[] Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣5️⃣7️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 2
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
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“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
तुम रो रहे हो ? मैने जब देखा तो लक्ष्मण रो पड़े थे ……….भाभी माँ ! मेरा स्वास्थ ठीक नही है ………….इसलिये !
पर क्या हुआ तुम्हे ? बताओ तो भाई ! हुआ क्या तुम्हे ?
मैं अभी नही बता सकता………….आँसू पोंछे लक्ष्मण नें ।
क्यों नही बता सकते ? मैने पूछा । “आर्य की आज्ञा है भाभी माँ ! ……गंगा के उस पार पहुँच कर ही मैं आपको कुछ बताऊँ “
तो शीघ्र चलाओ ना रथ ! शीघ्र चलाओ लक्ष्मण !
मुझे भी सुननी है तुम्हारे अग्रज की बातें ………….!
मुझे क्या पता ………कि क्या बात है ! मैने लक्ष्मण से रथ शीघ्र चलाने को कहा ……..और बार बार कह रही थी ।
“हाँ अब गंगा के इस पार आगये हैं ………अब बताओ लक्ष्मण ! क्या कहा है तुम्हारे बड़े भाई नें “
मैने रथ में बैठे ही पूछा ।
आप उतरिये रथ से माँ ! सिर झुकाकर लक्ष्मण नें मुझ से कहा था ।
क्यों रथ में बैठकर बतानें के लिये मुझे मना किया है क्या ?
ये कहते हुये मैं रथ से नीचे उतरी ।
ये क्या ? मैं चौंक गयी थी ………..
क्यों की लक्ष्मण मेरे सामनें साष्टांग लेट गए थे …………
ये क्या हुआ तुम्हे लक्ष्मण भैया ! वो हिलकियों से रो रहे थे ।
उनके आँसुओं से धरती भींग गयी थी ।
“माँ ! भैया श्रीराम नें आपका त्याग कर दिया है “
क्या ! मेरी बुद्धि स्तब्ध हो गयी…….मैं जड़वत् खड़ी रह गयी ……..मेरे लिये ये जगत शून्य हो गया ……….।
क्रमशः…
शेष चरित्र कल …….!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[] Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ५८*
*🤝 ३. उपासना 🤝*
मानव-शरीर केवल ईश्वर -प्राप्ति के लिए ही है
*दूसरे प्राणियों में विवेक-बुद्धि नहीं होती, अतः वे अपने कर्मों के लिये उत्तरदायी नहीं माने जाते। परंतु मनुष्यको तो ईश्वर ने विवेक-बुद्धि दी है; इसलिये उसको क्या नित्य है और क्या अनित्य है, क्या विनाशी है और क्या अविनाशी है तथा क्या आत्मा है और क्या अनात्मा है—इसका निश्चय कर लेना चाहिये और फिर अनित्य, विनाशी तथा अनात्म वस्तुओं का त्याग करके नित्य, अविनाशी और आत्मतत्त्व का ग्रहण कर लेना चाहिये। तभी मानवजीवन सफल कहलाता है।*
ऐसी योग्यता वाले मनुष्य-शरीर को पाकर भी जो मनुष्य विषय-भोग में ही जीवन बिताता है, उस नराधम को हजारों धिक्कार हैं। यहाँ ऐसे मनुष्य को ‘कुमति' कहा है। इसका भाव यह है कि ईश्वर ने बुद्धि दी है नित्यानित्यका विवेक करने के लिये; पर वैसा न करके जो मनुष्य उसका उपयोग भोग–पदार्थों के संग्रह में ही करता है, वह तो प्रभु के अमूल्य दानका दुरुपयोग करता है। अतः ऐसे मनुष्य को 'कुमति' न कहा जाय तो फिर क्या कहा जाय? फिर ऐसे मनुष्य को 'नराधम' कहकर यह सूचित किया गया है कि वह तो मनुष्य कहलाने के भी योग्य नहीं है; क्योंकि वह पशु के सदृश ही आचरण कर रहा है।
