
Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣4️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे –
मैं वैदेही !
क्यों न हों रामप्रिया ! रावण नें इन्हें कम कष्ट नही दिया था ……और रावण को मारना सरल भी नही था ……..श्रीराम नें इनके उस कष्ट और दुःख का निवारण किया है …….उसके लिये ये दो फूल बरसानें के लिये आगये तो क्या बड़ी बात है ! त्रिजटा मुँह बनाकर बोली थी ।
ऋषिगण भी आकर मन्त्रोच्चार कर रहे थे …..इतना ही नही सम्पूर्ण प्रकृति ही मेरे श्रीराम के अयोध्या लौटनें की ख़ुशीयाँ मना रही थी ।
चारों ओर आनन्द का वातावरण था ……………..
नन्दी ग्राम …………….मेरे श्रीराम नें सबको बताया ।
मैने अब नीचे की ओर देखा ……………..लाखों नरनारी खड़े हैं स्वागत के लिये ………..लाखों दीये …….सुगन्धित तैल के दीये लेकर सब खड़े थे ………..शाहनाई बज रही थी ……….वीणा के तार एक साथ झंकृत करनें वाले कलाकार एक तरफ उच्च मंच पर बैठे थे ……………..
एक स्थान था ……जहाँ विविध फूलों की रंगोली बनाई गयी थी ……और ये इशारा था कि पुष्पक विमान यहीं उतरेगा ।
और मैने ये भी देखा कि ………….उसके बाद कमल फूल के पराग बिछाये गए थे ………….गुलाब के फूलों की पंखुड़ियां बगल से लगाई गयीं थीं ………चारों ओर पिचकारी से गुलाब जल और इत्र का छिड़काव किया गया था ……….और अभी भी हो ही रहा था ।
वैदेही ! देखो ! तुम्हारा भाई लक्ष्मी निधि !
मेरे श्रीराम नें मुझे बताया ।
मैने देखा ……..मेरी आँखें भर आईँ …………आर्य ! मेरे पिता जी भी खड़े हैं ……और मेरी मैया सुनयना भी ।
इतना ही नही ……मेरे जनकपुर से बहुत लोग खड़े थे हमारे स्वागत के लिये………मेरा भाई लक्ष्मी निधि तो एक टक विमान को ही देख रहा था ……..बेचारा ! कुछ बोलता नही है……..पर इसकी आँखें बहुत कुछ बोल देती हैं…….मुझे जनकपुर से विदा करते हुए यही तो सबसे ज्यादा रोया था …….छ महीना तक इसनें मेरे वियोग में अन्न जल कुछ नही खाया था…..मेरा भाई लक्ष्मी निधि मुझ से बहुत प्रेम करता है ।
देखो प्राण ! मेरा भाई माता सुनयना को बता रहा है ………..मैं यहां बैठी हूँ …..और आप इधर बैठे हैं ……….वो कितना खुश है ना ।
विमान अब धीरे धीरे उतरनें लगा था …………..
महामन्त्री सुमन्त्र की व्यवस्था अच्छी थी ……भीड़ को सम्भालनें के लिए सैनिकों को भी लगा दिया था……..ताकि मेरे श्रीराम को कोई कष्ट न हो…..पर मेरे श्रीराम महामन्त्री जी की व्यवस्था को हटाकर समस्त अयोध्यावासियों को अपनें हृदय से लगानें वाले थे ………..
शेष चरित्र कल ……!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: “श्रीकृष्णसखा ‘मधुमंगल’ की आत्मकथा-113”
( कारे दाऊ जी )
कल तै आगै कौ प्रसंग –
मैं मधुमंगल ……
दाऊ भैया दूसरे दिना बहुत रोष में हे ….रोष हो उनकौ राजा कंस के प्रति ….कि मेरे अनुज कन्हैया कूँ मारवे के काजे बाने दावानल लगाय दियौ ….ओह ! कहीं मेरे कन्हैया कूँ कछु है जातौ तौ ? दाऊ मोते बात कर रहे हैं …दाऊ श्रीदामा कूँ सावधान कर रहे हैं कि …कोई अपरिचित दीखे तौ कन्हैया के पास में आमन न पावै ।
किन्तु दाऊ भैया ! पतौ थोड़े ही रहे ….कि राजा कंस कौ राक्षस का भेष में आयौ है ? वो तौ हवा के रूप में हूँ आ सकें , वो तौ अग्नि के रूप में हूँ …तौ हम कैसे पहचाने कि जे राक्षस है ।
श्रीदामा की बात दाऊ भैया बड़ी गम्भीरता तै सुन रहे हैं ….बात गम्भीर है ….अरे ! बृजजीवन धन कन्हैया के प्राणन कौ प्रश्न है …या के प्राणन में समस्त के प्राण हैं …और फिर दाऊ भैया कौ अनुज संकट में …..तौ दाऊ भैया का अपने अनुज की रक्षा कौ ऊपाय नही खोज सकें हैं !
