] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग1️⃣5️⃣4️⃣ 🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
राघव ! आप भी जिस बात को पकड़ लेते हो …………..छोडो ना ! धोबी जो कह रहा था उसकी बात का मूल्य क्या ?
कैसे मूल्य नही हैं विजय ! वो मेरी प्रजा है …….और मैं अपनी प्रजा का हूँ …………मेरा जीवन अब मात्र प्रजा के लिये ही समर्पित है ।
राम का अब अपना व्यक्तित्व कहाँ ! राम तो अब अपनी प्रजा के लिये जीयेगा ।
हाँ तो जीयो प्रजा के लिये विजय को क्या लेना देना इससे ?
विजय फिर विनोद करनें लगा था ।
धोबी क्या कह रहा था ? और तुम उसके यहाँ कब गए ?
मैं जा रहा हूँ ………विजय जानें लगा …….
हाथ पकड़ लिया मेरे श्रीराम नें और कहा ……….”मेरी कसम है तुम्हे विजय ! बताओ धोबी क्या कह रहा था ?
ओह ! ये क्या किया राघव ! मैं दुनिया में सब तोड़ सकता हूँ ….पर आपनें अपनी ही कसम दे दी !
सिर झुकाकर बैठ गया विजय ……………….मन में उसके अपार कष्ट हो रहा था ……वो बारम्बार यही सोच रहा था कि , क्यों छेड़ी मैने धोबी की बात !
बता विजय ! क्या कह रहा था वो धोबी ?
सिर झुकाकर बैठा विजय, उसके नेत्रों से टप्प टप्प अश्रु बहनें लगे थे ।
मैं रात्रि को लौटकर अपनें घर जा रहा था …………तभी मैने देखा एक धोबी जो अपनी पत्नी को पीट रहा था !
पीट रहा था ? अपनी पत्नी को ? मेरे श्रीराम चौंक गए थे ।
पर क्यों ? क्यों विजय !
विजय अब अपना मुख ढँककर रो रहा है ।
बताओ विजय ! क्या बात है ?
वो कह रहा था ………….एक रात के लिये घर से बाहर चली गयी तू !
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ……!!!!!
🌹जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ४९*
*🤝 २. संसार 🤝*
_*संसार मनोमात्र है*_
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि संसारमायापरिवर्जितोऽसि ।
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रां मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ॥
सती मदालसा अपने पुत्र को पालनेपर झुलाते समय गाती है कि 'हे पुत्र! तुम स्वरूप से शुद्ध हो, बुद्ध हो तथा नित्यमुक्त हो, इस मायामय संसार के साथ तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं। यह संसार जो दीखता है, स्वप्न के समान मनोमात्र है; इसलिये मोहरूपी निद्रा से जाग जाओ।'
*'संसार तो भाई! मनोमात्र है'* - यह बात सुनते ही एक सज्जन बोल उठे—'यह क्या कह रहे हो? देखती आँखों पर पट्टी क्यों बाँधते हो ? संसार तो प्रत्यक्ष है; जैसे हाथ में रखे आँवले को देखने के लिये दर्पण की अपेक्षा नहीं होती, उसी प्रकार प्रत्यक्ष वस्तु को सिद्ध करने में किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। संसार तो प्रत्यक्ष है और उसमें शहर, गाँव, नदी, पर्वत, जंगल, बाग-बगीचे, महल, झोंपड़ी-सब प्रत्यक्ष दीख पड़ते हैं। कहीं तो ब्याह के गीत गाये जाते हैं तो कहीं मृत्यु का रोना-पीटना सुनायी देता है। कहीं पुत्र- जन्म के उपलक्ष्य में मिठाई बँटती है तो कहीं किसी के इकलौते बेटे के मरनेपर हाहाकार सुनायी देता है। कोई भूख से व्याकुल होकर एक टुकड़ा रोटी के लिये तरस रहा है तो कहीं अन्न के ढेर-के-ढेर पड़े हैं। ऐसे अनेक प्रकार के अच्छे-बुरे दृश्य प्रत्यक्ष देखने में आते हैं; तो भी आप कहते हैं कि *यह सब मनोमात्र है। यह जीती मक्खी कैसे निगली जाय ?'*
इसका उत्तर इतना ही है कि 'भाई! जरा धीरज रखो। आँख से दीखनेवाली सभी वस्तुएँ सच्ची नहीं होतीं; तथा जिस रूप में वे दीखती हैं, उस रूप में भी नहीं होतीं। इसलिये यह कहना नहीं बनता कि जितनी आँख से दीखती हैं उतनी ही वस्तुएँ हैं और जो नहीं दीखता, वह नहीं है। यह बात जल्दी मानी नहीं जा सकती। फिर इस बुद्धिवाद और तर्क के युग में तो कोई मानेगा ही कैसे? अतएव इस बात को समझने के लिये कुछ दृष्टान्तों की आवश्यकता है, जिनसे बात आसानी से समझ में आ जाय और फिर हृदय में भी उतर आये ।'
यह एक हीरा है। इस हीरे को एक जौहरी और एक उपाधिधारी सज्जन देखते हैं। हीरे को हाथ में लेकर और देखकर उपाधिधारी महाशय कहते हैं कि 'ओहो! हीरा तो बहुत अच्छा है। इसकी चमक देखने से तो जान पड़ता है कि यह बहुत ही मूल्यवान् है। उधर जौहरी हीरे को हाथ में लेकर झट अपनी जेब से यन्त्र निकालता है और उसकी सहायता से हीरे की ठीक-ठीक जाँच करता है। देख लेने के बाद कहता है कि 'इस हीरे की चमक तो बहुत अच्छी है; पर इसमें अमुक ऐसी बड़ी कमी है कि इसकी कीमत एक कौड़ी की भी नहीं है। मेरी राय से इस हीरे को घर में रखना भी नहीं चाहिये, नहीं तो अनिष्ट होगा।'
*अब इसमें किस प्रत्यक्ष ज्ञान को सत्य मानें? इसका विचार आप स्वयं कर लें। इसलिये जो आँखों से दीखता है, वह सदा यथार्थरूप में ही नहीं दीखता।*
दूसरा उदाहरण लीजिये। एक काँच का प्याला पड़ा है। उसमें पानी भरा है। निरी आँखों से देखनेपर वह पानी स्वच्छ दीखता है, परंतु सूक्ष्मदर्शक यन्त्र की सहायता से देखेंगे तो उसमें असंख्य जीव दीख पड़ेंगे। फिर भला, *प्रत्यक्ष की क्या महिमा रह गयी ?*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
