Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
*🦚भाग *1️⃣4️⃣6️⃣🦚*
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
आगये – आगये मेरे आराध्य !
भाव की उच्चस्थिति में विराजमान भरत चिल्ला उठे थे ।......ओह ! 14 वर्ष कम तो नही होते .......एक एक पल युगों के समान बिताये थे .........भरत भैया नें ।
पर रुक गए भरतभैया……..क्यों ? पीछे जा रहे हैं अब ……..भीड़ आगे बढ़ रही है ……..पर भरतभैया पीछे क्यों जा रहे हैं ?
मेरे मन का यह प्रश्न वाणी से प्रकट हो गया था ।
मेरे श्रीराम नें सजल नयनों से कहा …………..पागल है मेरा भरत …..सोचनें लगा कि – तू अपनें आपको बहुत बड़ा समझता है…….अरे ! ये करुणावरुणालय प्रभु असंख्य आतुर अयोध्यावासियों के लिये आये हैं …….तेरे लिए मात्र थोड़े ही ।
मेरे श्रीराम ऐसे बोल रहे थे ………जैसे भरत भैया के हृदय की आवाज सुन ली हो मेरे प्रभु नें …………..
और क्या ! ये तो अन्तर्यामी हैं…….घट घट की जानते हैं …..फिर अपनें प्रेमियों के हृदय की बात बता रहे हैं तो आश्चर्य क्या ?
तू किस गणना में है भरत ………..याद रख तेरे कारण ही इन दयानिधि नें अपार कष्ट पाया ……14 वर्षों तक ……..और इसके बाद भी तू अपनें आपको बड़ा भक्त कहता है …………….
वैदेही ! ये विचारते हुये मेरा भाई भरत पीछे जा रहा है ……
ये कहते हुये अश्रुपात होनें लगे थे मेरे श्रीराम के ……………
अपनों का अपराध देखना कहाँ सीखा है मेरे नाथ नें ……….भरत के भावोन्माद का वर्णन स्वयं मेरे श्रीराम कर रहे थे ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल …..!!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्ण सखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-115”
( बृज गोपिन कौ ध्यान )
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……..
प्रेम तौ करें बृजगोपियाँ….बहुत प्रेम करें अपने कन्हैया तै । तभी तौ दारीकौ कन्हैया इन गोपिन के आगे पीछे डोलतौ रहे …..काहे कूँ न डोले …..बड़े बड़े योगिन कौ मन कन्हैया में लग नही पावै ….अपनौं मन लगायवे के काजे जे कहा कहा नही करें …..लेकिन देखो अपनी इन बृजगोपिन कूँ …..कछु नही करें …..फिर भी इनकौ मन कन्हैया में ही लगे …..जे तौ चाहमें कि कन्हैया तै मन हटै …..लेकिन कन्हैया जा मन कूँ पकड़ लेय है वो मन कहीं और जा सके है का ? कन्हैया ने इन गोपिन को मन अपनी पिताम्बर की छोर तै बाँध दियौ है …….या लिए बेचारी कन्हैया के ही ध्यान में लगी रहें । नही नही , अब तुम जे मत सोचियों कि ध्यान के लिए जे आलथी पालथी मारके बैठती होंगी …..या नाक नाक दबाय के साँस कूँ बाहर भीतर फेंक के फिर ध्यान में बैठती होंगी ……तौ तुम गलत सोच रहे हो ……अरे ! जहां प्रेम नही होय ना …वहीं जे सब ढोंग धतूरौ करनौं पड़े ……जहां प्रेम होय वहाँ ध्यान चलते फिरते ही लग जावै । जहां प्रेम होय ना वहाँ प्रियतम कौ ध्यान हर समय बन्यो ही रहे है ।
अब देखौ यहाँ ……………..