“कन्हैया कौ रूप सबकूँ पतौं है …दाऊ भैया ! कंस राजा अपने राक्षसन कूँ कन्हैया कौ रूप बतामें …..तभी तौ पहचान पामें राक्षस कन्हैया कूँ “। जे बात मैंने कही ….अब मेरी बात सुनके दाऊ भैया सोच में पड़ गए ………मैं भी देख रह्यो हूँ दाऊ भैया कूँ कि ‘कालीय लीला’ और ‘दावानल लीला’ के पश्चात कन्हैया की चिन्ता इनकूँ अधिक सतायवे लगी है ।
कहा बतातौ होयगौ कंस अपने राक्षसन कूँ ? दाऊ भैया ने फिर पूछी ।
मैंने कही …..भैया ! स्वरूप बतातौ होयगौ …..कि कारौ है ….मोर मुकुट पहनें …..पीताम्बर धारण करे …..दाऊ भैया सुनते रहे मेरी बात …..फिर उठ के चल दिए ।
श्रीदामा मोते पूछ रह्यो है …..का बात है , दाऊ कछु अधिक ही गम्भीर है गए हैं !
मैंने कही …..गम्भीर होनौं ही चहिए ……कन्हैया अनुज है ….और अपने अनुज के ऊपर संकट आवै तौ का ज्येष्ठ भ्राता ऊपाय नाँय करेगौ ? करैगौ ।
साँझ की वेला है गयी …..हम सब गैयान्ने घेर के, वापस घर की ओर लौट रहे ….तभी मैंने ही देख्यो …..कन्हैया एक कुँज तै निकस कै आय रह्यो है । लेकिन कन्हैया तौ अपने संग हो ……मैं सोच ही रह्यो हो कि ….तभी पीछे तै कन्हैया आय गयौ ।
लेकिन जे सामने कौन है ? मैं हँसतौ भयौ पूछ रो …..असली और नक़ली कौन है जल्दी पता करौ ……..कन्हैया पास में गये …..लेकिन एक ही क्षण में पहचान लियौ कन्हैया ने ……और पेट में गुलगुली लगाते भए बोले …..दाऊ भैया ! तू मेरे रूप में है ? मैं चकित है गयौ ……..फिर मैंने पूछी ….दाऊ ! तुमतौ गोरे हे …आज कारे कैसे है गए ? मैंने ही हँसते भए पूछी ….सबने पूछी ….तब दाऊ गम्भीर है गये …..अपने कन्हैया कूँ देखके उनके नेत्रन तै अश्रु धारा बहवे लगे ….दौड़के अपने हृदय तै लगाय लियौ ।
किन्तु भैया ! कारे दाऊ जी क्यों बने हो ? जब सबने जे प्रश्न कियौ …..तब अपने अश्रु पोंछते भए दाऊ भैया बोले …..मेरौ छोटौ सौ कन्हैया, बाके ऊपर बहुत सारे संकट आय रहे हैं ….और तौ और कंस राक्षसन कूँ भेजे तौ कन्हैया कौ वो रूप बतावे कि……कारौ कारौ है ….तौ देखो …राक्षसन ने तौ कन्हैया कूँ देखो नही है …वो सब तौ रूप सोचके ही आमें ….तौ मैंने सोची कि आज के बाद मैं हूँ कारौ रंग घिस के लगाऊँगौ ….मोर मुकुट पहनूँगौ ….ताकि कन्हैया के भूल में राक्षस मोकूँ लै जाए ……दाऊ भैया के नेत्रन में अश्रु पहली बार सब लोग देख रहे हैं …ऐसौ स्नेह आज तक काहूँ ने नही देख्यो हो …..अपने अनुज कन्हैया के कारण दाऊ ने कारौ रूप बनाय लियौ हो …..आवेश में भर गए दाऊ …..और बोले ….मैं हूँ कन्हैया ….राजा कंस ! मैं हूँ कन्हैया ….हिम्मत है तौ मेरे पास भेज अपने राक्षसन कूँ ….दाऊ बहुत क्रोधित है गए …..जे संकर्षण सबकौ हिसाब किताब करैगौ ।
दाऊ यही कहते भए हाथ में बाँसुरी लेकर कन्हैया की तरह, तृभंगी बाँके बनके खड़े है गये ।
जे झाँकी देखके सब ग्वाल बाल जयकारा लगायवे लगे …..
