव समझदार मनुष्य प्रयत्न करके आत्मतत्त्व को जान ले— अर्थात् मैं कौन हूँ और यह शरीर क्या है, यह समझ ले ।
यह शरीर क्या है, यह विचार आने के साथ ही कवि कालिदास की यह परिचित पंक्ति याद आती है -
*'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।'*
हम मनुष्य हैं; इसलिये यह तो कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि हमारी चर्चा भी मानव-शरीर के सम्बन्ध में ही होगी । तात्पर्य यह है कि धर्म की साधना के साधनों में शरीर सर्वप्रथम साधन है। अर्थात् शरीर के बिना धर्म की साधना हो ही नहीं सकती। अब प्रश्न यह है कि धर्म की साधना से अभिप्राय क्या है । हमारे शास्त्रों ने मनुष्य के लिये चार पुरुषार्थ बतलाये हैं— *धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष*। इनमें से बीच के दो- अर्थ और काम तो अधिकांश में प्रारब्ध के अधीन हैं; क्योंकि शरीर सुख-दुःख का भोग भोगाने के लिये उत्पन्न होता है और इस कारण वह भोग जन्म के साथ ही निर्मित हुआ होता है। इस बात को समझाते हुए प्रह्लादजी अपने सहाध्यायियों से कहते हैं-
*सुखमैन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम्।*
*सर्वत्र लभ्यते दैवाद् दैवाद् यथा दुःखमयत्नतः ॥*
भाव यह कि हे दैत्यो! तुम को ईश्वर की शरण लेकर सुख-दुःख में समान रहना सीखना चाहिये; क्योंकि सुख और दुःख दोनों अपने ही किये हुए कर्मों के फलरूप में जन्म के साथ ही निर्मित हुए होते हैं। जैसे दुःख अनायास आ जाता है, वैसा ही सुख के लिये भी समझना चाहिये; क्योंकि दोनों का निर्माण दैव के द्वारा ही हुआ होता है।
*अब रहे धर्म और मोक्ष; इनकी प्राप्ति के लिये शरीर ही सर्वप्रथम साधन है। अब धर्म-साधना का अर्थ इतना ही हुआ कि धर्मपरायण जीवन बिताते हुए यथा प्राप्त सुख-दुःख को समानभाव से भोग ले और अन्तिम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति का ही रखे । शरीर की सारी प्रवृत्तियाँ इस प्रकार की होनी चाहिये कि जिनसे अन्तिम ध्येय को हानि न पहुँचे।*
अब यह देखना है कि शरीर की रचना कैसी है। श्रीशंकराचार्य इस सम्बन्ध में कहते हैं-
*पञ्चीकृतमहाभूतसम्भवं कर्मसञ्चितम् ।*
*शरीरं सुखदुःखानां भोगायतनमुच्यते॥*
तात्पर्य यह कि यह शरीर आकाशादि पंचमहाभूतों का बना हुआ है। जीव को अनेक जन्मों के किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फल, सुख-दुःख को भोगने के लिये एक निश्चित समय के लिये यह प्राप्त हुआ है। सुख-दुःख का भोग भोगना ही पड़ता है। इच्छा हो या न हो, जीव को यह शरीर छोड़ना ही पड़ता है। इसी कारण इसको क्षणभंगुर कहते हैं; क्योंकि किस क्षण भोग समाप्त होगा और शरीर छूट जायगा, इसका पहले से ज्ञान नहीं होता। इस स्थिति का वर्णन करते हुए श्रीशंकराचार्य कहते हैं-
*नलिनीदलगतसलिलं तरलम् ।*
*तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ॥*
कमल की पँखुड़ी पर पड़ी हुई जल की एक बूँद जैसे तनिक भी पवन के लगते ही गिर पड़ती है, उसी प्रकार जीवन का अन्त भी क्षणमात्र में हो जाता है। काल किसी के ऊपर दया नहीं करता।
*'न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वा कृतम् ।'*
अर्थात् अमुक मनुष्य ने अपना हाथ में लिया हुआ काम पूरा कर लिया या नहीं, मृत्यु इसकी राह नहीं देखती। वह तो समय आते ही धड़ से शरीर को ले लेती है।
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
Niru Ashra: ( सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-37
प्रिय ! बकरी ने “मैं मैं” कही कबीर कटायो सीस…
(श्री कबीर दास)
मित्रों ! कुछ दिन पहले नारायण दास
हम दोनों यमुना जी के किनारे शाम को टहल रहे थे
…तभी नारायण का फोन बजा… नेपाल से
फोन था… वहाँ चुनाव होने जा रहे हैं तो
किसी ने आशीर्वाद माँगा था नारायण दास
से…उसने कहा हमारा पूरा आशीर्वाद है कि
तुम जीत ही जाओगे । मैं सुन रहा था… तभी
दूसरा फिर फोन आया… वो भी उसके
रिश्तेदारों का ही था… उनके यहाँ कोई
बीमार था… उसके लिए भगवान से प्रार्थना
करने की बात कही थी… तो नारायण दास ने फोन
में कहा… चिन्ता न करो… ठीक हो जायेगा
मैं कह रहा हूँ ।
मैंने नारायण से कहा… तुम्हारे बैंक के
खाते में पैसे हैं कि नही ये तो देख लो
…बैंक बेलेंस कितना है ये तो देख लो
…उसके अनुसार खर्च करना…बैंक में तो
खाली खाता चल रहा है… और यहाँ तुम सबको
लुटाते जा रहे हो ।
नारायण मेरी बात समझा नही… बोला… महाराज !