कन्हैया हम सबके संग गौचारण में सबेरे ही श्रीवृन्दावन चलौ जाये है । तब जे बृजगोपियाँ कन्हैया कूँ निहारें ……खूब निहारें ……हाँ , बा समय इनके पलक हूँ नहीं गिरे हैं ….
वैसे कन्हैया जब सामने रहे …तब काहू गोपी के पलक नही गिरें …और अगर गिर गए तौ फिर विधाता कूँ गारी खूब देय हैं । कहें …पलक काहे कूँ बनाय या विधाता ने ..तो दूसरी कहे है …प्रेम कहा जानें विधाता, प्रेम कियौ होय तब तौ अपलक निहारवे कौ परम सुख समझ आवै ..अब विचारौ ब्रह्मा …बुद्धि कौ काम करते करते …हृदय की सुननी हूँ छोड़ दई है विधाता नै ।
अब बताओ !
बस – अब कन्हैया चलें गए हैं श्रीवन , तब गोपियन कौ ध्यान शुरू है जाये ….घर में भोजन बनानौं है ….बस कन्हैया के गीत गा रहीं हैं …और दाल बना रही हैं …कन्हैया के गीत गा रही हैं ….और रोटी बना रही हैं ….कन्हैया के नाम कूँ पुकार रही हैं । फिर घर में बुहारी लगाती हैं ….तब कृष्ण कृष्ण ही कहती हैं । हाँ , जब श्रीकृष्ण स्मृति तीव्र है जावै …..तब उनके हृदय में श्रीकृष्ण लीला प्रकट है जावै है ….और गोपियाँ अपने अपने घर में बैठके सहज ध्यान में लग जामें हैं ….
आहा ! प्रियतम कितने मनोहर हैं ।
इनकौ रंग तौ नीलमणि सौ है ….मन ही मन बोलतीं हैं ।
फिर- नही नही , नीलमणि तौ कठोर होय है …लेकिन अपनौं कन्हैया तौ माखन तै हूँ कोमल है ।
गोपी अब ध्यान में लीन है गयी है …जे ध्यान सहज है …आरोपित नही है ।
कान में कनेर के पुष्प , सिर में मोर कौ पंख …काँधे में काली कमरिया । फेंट में शृंगी और दूसरी ओर बाँसुरी ….क्या सुन्दर है ये नव किशोर । गोपी अब सुध बुध भूल रही है ।
चरण कितने कोमल हैं ……लाल लाल रंग के ……केशर लग्यो भयौ है , और वही केशर जब श्रीवन की अवनी में लग जावे तौ वन की जो भीलनियाँ हैं ना ….वो केसर कूँ लेकै अपने वक्ष में लगामें …जातै उनकी वासना शान्त है जावै है ।
अरे ! देखो तौ सही, नभ तै पुष्प बरस रहे हैं , कन्हैया ने तौ अब अपनी बाँसुरी अधर में धर लई है ….फूंक मार रहे हैं ………
गोपी कह रही है …….आहा ! कितने भाग हैं या वेणु के …..अधरन तै लगी है कन्हैया के ! हम इन अधरन कूँ सदैव चाहते रहमें लेकिन हमें तौ नाँय मिले …..जय हो तेरे भाग बाँसुरी ! कि कन्हैया तोकुँ अपने अधरन में पधराय के राखें हैं …..और इतनौं ही नही ……अपने पलकन तै पंखा और कर रहे हैं ……अरे , और तौ और या बाँसुरी के पाँव हूँ दवाय रहे हैं अपनी उँगली तै ।
हाय !
गोपी जे सब कहते भए भाव में डूब गयी है …..लम्बी लम्बी साँस लै वै लगी है गोपी …..तब बाकी सखी ने आयके गोपी कूँ संभाल्यो ……और कही ……लोग कहा कहेंगे ? अपने कूँ सम्भाल ।
तब गोपी बोली ……
नन्दलाल सौं मेरौ मन मान्यौ , कहा करैगौ कोय री ।
हौं तौ चरन-कमल लपटानी , होनी होय सो होय री ।।
सबतै श्रेष्ठ ध्यान यही है …….या ध्यान कै आगे सब ध्यान फीके हैं ।
क्रमशः…..