बोलो – कारे दाऊ जी की जय जय जय ।
( साधकों ! श्रीबाँके बिहारी मंदिर के निकट ही कारे दाऊ जी का एक अतिप्राचीन मन्दिर है , और ये प्रामाणिक मन्दिर है …अपने छोटे भाई की रक्षा के लिए काला रंग लगाके कन्हैया ही बने हैं …दाऊ जी । कहते हैं बाँके बिहारी जी के दर्शन पश्चात इनके दर्शन अवश्य करने चाहिये )
क्रमशः…..
Hari sharan
[Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - २३*
*🤝 ६. व्यवहार 🤝*
_*शोक-मोह की निवृत्ति*_
अब इस क्लेश और दुःख से छूटना हो तो क्या करना चाहिये? अज्ञान के कारण आसक्ति होती है और इस आसक्ति के कारण ममता का सम्बन्ध होता है। अतएव पहले तो अज्ञान का नाश करना चाहिये और ऐसा करके आसक्ति को जड़ से मिटाकर कहीं भी ममत्व का सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। श्रीव्यासजी कहते हैं-
*शोकस्थानसहस्त्राणि भयस्थानशतानि च।*
*दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥*
भाव यह है कि यह संसार ही ऐसा है, जिसमें शोक के तथा भय के प्रसंग नित्य आया ही करते हैं। मूर्ख मनुष्य उनसे व्याकुल होकर शोक करता है तथा परिताप को प्राप्त होता है; परंतु जो जानी है, वह उसको मिथ्या मानकर जरा भी व्याकुल नहीं होता। अर्थात् यहाँ ज्ञान को ही शोक की निवृत्ति का उपाय बतलाया है। श्रुति भगवती भी कहती हैं-
*द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च।*
*ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ॥*
ममता और निर्ममता-बन्धन और मोक्ष-इन दो पदों में ही आ जाते हैं। ममता जीव को बाँधती है और निर्ममता मुक्त कर देती है। कहने का तात्पर्य यह है कि मेरा-तेरा किये बिना भी जीवन का निर्वाह होता है। सब कुछ ईश्वर का है, ऐसा माननेवाले कहीं भी ममत्व का सम्बन्ध नहीं जोड़ते। इस प्रकार इस जन्म में भी वे सुख में रहते हैं और उनका परलोक भी सुधरता है तथा अन्त में वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। अन्यत्र कहते हैं-
*समासक्तं यदा चित्तं जन्तोर्विषयगोचरम् ।*
*यद्येनं ब्रह्मणि स्यात्तत् को न मुच्येत बन्धनात् ॥*
विषयों में आसक्ति रखने से तो दुःख ही मिलता है; परंतु विषयों में से आसक्ति हटाकर चित्त को यदि ब्रह्म में लगाया जाय तो मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है। श्रीशंकराचार्य कहते हैं-
*मुमुक्षुणा किं चरितं विधेयं सत्सङ्गतिर्निर्ममतेशभक्तिः ॥*
शिष्य पूछता है कि इस संसार के त्रिविध तापों से छूटने के लिये मनुष्य अपना जीवन-व्यवहार कैसा रखे? प्रत्युत्तर में कहते हैं कि ये तीन काम करने चाहिये-(१) *सत्संग करना-सज्जनों के समागम में रहना* (२) *कहीं भी ममत्व का सम्बन्ध नहीं जोड़ना* (३) *परमेश्वर का भजन करना*। भगवान् के भजन के बिना दुःख का नाश नहीं होता। दूसरे प्रसंग में कहते हैं-
*अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं*
*संसारमिथ्यात्वशिवात्मतत्त्वम् ॥*