आप क्या बैंक बेलेंस बोल रहे हैं मैं समझा
नही । मैंने कहा… नाम जप का धन कितना
जमा किया है तुमने ?… साधना कितनी करते
हो ?… ध्यान में कितना बैठते हो ?
…नारायण ने कहा – महाराज ! मेरे पास तो
ये कुछ भी नही है… मैंने कहा… फिर सबको
क्यों बोल रहे हो कि “हो जाएगा – हो जाएगा” ।
किसी को आशीर्वाद दे रहे हो चुनाव में जीत
जाओगे… किसी को आशीर्वाद दे रहे हो… कि
बीमारी ठीक हो जायेगी…कैसे ?
नारायण ने कहा… भगवान करेंगे ना ठीक तो
…मैंने कहा… पर तुमने तो स्वयं
अपने को ही “कर्ता” बना लिया ना !…भगवान
का नाम कहाँ लिया ?… भगवान करेंगे ऐसा कहाँ
कहा… तुमने तो अपने को ही सबकुछ मान कर
उसको बोल दिया “हो जाएगा” । क्या मेरी वाणी
की रक्षा भगवान नही करेंगे ?
मैंने कहा क्यों करेंगे ?…तुम तो “कर्ताभाव”
से ग्रस्त हो गये हो… तुम तो “मैं” ही करने
वाला हूँ… ऐसी सोच बना लिए हो…तो भगवान
क्यों करेंगे ?…तुम्हारे साथ तो कर्म
का हिसाब होगा…कर्म का सिद्धान्त तुम पर
लागू होगा । “जो जस करहिं सो तस फल चाखा”
…यमुना जी में शीतल हवा चल रही थी
…हम लोग धीरे धीरे चल रहे थे…मैंने
नारायण से कहा… नारायण ! कर्म की गति बहुत
गहन है… कर्म और भाग्य के झंझट में फंसोगे
तो कभी निकल नही पाओगे ।
पर महाराज ! मैं तो वैष्णव हूँ… भगवत्
शरणागति ले चुका हूँ… मैं तो कर्म बन्धन से
मुक्त हो ही गया ना ?…फिर मैं कर्म और भाग्य
के झंझट में क्यों फसुंगा ? मुझे हँसी आई… मैंने कहा
- मस्तक में मात्र तिलक लगाने से तो शरणागति
होती नही है… गले में तुलसी की कण्ठी पहनने
मात्र से तो कोई भगवत् शरणागत हो नही जाता ।
फिर ?…मैंने कहा… नारायण ! अन्तःकरण
मुख्य है… और अन्तःकरण यानी मन, बुद्धि
चित्त अहंकार… ये चारों भगवान के प्रति
झुक जाएँ… मन भी , बुद्धि भी, चित्त भी और
अहंकार भी ।
मन , उसी के रस में डूबा रहे , बुद्धि उसी का
चिंतन करे… चित्त में वही बस जाए… और
अहंकार उसी में समा जाए… यानी हमारा
कर्तृत्वाभिमान (मैं ही करने वाला हूँ)… मिट
कर… करने वाला वही है…मैं तो यन्त्र
हूँ…पर इस यन्त्र को चलाने वाला “यंत्री”
वही है… । क्या ऐसी शरणागति हमारी
है ? नारायण ! क्या ऐसे साधक हम हैं ? ..