Hari sharan
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - २५*
*🤝 ७. व्यवहार 🤝*
_*शरीर की रचना*_
पातंजलदर्शनका एक सूत्र कहता है-
*'सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः॥'*
अर्थात् जबतक कर्मरूपी मूल है, तबतक शरीररूपी फल उत्पन्न होते ही रहते हैं और शरीर के उत्पन्न होने के पहले ही उसकी जाति, आयु और भोग निश्चित हो जाते हैं। अर्थात् जबतक कर्म हैं, तबतक जीव को अनेक योनियों में शरीर धारण करने पड़ते हैं और निर्मित सुख-दुःख के भोग शरीर की अवधिपर्यन्त भोगने पड़ते हैं। जैसे बीज में से वृक्ष होता है और वृक्ष फिर नये बीज पैदा करता है, उसी प्रकार कर्म में से शरीर उत्पन्न होता है और शरीर से फिर नये कर्म होते रहते हैं; अतएव इस चक्र का कभी अन्त नहीं होता। यह बात एक ग्रंथ के एक श्लोक में बहुत ही सरल रीति से समझायी गयी है। वह देखनेयोग्य है-
*क्रिया शरीरोद्भवहेतुरादृता*
*प्रियाप्रिये ते भवतः सुरागिणः ।*
*धर्मेतरा तत्र पुनः शरीरकं*
*पुनः क्रिया चक्रवदीर्यते भवः ॥*
‘किये गये कर्मों का फल भोगने के लिये जीव को शरीर धारण करना पड़ता है और फिर उस शरीर में आसक्ति होने से उसके द्वारा जीव प्रिय और अप्रिय अर्थात् राग-द्वेष-पूर्वक कर्मों को करता है, जिससे फिर उसे शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिये दूसरा शरीर धारण करना पड़ता है और फिर उस शरीर से कर्म होते हैं। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म-यों जन्म-मरण का चक्र चलता ही रहता है। इसका अन्त होता ही नहीं।'
*अब जिस सुख-दुःख का भोग भोगने के लिये जीव शरीर धारण करता है, उन भोगों को भोगे बिना काम नहीं चलता। अतएव दुःख का प्रसंग आनेपर व्याकुल होकर क्लेश न उठाये, बल्कि धैर्यपूर्वक शान्ति से उस भोग को भोग ले।*
इस बात को समझानेयोग्य बहुत धैर्य प्रदान करनेवाले इस श्लोक को देखिये-
*अवश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि ।*
*तदा दुःखर्न लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः ॥*
भाव यह कि किये हुए, कर्मों का फल भोगने से छुटकारा पाने का कोई भी रास्ता होता तो राजा नल, श्रीरामचन्द्रजी तथा धर्मराज युधिष्ठिर को दुःख नहीं भोगना पड़ता। वे तो बड़े सामर्थ्यवान् पुरुष थे, तथापि प्रारब्ध भोगे बिना चल न सका। फिर भला, अपने-जैसे सामान्य मनुष्यकी तो बात ही क्या। फिर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी तो पूर्ण पुरुषोत्तम थे, इसलिये उनकी कोई प्रारब्ध का भोग हो ही नहीं सकता; तथापि उन्होंने भी सामान्य मनुष्य के समान लीला करके मनुष्य को उपदेश दिया कि 'भाई! प्रारब्ध का भोग भोगे बिना किसी के लिये भी छुटकारा नहीं है।'
