Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣5️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
रावण नें उसका हरण किया…….मुझे पता था ये बात कोई कह सकता है ….इसलिये मैने सीता की अग्नि परीक्षा भी ली ……..अगर तुम लोगों को विश्वास नही है तो पूछो इस लक्ष्मण से ….ये साक्षी है ।
लाल नेत्र हो गए थे मेरे श्रीराम के …….वो कभी क्रोध में आजाते थे तो कभी बिलख उठते थे ।
तीनों भाइयों के हृदय में मानों आज बज्राघात हो रहा था ………वो किंकर्तव्य विमूढ़ से सिर झुकाये खड़े रहे ।
भाइयों के समझ में अभी तक बात आयी नही थी कि “हुआ क्या है” ।
वो धोबी कह रहा था कि “सीता रावण के यहाँ रही है”……दीवार से सिर टकराते हुये बोले थे श्रीराम ।
अरे ! उसे क्या पता ….जाओ लक्ष्मण ! बताओ उस धोबी को…..कि मेरी सीता अग्नि से होकर गुजरी है ………देवता आकाश में आगये थे …..देवता भी गवाही देंगें…….कि मेरी सीता पवित्र है …।
अब बात समझ में आरही थी तीनों भाइयों के कि किसी धोबी नें………।
बैठ गए अपनें आसन पर फिर श्रीराम …………कैसे समझाऊँ कि मेरी सीता पवित्र है ………बार बार यही बोले जा रहे थे ।
मैं उस धोबी का सिर काट कर लाता हूँ भैया ! ऐसे कोई किसी के लिये कैसे कह देगा …..और पूज्या भाभी माँ ! सामान्य नारी तो नही है !
वो इस अयोध्या की साम्राज्ञी हैं ……..महारानी हैं ……..भैया ! आप अगर आज्ञा नही भी देंगें तो भी ये लक्ष्मण उस धोबी का गर्दन काट कर आपके चरणों में चढ़ा देगा । लक्ष्मण क्रोध पूर्वक बोल रहे थे ।
लक्ष्मण ! बहुत धीमी आवाज में बोले थे श्रीराम ।
“मनुष्य पर लांछन लगना मृत्यु के तुल्य है”
ये क्या कह रहे हैं आर्य ! भरत आगे आये थे ।
क्रमशः….
शेष चरित्र कल ………….!!!!!
🌹 जय श्री राम 🌹
Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ५२*
*🤝 २. संसार 🤝*
_*जन्म-मृत्यु-विचार*_
यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥
मनसैवानुद्रष्टव्यं नेह नानास्ति किञ्चन ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥
जो चैतन्य सर्वत्र व्यापकरूप में स्थित है, वही चैतन्य देहविशेष में प्रकट होता है; जो चैतन्य देह में रहता है, वही चैतन्य सर्वत्र व्याप्तभी हो रहा है। इन दोनों चैतन्यों के बीच जो भेद मानता है, जीव-चैतन्य को ब्रह्म-चैतन्य से पृथक् समझता है, उसे जन्म-मरण के चक्र में भटकना पड़ता है।
*यह दोनों चैतन्य एक ही हैं, यह प्रत्यक्ष तो नहीं जान पड़ता, इसलिये यह बात समझाने के लिये कहते हैं कि वह एकता, उन दोनों का ऐक्य ज्ञाननेत्र से, बुद्धिरूपी नेत्र से देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है; क्योंकि वह चर्मचक्षु का विषय नहीं है।*
यह निश्चय हो जाने के बाद जन्म-मृत्यु का प्रवाहरूप संसार कैसे चलता है - यह समझ में आ जायगा।
*जो चैतन्य सर्वव्यापक रूप में ही वर्तमान है, वह ब्रह्म, परमात्मा या परमेश्वर आदि नामों से पुकारा जाता है। वही चैतन्य जब किसी देहविशेष में प्रकट होता है, तब वह आत्मा या प्रत्यगात्मा कहलाता है। यह आत्मा देह में व्याप्त होकर रहने के कारण अपने स्वरूप को भूल जाता है और अपने को देह मानकर देह के धर्मों को अपना धर्म मान लेता है। (यहाँ देह से स्थूल-सूक्ष्म दोनों देह समझना चाहिये, क्योंकि एकाकी कोई कुछ करने में समर्थ नहीं।) इस प्रकार भ्रान्ति के वशमें पड़ा हुआ आत्मा 'जीव' कहलाता है। इसका दिग्दर्शन योगवासिष्ठ में इस प्रकार प्राप्त होता है।*
जीव चित्तमय है; क्योंकि जिस प्रकार घटाकाश तभीतक विद्यमान रहता है, जबतक घड़ा विद्यमान है और घड़े के नष्ट होते ही वह नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जीव तभीतक विद्यमान रहता है, जबतक चित्त विद्यमान है और चित्त के नष्ट हो जानेपर वह नष्ट हो जाता है। (यहाँ 'जीव' शब्द से जीवभाव या जीवत्वभ्रान्ति अर्थ लेना चाहिये )
*यह आत्मा - प्रत्यगात्मा बालक की भाँति चित्त की गति आदि धर्मो को अपने धर्म मान लेता है; जब चित्त चलता रहता है, तब अपने को चलता हुआ मान लेता है और जब चित्त स्थिर होता है, तब अपने को स्थिर मानता है। इस प्रकार आत्मा भ्रमवश चित्त को ही अपना व्याकुल रूप मान लेता है। चित्तरूपी उपाधि में पड़ा हुआ जीव (आत्मा) रेशम के कीट के समान वासनारूपी तन्तुओं से अपने आपको बाँधा करता है और मूढ़ताके कारण चेतता नहीं। श्रीवसिष्ठजी अन्यत्र कहते हैं कि आत्मचैतन्य यदि निमेष के .००५ भागतक भी स्वरूप से बहिर्मुख हो जाता है तो यह संसाररूपी दुर्दशा उदय हो जाती है। लिंगशरीररूपी कल्पित उपाधि के कारण, ब्रह्मचैतन्य जीवत्व को प्राप्त करके, देह के तथा मन-बुद्धि और इन्द्रिय आदि के समागम के क्रम से मृगरूप, लतारूप, कीटरूप, देवरूप तथा असुरादि रूप भी धारण करता है।*
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