शिष्य पूछता है कि रात-दिन क्या चिन्तन करना चाहिये? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि दो बातों का विचार करना चाहिये। (१) *संसार का सम्बन्ध स्थिर नहीं है*, इसलिये इसको सत्य न मानना तथा संसारके भोग-पदार्थ कोई भी सुख नहीं दे सकते, अतएव उनमें आसक्ति न रखना। (२) *मैं सुखस्वरूप आत्मा हूँ*-ऐसा निश्चय करना, ऐसा करने पर किसी भी प्राणी-पदार्थ की इच्छा ही नहीं होगी। मनुष्य सुख प्राप्ति की आशा से ही पदार्थों की आशा करता है, परंतु जो स्वयं ही सुखस्वरूप है, उसको दूसरे से सुख प्राप्ति की इच्छा होती ही नहीं। ऐसा होने पर वह सुख-दुःख से परे होकर मुक्त हो जाता है।
क्रमशः.......✍
*🕉️श्री राम जय राम जय जय राम।🕉️*
[] Niru Ashra: (सिर्फ़ साधकों के लिए)
भाग-36
प्रिय ! कामी नारी पियारी जिमि…
(श्री तुलसी दास जी)
मित्रों ! मैं कल बरसाने गया था… बारिश अच्छी हो रही थी… तो ऐसे ही मन में सात्विक भाव जाग्रत हो गये , वही भाव हमें कल बरसाने ले गया…बरसाने में मोर बहुत हैं…और आकाश में बादल छाये हुये हों तो मोर को नाचने में क्या लगता है ?… मोर का प्रियतम “श्यामघन” ही तो है । मोर प्रेमी है… पर कहते हैं मोर विषयी नही है… मोर प्रेमी है… पर भोगों के प्रति उसका आकर्षण तनिक भी नही है… । हाँ बात भी सही है… प्रेमी कहाँ भोगों में आसक्त होते हैं !… प्रेमी को किस भोग ने आकर्षित किया… ? और अगर प्रेमी विषय भोग में आसक्त हो गया तो वह प्रेमी ही नही है… । प्रेमी वो है… जो अपने प्रियतम के सुख में ही अपना सुख मान बैठा है । पर भोग विलास तो सुख चाहने की क्रिया है…और प्रेम, सुख देने की ।
कौपीन बाँधे एक महात्मा जी बरसाने की एक ऊँची पहाड़ी में बैठे थे… पागलबाबा ने कहा था मिलकर जरूर आना… उनकी स्थिति उच्चावस्था की है । बाबा की आज्ञा… मैंने पूछा था कहाँ मिलेंगे ?… तो बाबा ने बताया था कि बरसाने की परिक्रमा तो दोगे ना ?… तो बस परिक्रमा मार्ग में ही तुम्हें दीख जाएंगे ।
मैंने उनके दर्शन किये… मन आनंदित हुआ । उन्होंने मुझे प्रसाद में अपनी झोली से निकाल कर कुछ मिश्री दिए ।
और फिर मौन… । आज कुछ उद्विग्न है मेरा मन… सोचा कुछ पूछ लूँ ।..और समय उचित जान कर मैंने उन महात्मा जी से पूछ ही लिया ।
मुझे इस विषय पर लिखना चाहिए या नही… मुझे नही पता… पर हाँ ये ईमानदारी से सबको पता है कि ये समस्या सबकी है… शरीरधारी सबकी… इसलिए हे साधकों ! आप लोग ध्यान से पढ़ियेगा … साधना के लिए लाभप्रद है ।
हे भगवन् ! मुझे नही पता ऐसे प्रश्न आपसे करूँ या न करुँ… पर आप मेरे बाबा के पूज्य हैं… इसलिए मेरे आप गुरुतुल्य ही हुये… आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे दीजिये ।
हे प्रभु ! मन में काम (वासना) की भावना आती है… तब मन में बड़ा क्षोभ होता है…मन घबरा जाता है…तब लगता है कि हमारी स्थिति अभी ऊँची हुयी ही नही है…आधुनिक पोशाक पहनी हुई युवती को देखें तो मन में वासना जाग्रत होती ही है… क्या करें ?… इतनी साधना करने के बाद भी मन में काम-वासना का आजाना ये क्या है ?… भजन ध्यान चिंतन ये सब होने के बाद भी काम का वेग मन में आ ही जाता है… इससे मुक्त होने का उपाय क्या है ?