नारायण ने कहा… नाव लें… यमुना जी के पार
जाकर वहाँ बैठेंगे… हम दोनों नाव को बुलाकर
पल्ली पार चल पड़े ।
नारायण ने मुझ से पूछा- महाराज ! आप कहते हैं
“मैं करने वाला हूँ” यानि कर्तृत्वाभिमान को
त्यागना ही शरणागति है… यानी “मैं” नही
मात्र “तू” । तो साधना करना… मैं साधना
कर रहा हूँ…मैं नाम जप कर रहा हूँ… मैं ध्यान कर रहा हूँ…तो ये क्या कर्तृत्वाभिमान नही है ? इससे क्या “कर्ताभाव” पुष्ट नही होता ? ।
मैंने कहा…नारायण ! ये साधना इसी कर्ता
भाव से मुक्त होने के लिए ही तो
है…कर्तृत्वाभिमान से मुक्ति पाने के लिए
ही तो ये साधना है…नारायण ! काँटे से ही
काँटा निकलता है, है ना ?
नारायण ! अगर साधना को छोड़कर हम अगर मात्र
बातें ही बनाते रहे… तो कुछ नही मिलेगा
…क्यों कि हमारे अंदर ये “कर्ता भाव”
इतना गहरा घुस गया है कि ये “कर्ताभाव” से ही
निकलेगा… जैसे काँटा काँटे से निकलता है ।
मैंने कहा… नारायण ! मैं इतना धनी, मैं इतना
बुद्धिमान, मैं इतना प्रसिद्ध, मैं इतना सुंदर
…ये “मैं मैं”… जो भरा हुआ है ना
…इसको निकालने के लिए… मैं साधक, मैं
भक्त, मैं एक ध्यानी, मैं उस ईश्वर का प्रेम
रूप…ये आवश्यक है… इसके बिना केवल
बातों से कर्ता भाव नही जाएगा । अन्तःकरण
में कर्तृत्वाभिमान बना ही रहेगा… पर
साधना की शुरुआत होती जरूर कर्ताभाव से है
…पर ये साधना का “कर्ताभाव”
…कर्ताभाव को मिटाने के लिए ही है… ।
हम लोग यमुना के उस पार जा चुके थे…नाव से
उतरे…फिर जब चलने लगे तो नारायण ने फिर
पूछा… महाराज ! फिर ऊँची स्थिति में तो
“कर्ताभाव” रहता नही होगा ?…मैंने कहा
…नारायण ! ये प्रेम-साधना है… वैसे
भी साधारण ज्ञान के मार्ग में भी कर्ताभाव मिट
जाता है… फिर ये तो प्रेम का दिव्य
मार्ग है… इसमें कहाँ “कर्ताभाव” ?…इसमें
तो तू जहाँ ले जाए… तू जहाँ रखे… तू
जो करे…तेरी राजी में ही हम राजी हैं ।
नारायण ने कहा… पर कर्ताभाव को छोड़ना आवश्यक क्यों है ?
मैंने कहा… मत छोड़ो “कर्ताभाव” को
…जाओ स्वर्ग, जाओ नर्क… भोगो सुख
दुःख… जन्म लेते रहो… फिर मरते रहो… ।
नारायण! ये सब “कर्ताभाव” के कारण ही तो
है…और अगर ये कर्तृत्वाभिमान तुमने छोड़
दिया… तो फिर न स्वर्ग रहेगा न नर्क
रहेगा… न कोई हिसाब किताब होगा अच्छे
बुरे का…… फिर तो आनंद ही आनंद होगा
…फिर जो भी होगा तुम मात्र निमित्त
रहोगे… तुम्हारे माध्यम से होगा… पर
करेगा भगवान… तुम निमित्त बनोगे… करेगा
वो… । नारायण ! मेरी “प्रेमसाधना”
मात्र ये बताती है कि… बाँसुरी बनो उस
अस्तित्व की…बाँसुरी बनो उन श्री कृष्ण
की…फूँक वही मारेगा…तुम बजोगे…वो
जो राग निकालना चाहेगा तुम से निकालेगा…फिर
तुम तुम नही रहोगे… वही हो जाओगे ।
नारायण का फोन फिर बजा, फोन को देखते ही बोला… महाराज एक आपके ही शिष्य हैं उनका फोन है… व्यापार चल नही रहा… आशीर्वाद मांग रहे हैं… क्या बोलूँ ?… मैंने कहा… उनको बोलो… ठाकुर जी सब अच्छा करेंगे… भगवान आपका मंगल करेंगे… । और नारायण ! भगवान सदैव मंगल ही करते हैं ।
“मैं मोहन की मुरली बनी, मुरलीधर बने मेरी माला”
Harisharan

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877