यह श्लोक *‘सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह'* का है और वेदान्त की तो सिंहगर्जना होनी ही चाहिये। आपने वेदान्त की प्रखरता देख ली; अब चलिये, भक्ति की मृदुता देखें। चलिये, सुनें– भक्ति की कोमल कलध्वनि। श्रीमद्भागवत में ऐसा ही एक श्लोक निम्नरूप में है-
लव सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-न्निः श्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥ (११/९/२९)
कितना बढ़िया श्लोक है! प्रत्येक चरण का पहला शब्द ले लें तो पूरे श्लोक का तात्पर्य समझ में आ जायगा - ऐसी रचना है। चलिये देखें । *'लब्ध्वा मानुष्यं तूर्णं यतेत निःश्रेयसाय ।'* अर्थात् यह मनुष्य-शरीर मिला है तो बिना विलम्ब *'आत्मकल्याण'* कर लेना चाहिये। कोई पूछे कि *'बिना विलम्ब क्यों? बुढ़ापे में भगवान् को भजेंगे तो काम नहीं चलेगा?'* इसके उत्तर में कहा गया है कि *'यह शरीर क्षणभंगुर है; इसका कब नाश हो जायगा, कुछ भी पता नहीं लगता । मृत्यु न तो दस-पाँच दिन पहले से यह सूचना देती है कि मैं कब आ रही हूँ और न इस बात को पूछने के लिये ही क्षणभर ठहरती है कि इस भाई के सारे मनोरथ पूरे हो गये हैं या नहीं। वह तो बस, समय आते ही मनुष्य को झट से, एक क्षण के लिये भी पहले से खबर दिये बिना, उठा ले जाती है'।*
इसीलिये कहा गया है कि *'जरा भी प्रमाद न करके प्रयत्न में लग जाओ।'* ऐसा प्रयत्न करनेवाला कौन होता है ? कहते हैं कि— *‘धीरः।'* धीर या चतुर पुरुष वही है, जो अपना हित समझता हो। मनुष्य-शरीर मिलने पर भी जो अपना हित नहीं समझता, उसे शास्त्र में *'आत्महत्यारा'* कहा गया है- *'स भवेदात्मघातकः ।'* इसी भाव को व्यक्त करते हुए श्रीतुलसीदासजी ने कहा है - *जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाइ। सो कृतनिंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥* अब यह देखना रहा कि मनुष्य का *'हित'* किसमें है। इसी प्रसंग को समझाते हुए उद्धवजी से भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम् ।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम् ॥
अर्थात् चतुर मनुष्य की चतुराई और बुद्धिमान् की बुद्धिमानी इसीमें है कि इस संसार में ऐसे क्षणभंगुर और विनाशशील देह के द्वारा मुझ अमृतस्वरूप - अविनाशी को प्राप्त कर ले।
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
[] Niru Ashra: (संकल्प का रहस्य)
भाग-67
2️⃣
प्रिय ! प्राण जाई वरु वचन न जाई…
(श्री गो. तुलसी दास जी )
मैं उस दिन 3 बजे उठा… बाहर गया… तो मैं बहुत दुःखी हो गया… क्यों कि आँधी और बारिश दोनों ख़ूब जोरों से चल रही थी…मेरे मित्र भी उठ गये… वो भी बाहर आगये… मुझ से बोले… रहने दीजिये
…मत जाइए…
मैंने कहा…प्रभु ! मैं अवश्य जाऊँगा… चाहे कुछ भी हो जाए… ।
उन्होंने कहा… पर कैसे जायेंगे ? …बहुत बारिश है । और आँधी भी चल रही है… बिजली भी कड़क रही है , रहने
दीजिये… ज़िद्द मत कीजिये… आपके पागलबाबा को पता ही होगा कि ये स्थिति है ।
मैंने कहा… बात उनकी नही है… बात है मेरे संकल्प और वचन देने की । मैंने कह दिया है अब मैं पूरा करूँगा ही… ।
साधकों ! मैं चमत्कार में विश्वास नही करता…मेरे बाबा कहते हैं ये जगत ही चमत्कार है… क्यों कि ये जगत “उसकी” लीला है…।