*यहाँतक हमने देखा कि यह शरीर पंचमहाभूतों का पुतला है और सुख-दुःख का भोग भोगने के लिये जीव को एक निश्चित काल के लिये मिला है। यह अति क्षणभंगुर है, तथापि मोक्ष की प्राप्ति के लिये सर्वप्रथम साधन है तथा इसकी प्राप्ति महापुण्य के प्रताप से ही होती है। हमने यह भी देख लिया कि मनुष्य-शरीर की सार्थकता धर्माचरणद्वारा मोक्ष की प्राप्ति कर लेने में है, विषय-भोग भोगने में नहीं; क्योंकि वे तो शरीर के जन्म के साथ ही निश्चित हुए होते हैं और उनको भोगने पर ही छुट्टी मिलती है, यह भी हमने देखा।*
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-38

प्रिय ! प्रियतम छबि नैनन बसी, पर छबि कहाँ समाय…
(श्री रहीम दास)
मित्रों ! प्रणाम योगिराज !… गौरांगी
ने नतमस्तक होकर प्रणाम किया । ये योगिराज… हिमालय से आये थे…और काशी जा रहे थे… तो इन्होंने सोचा कि वृन्दावन होता हुआ चलूँ ।
प्रातः यमुना के किनारे नहाने आये तो गौर
वर्णी अति सुंदर गौरांगी को देखा…”श्री
कृष्ण श्री कृष्ण” यही मुख से निकल रहा था ।
कौन हो तुम ?…आवाज़ में कर्कशता
थी… गौरांगी ने आँखें खोलीं और सामने जब
उन योगी को देखा गैरिक वस्त्र पहने हुये
…तब तुरन्त उठ कर गौरांगी ने प्रणाम
किया… प्रणाम योगिराज । थोड़ा सा सिर
हिलाकर प्रणाम स्वीकार किया उन योगिराज ने ।
क्या चाहती हो ?… तुम्हें युवावस्था
में ही वैराग्य हो गया… क्यों ? क्या
इच्छा है ?
हे योगिराज ! कुछ नही चाहती बस श्री कृष्ण
को पाना चाहती हूँ… बताओ ना… कैसे
मिलेंगे ?…उन योगिराज के अहं को सन्तुष्टी
मिली… हाँ बताऊंगा… इतना कह कर बालूका
में ही बैठ गये वह योगिराज । ऐसे नही
मिलेगा वह श्री कृष्ण… व्रत करो… उपवास
करो… तप करो… शरीर के भाव से ऊपर उठो
…और इसके लिए शरीर को उपवास करके
सुखा दो । गौरांगी हँसी…हँस क्यों
रही हो ?…ये सब शास्त्र में लिखी बातें
हैं… मैं प्रमाण दे सकता हूँ… ।
हे योगिराज ! कैसे शरीर को सुखा दूँ
…कैसे उपवास करूँ ? मेरे प्रियतम को ये सब
अच्छा नही लगता… मेरा प्यारा कहता है
…गौरांगी ! तू मुझे ख़ूब खिला और मेरा
झूठन खा… पता है योगिराज ! मेरा
प्रियतम मुझ से कहता है… झूठा खाने से प्रेम
बढ़ता है… वो तो नाराज होजाता है जब मैं उसे
बिना खिलाये खा लेती हूँ तो… हे योगिराज !
वो फिर 10 ,15 दिन तक मुझ से बोलता भी नही है
…कहता है…मुझे बिना खिलाये क्यों खायी ?