ये प्रश्न मैं इसलिए कर रहा हूँ कि भगवन् ! ये समस्या सबकी है पर जो साधक हैं… वो बता देते हैं… और लोग छुपा कर रखते हैं… पर भगवन् ! काम वासना को दबा देना… छुपा कर रखना… ये तो काम-वासना से मुक्त होने का समाधान नही हुआ न ।
मैंने दूसरी बात साथ ही पूछ ली… हे महात्मन् ! मैंने एक “ओशो” नामक दार्शनिक को ख़ूब पढ़ा है… वो कहते हैं… भोग की वासना मन में उठे तो उसे भोगो… और भोगते भोगते ही इस काम -वासना से मुक्त हो जाओगे… । मैंने कहा आप कुछ मार्ग दर्शन करें ।
वो महात्मा जी मेरी बात सुनकर आनन्दित हो गये… और बोले… बेबाक प्रश्न किया है… ठीक कहा तुमने ये सच में ही आज की समस्या है… और आज की ही समस्या नही है, ये सदियों से यही समस्या सबको परेशान की हुई है… पर तुमने बड़ी मासूमियत से इस प्रश्न को कर दिया ।
मैंने कहा महाराज जी ! मैं जिधर देखता हूँ… उधर ही वासना का ज्वार दिखाई देता है । हे भगवन् ! अच्छे अच्छे महात्मा भी इस वासना के जाल में फंस कर अपनी दुर्गति कराएं हैं… ये भी हम लोग देख ही रहे हैं…बाबा मैं तो एक साधक हूँ…और अपने प्रति ईमानदार हूँ… मेरे मन में वासना आये तो मैं क्या करुँ ?… इस वासना से मुक्त होने का उपाय हम जैसे साधकों के लिए क्या है ?
वो महात्मा जी बोले – देखो ! पहली बात, जब काम वासना तुम्हारे मन में आये तो घबराओ मत… सामना करो… सावधानी से सामना करो । जब काम वासना मन में आये तो उसे महत्व मत दो… मन में आया है तो आने दो… पर तुम कुछ भी शारीरिक चेष्टा मत करो । देखो ! मन है ना… ये पंगु है…शरीर के बिना कुछ नही कर सकता है ये मन !… इसलिए जब काम वासना मन में आये तो उस समय एकान्त को तुरन्त त्याग दो… उस समय एकान्त में मत रहो… एकान्त में रहोगे तो काम वासना तुम्हारे मन पर हावी होगी… इसलिए कुछ समय के लिए लोगों के साथ हो लो… पर ऐसे लोगों के साथ होना… जो स्वयं सावधान हों… और अगर ऐसे लोग न मिलें… तो सत्साहित्य पढ़ों… भगवान के मन्दिर में चले जाओ… और वहाँ जाकर हृदय से प्रार्थना करो कि हे नाथ ! मैं अंदर से अभी भी मैला हूँ… मैं स्वयं पवित्र नही हो पा रहा… आप ही हमें पवित्र बनाइये और इस काम वासना को हटाइये ।
वो महात्मा जी थोड़ी देर चुप रहे… फिर बोले…अरे ! घबराते क्यों हो ?… ये काम -वासना की वृत्ति स्थाई थोड़े ही है… ऐसा थोड़े ही है कि हर समय बना ही रहेगा… हाँ अगर तुम चाहोगे तो बना ही रहेगा… और अगर तुमने उस समय अपने मन को समझकर… सावधान कर… उस समय के लिए तुम अपने मन को श्री कृष्ण में लगा दो… कीर्तन करो… नाम का गान करो… पर काम वासना के जोर के समय एकान्त में नही बैठना… उस समय ग्रुप में सत्संग करना… संकीर्तन करना… उछलना कूदना…और भगवान के सामने नाम का उच्चारण करते रहना ।