वो योगिराज हँसे… बोले… वैदिक
सिद्धान्त के अनुरूप बोल रहा हूँ मैं
…तुम क्या समझोगी । गौरांगी ने कहा
…हे योगिराज ! वेद त्रिगुण का ही तो वर्णन
करते हैं ना ?… सत्व रज तम… इन्हीं का ही
तो वर्णन वेद में है… है ना ?… पर मेरा
प्रियतम इन त्रिगुणों में बंधा नही है ।
..मेरा प्यारा इन सत्वगुण, रजोगुण,
तमोगुण इन सबसे परे, त्रिगुणातीत है
…क्या योगिराज ! आपको पता नही है कि
इसलिए ही तो वेद भी नेति नेति कह देते हैं
…है ना ?… योगिराज चकित थे… ये
क्या बोल रही है… इन योगिराज ने तो इस
गौरांगी को ऐसे ही मामूली नार समझ लिया था
…पर ।
हे योगिराज ! कहीं तुम किसी और कृष्ण के बारे
में तो नही बता रहे ?… योगिराज हँसे
…बोले… कृष्ण तो एक ही है… दो कृष्ण
कहाँ हैं ?… पर योगिराज ! आपकी बातें
सुनकर लग रहा है कि तुम्हारे कृष्ण अलग हैं
…और मेरे अलग ।
योगिराज ने कहा… कैसे ?… तुम्हारा कृष्ण
न्याय करता है… तुम्हारा कृष्ण निष्पक्ष है
…पर मेरा कृष्ण तो पक्षधर है… खुल कर
मेरा पक्ष लेता है… तुम्हारा कृष्ण पाप
पुण्य का हिसाब किताब देखता है… पर मेरा
कृष्ण तो बस प्रेम देखता है… मैंने आज तक
अपने कृष्ण को हिसाब किताब करते देखा ही
नही…वो तो प्रेम रस में निमग्न रहता
है… ।
किस जात की हो ?… “प्रेम जात”…क्या गोत्र
है… “प्रेम”…
क्या आश्रम है… “प्रेम आश्रम”… ।
हे योगिराज ! मैंने कहा ना… कि तुम्हारा
भगवान अलग है… और मेरा अलग है… अब देखो ना !
योगिराज !… आप का भगवान जात देखता है
…पर मेरा प्रियतम कहाँ जात देखता है
…जात किस की ?… इस देह की ?… अरे
योगिराज ! ये देह तो नाशवान है… इस देह की
सत्ता ही नही है… फिर ये किसी भी जात का हो
…क्या लेना देना ।
तुम्हारा भगवान क्या देखता है ?… उन
योगिराज ने पूछा… प्रेम देखता है
…बस प्रेम देखता है… ।
योगिराज बोले… नही तुम्हारे मन को देखता है
…भगवान । मन ही सबका मुख्य है… मन ही
देखता है… कि इसका मन कहाँ है… कहाँ लगा
है ये देखता है । गौरांगी हँसी… बोली
…योगिराज कभी प्रेम किया है ?… किसी से
भी प्यार हुआ है आपको ? योगिराज आँखें
दिखा कर बोले… ये क्या प्रश्न है ?
गौरांगी बोली…हे योगिराज ! प्रेम किया हो
तब न पता चले कि प्रेम में मन कहाँ रहता
है…प्रेम ऐसा तत्व है जिसमें मन कहीं और
जाएगा ही नही…जहाँ प्रेम होगा… मन वहीं
जायेगा…मन को प्रेम चाहिए… प्रेम में मन
लगाना नही पड़ता, लग जाता है… ।
साधना करती हो ?… अहँकार में भर कर उन
योगिराज ने फिर पूछा… गौरांगी रो गयी
…हे योगिराज ! क्या साधना करूंगी मैं
…मुझ नारी जात को क्या पता कि साधना क्या
होती है…
आप ही बता दो ना… कैसे करूँ
साधना ?… हाँ ये प्रश्न तुम्हारा अब ठीक
है… सुनो ! प्रणायाम करो… ये क्या
होता है योगिराज ?… साँस को खींचों और
फिर छोड़ो… ये तो सहज में ही हो रहा है
…अगर ये नही होगा तो ये शरीर भी नही रहेगा ।
योगिराज नाराज़ होते हुये बोले… ऐसे
साँस नही लेना…साँस गहरी लो… रोको…फिर
छोड़ो…।
गौरांगी फिर रो गयी… भर्राई हुई आवाज़ में
बोली… योगिराज !