तुम गृहस्थ हो है ना ?… मैंने कहा जी महाराज जी !… वो बोले… पर ब्रह्मचर्य का पालन सब को करना चाहिए… विपरीत शरीर के साथ रहने से और कोई नुकसान नही है… पर वो सब काम क्रीड़ा तुम्हारे चित्त में जो छप जाती है , वही हानिकारक है। और साधकों के लिए.. चित्त में छपना ही सबसे बड़ी हानि है । क्यों कि वही चित्त के संस्कार ही हमें जन्म मृत्यु के चक्कर में डालने वाले होते हैं ।
साधकों को ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है… अगर ब्रह्मचर्य नही है… तो फिर न उत्साह है… न उमंग है… न प्रेम है ।
तुमने कहा… कोई दार्शनिक था ..ओशो । उसने कहा… भोग को भोगने से ही भोग से मुक्ति मिल जायेगी । वो महात्मा जी बोले… कैसी हास्यास्पद बात है… अरे ! आग में घी डालने से आग बुझेगी नही… भड़क और जायेगी । और भोग को भोगने से, भोग से कैसे मुक्ति मिल सकती है भाई !… और तुम्हारे एक दो जन्म थोड़े ही हुये हैं… यहाँ तो अनन्त जन्म हुये हैं… और उन अनन्त जन्मों में अनन्त भोगों को भोगा है… क्या वासना ख़तम हुई ?… नही हुई ना ?… देखो ! जो अपने आप को स्थापित करना चाहता है… नई बातें बताकर… जिसे लोगों की वाहवाही लुटनी है… उसकी बात क्यों सुनते हो । ऐसे लोग मात्र साधकों की दुर्गति ही कराते हैं… मैंने कहा… हाँ महाराज जी ! उनके आश्रम में प्रवेश तभी मिलता है… जब एड्स सर्टीफिकेट आप लेकर जाओ । महाराज जी ! आश्रम में क्यों एड्स सर्टिफिकेट की जरूरत आगई ?
वो महात्मा जी बोले… छोड़ो… हमें क्या लेना देना… क्यों निंदा स्तुति करके समय को बर्बाद करते रहें ।
तुम अपने में ध्यान दो… तुम्हारी ऊर्जा घनीभूत होती जा रही है… इसलिए तुम सावधानी से इस साधना को सम्भालों… ।
क्या तुम्हें पता है… जब भजन बढ़ता है तब काम वासना भी बढ़ती है… मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा… तो वह बोले… भजन हमारे मन को साफ करता है… मन में ही तो भरा है काम का ज्वार… और वह सब बाहर निकलते हैं… ।
वो महात्मा जी बोले… देखो काम वासना का आना कोई बड़ी बात नही है… अच्छे अच्छे महापुरुषों में भी काम वासना पाई गयी है… पर वो मन में उठती हुई काम को तूल नही देते हैं… मन में काम के आते ही… उसकी ओर ध्यान न दे कर… अपना मन और तीव्रता से साधना में लगाते हैं… और वैसे भी अगर तुमने मन में उठे काम के जोर को महत्व नही दिया तो ज्यादा से ज्यादा 15 मिनट में ही काम वासना शान्त हो जाएगी ।
साधकों ! अन्त्य में उन महात्मा जी ने ही मुझ से यही कहा… जब जब काम वासना जागे… लम्बी साँस लेकर… बोलो… “कृ”…फिर पूरी साँस छोड़ते हुये बोलो… “ष्ण”…ऐसे 50 बार करो… पूरी तन्मयता से करो… आँखें बन्द करके करो ।
पर घबराओ मत… ये सहज है ..काम वासना के आने का कारण तुम्हारे संस्कार भी हो सकते हैं… अन्न भी हो सकता है ..तुम्हारी मित्र मण्डली कैसी है…उसका प्रभाव भी पड़ सकता है ।
वो महात्मा जी चुप हो गये… फिर धीरे से उन्होंने अपनी आँखें बन्द कर लीं…मैं भी उन्हीं के साथ बैठा रहा…थोड़ी देर के बाद आँखें खोल कर वो मेरी ओर देखते हुये बोले…
मेरे सद्गुरूदेव बहुत उच्च कोटि के भगवत् साक्षात्कार महापुरुष थे… मैं नया नया साधक था… मैंने एक बार ज़िद्द की… अपने गुरुदेव से… मुझे श्री राधा रानी के दर्शन कराओ… मुझे श्री जी के दर्शन कराओ… मेरे गुरुदेव ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारी स्थिति नही है… अभी तुम्हारे हृदय में गन्दगी है… पहले उसे साफ करो ।
पर मैं ज़िद्दी था… अपने गुरुदेव से बोला… मुझे दर्शन कराइये… । (वो महात्मा जी मुझे अधिकारी जानकर अपने गुह्य साधना के रहस्य भी बता रहे थे)
उन्होंने कहा… रात्रि के समय मेरे गुरुदेव बरसाने की कुञ्जों में ध्यान लगाकर बैठते थे… उस दिन उन्होंने मुझ से भी कहा… तुम मेरे साथ बैठो… और मेरी आँखों में देखते हुये ध्यान में उतर जाओ । उन महात्मा जी ने कहा , मेरे गुरुदेव जो बोल रहे थे मैंने वैसा ही किया…मेरे गुरुदेव करुणा की मूर्ति थे… उन्होंने ब्रह्म की आल्हादिनी श्री राधा रानी से प्रार्थना की… दर्शन देने के लिए… । तभी एकाएक बिजली चमकी… चारों ओर प्रकाश फैल गया… मैंने देखा ! एक अत्यंत गौर वर्णी… कृशोदरी… सुन्दरता की मूर्ति । मैंने देखा… मैं कुछ समझ पाता कि… वह झांकी वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गयी… । मेरे गुरुदेव उठे और क्रोध में मुझे बहुत भला बुरा कहने लगे… क्यों कि मेरा ब्रह्मचर्य खण्डित हो गया था । उस सुन्दरता की सीमा को मेरा ये देह सम्भाल न पाया…।
मैं हीनता का शिकार होने लग गया… मेरे मन में हीनता आगई… ओह ! श्री किशोरी जी के साक्षात् दर्शन के बाद… मेरी ये दुर्गति…? मेरे गुरुदेव ने मुझे समझाया… नही तुम्हारी गलती नही है… गलती मेरी है… कि मैंने तुम्हें दर्शन कराये… और श्री किशोरी जी को मैंने कहा… इन्हें दर्शन दें । पर तुम्हारा मन तो वासना से भरा है… । मैं मरने के लिए तैयार हो गया… तब मेरे गुरुदेव ने मुझे बचाया…और मुझे कहा… मरो मत… मन को साफ करो… मन में जो गन्दे संस्कार हैं… उन्हें हटाओ… मन तुम्हारा विक्षिप्त है… कैसे गुरुदेव ?
भागवत की रास पंचाध्यायी का नित्य पाठ करो… गीत गोविन्द का पाठ करो… और ध्यान का अभ्यास करो… नाम का जप कम से कम 1 लाख नित्य जपो… कुसंग से बचो । “श्री राधा” कहते हुये रोओ… आँसु बहाओ… । और अन्त में यही कहा… कि अपने मन का कभी भरोसा मत करो… मन के प्रति सावधान रहो । (इतना मुझे बताकर वो महात्मा जी चुप हो गये । ..और ध्यान की गहराई में धीरे धीरे चले गये )
मैंने उन्हें प्रणाम किया… और गदगद् भाव से उनके चरणों में नतमस्तक हो गया… आज बहुत बड़ी रहस्य की बात बता दी ।
मोर नाच रहा था…प्रेमी है मोर… प्रेमी कभी कामुक नही होता… और कामुक कभी प्रेमी नही हो सकता ।
मैं वृन्दावन आया… पागलबाबा को सारी बातें बताईं… तो बाबा इतना ही बोले – साधना आवश्यक है… विकार से मुक्त होने के लिए ।
“मेरे जर्जर हैं पाँव सम्भालों प्रभु”
Harisharan

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