आज रात में जब मैं अपने बिस्तर पर सोने के लिए
गयी ना… तो मेरा कृष्ण मेरे पास आया
…बस फिर क्या था… वो मेरे निकट आता
गया… और मैं उसके निकट जाती रही… और जब
हम दोनों में सारी दूरियां ख़तम हो गयीं… तब
मेरा प्राणायाम… यही कहते हो ना
…योगिराज ?… मेरी प्राणायाम शुरू हो गयी
…पूरक कुंभक रेचक…सब अपने आप होने लगा
…
हे योगिराज ! उसने मुझे छुआ…उसने मुझे
अपने बाहु पाश में बांध लिया… तब मेरा
प्रणायाम चल ही रहा था… मुझे लेना नही पड़
रहा था… सहज में हो रहा था ।
मौन हो गये योगिराज ! क्या ज़बाब देते ।
गौरांगी ने बड़ी मासूमियत से पूछा… योगी !
तुम्हें तो मिले होंगे ना… श्री कृष्ण
…बताओ ना… तुम्हारा क्या अनुभव रहा ?
…बताओ ना… योगिराज ! तुमने क्या अनुभव
किया जब मेरा प्रियतम तुम्हारे सामने प्रकट
हुआ तब ?… मैं बाबरी हूँ… मैं तो पागल हूँ
…मैं गवाँर हूँ… तुम तो वेद , शास्त्र
के ज्ञाता हो…तुम्हारे सामने जब मेरा
“प्राणाधार” प्रकट हुआ होगा… तो तुमने तो वैदिक
विधि से… बताओ ना… क्या किया तुमने…
…रोते हुये गौरांगी बोल रही थी… उसके आँसु
यमुना की रेत में गिरते ही सूख रहे थे
…बोलो ना ! योगी… मैं तो पागल हूँ
…वो जब जब मेरे पास आता है… मैं तो
सबकुछ भूल जाती हूँ… उसे पकड़ कर अपने
हृदय से लगाना ही मुझे आता है… और कुछ
जानती ही नही । सपने में ना ?… सपने
में मिलती हो ? योगी ने पूछा…गौरांगी का
मुख मण्डल लाल हो गया… दिव्य तेज़ से भर गयी
गौरांगी । और इतना ही बोली… सपना नही
…यहाँ सपने की बात नही हो रही… यहाँ
तो देखा देखि की बात है… इन्हीं आँखों से
…इन्हीं बाहुपाश में भर लिया था
…इन्हीं… । गौरांगी कहते कहते
रुक गयी… और नयनों से अश्रु प्रवाहित होने
लगे… “कृष्ण कृष्ण कृष्ण”… बस उसके
मुख से यही नाम निकल रहा था… । वो
योगिराज !… चकित थे… ये क्या हो रहा है
…मुझे… अपने देह को देखने लगे… उन
योगिराज के शरीर में रोमांच होने लगा… आज
तक कभी न रोये थे ये योगी… पर अब इनके आँखों से
अश्रु बहने लगे…वो कुछ समझ पाते कि
गौरांगी के “प्रेमसाधना” ने उन योगिराज को
पकड़ लिया था… वो एकाएक उठे… अपने
वस्त्रों सहित यमुना जी में गये और डुबकी
लगाई… बाहर आये… ।
गौरांगी की आँखें अभी भी बन्द थीं…उसके मुँह
से “श्री कृष्ण श्री कृष्ण श्री कृष्ण”
…यही निकल रहा था । योगिराज ने
गौरांगी को प्रणाम किया…गौरांगी की पग धूलि
अपने माथे से लगाई… और चल पड़े…प्रेम पन्थ की
और –
मेरे बाबा ठीक कहते हैं…प्रेम संक्रामक
होता है… छूने मात्र से फैलता है ।
ये सारी बातें मुझे गौरांगी ने बताई थीं… ।
“प्यारे तेरी रज़ा रहे, और तू ही तू रहे”
Harisharan

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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877