पर कोई सम्भावना नही थी कि बारिश रुकेगी…मेरे मित्र कह रहे थे… 2 घण्टे से पहले बारिश रुकेगी ही नही… ।
पर मैं जैसे ही ऊपर के मंजिल से नीचे की ओर उतरा…बारिश तुरन्त बन्द हो गयी… उन मित्र ने मुझे प्रसन्नता से तेज़ आवाज में कहा…चमत्कार हो गया… बारिश रुक गयी ।
ये क्या था… आप कहोगे इत्तेफ़ाक ? पर नही ये इत्तेफ़ाक नही था… बारिश का रुकना मैं नही मानता मात्र इत्तेफ़ाक ।
ये संकल्प की शक्ति थी… आप मेरी बात पर यकीं कीजिये… अगर आप के संकल्प में शक्ति है तो प्रकृति तुरन्त उसे सुनेगी… और…आपको सहायता भी प्रदान करेगी… और प्रकृति सुनेगी… तो भगवान तो सुन ही रहा है ।
यही है संकल्प की शक्ति…
आप अगर प्रातः 4 बजे उठते हैं तो 4 बजे ही उठने की आदत डालिये… या 5 बजे उठते हैं तो चाहे कुछ भी हो जाए… आप 5 बजे ही उठें…देखिये लोग क्या कहेंगें… छोड़िये…आप अपने संकल्प को मत त्यागिये…चाहे आपका कितना भी नुकसान हो जाए,
परवाह मत कीजिये… आप अपने संकल्प को ही
महत्व दीजिये… इससे आपका संकल्प दृढ़ बनेगा… और संकल्प के दृढ़ होते ही प्रकृति की ओर से आप को सहयोग मिलना शुरू हो जायेगा…और प्रकृति का साथ मिला तो भगवत् कृपा तो बनी ही है… उसका अनुभव भी होना शुरू हो जायेगा ।
विद्यार्थियों को मैं कहना चाहता हूँ… आप जो संकल्प करें… उसे पूरा करने में जी जान से लग जाएँ… और साधकों को मैं ये कहना चाहता हूँ… आप जिस उद्देश्य से साधना कर रहे हैं… उस उद्देश्य को न छोड़ें… आज की ये बड़ी विचित्र समस्या होती जा रही है कि “मन नही लगता”… ये समस्या विद्यार्थियों में भी है और साधकों के भी मुँह से हम सुनते रहते हैं… आप ने कभी सोचा “ये मन नही
लगता” वाली समस्या किसके कारण है ?… आपके
संकल्प की क्षीणता के कारण… आपके संकल्प करने की… और उसे पूरा न करने की… इस कारण
आप अंदर से खोखले होते जा रहे हैं । …एक संकल्प अभी किया… प्रकृति आपका साथ देने को तैयार थी… तभी इस संकल्प को तो पूरा किया नही… दूसरा फिर शुरू हो गया संकल्प… पहला वाला बीच में ही छूट गया…इससे आपका आत्मबल क्षीण हो गया ।
प्रकृति की ओर से आप को सहयोग मिलना बन्द हो
गया…फिर आप को भगवान , जो आपके अंदर ही
विराजमान हैं…उनसे भी आपका सम्बन्ध कट गया…आप अकेले पड़ गये…इस तरह क्या कर पायेंगे…आप न भौतिक उन्नति कर पाये… न
आध्यात्मिक ।
ये हमारे प्राचीन शास्त्रों की उदघोषणा है कि …”अपने संकल्प को मैं पूरा करूँगा, या देह को ही छोड़ दूँगा”… क्या ऐसी उद्घोषणा आप कर सकते हैं ?… अगर हाँ…तो आपकी उन्नति में सहयोग चारों ओर से आपको प्राप्त होगा… आपके रिश्तेनातेदार
लोगों की सहायता की बात मैं नही कर रहा… मैं कर रहा हूँ… अस्तित्व के सहयोग की… और वो मुख्य है… ।
हे विद्यार्थियों !… संकल्पवान बनो । ज़िद्द में रहो… हाँ… बिना ज़िद्द के क्या प्राप्त कर पाओगे ?… संकल्प पूरा करने की ज़िद्द ।
और हे प्रेम के साधकों ! प्रेम में ज़िद्द नही तो फिर प्रेम ही कैसा ? इसी जन्म में भगवान को पाना है , साधना को नित प्रति बढ़ाना है ये ज़िद्द… ।
मैंने उन युवा मित्र से कहा… संकल्प में बहुत शक्ति है…इस शक्ति को पहचानें ।
गौरांगी आयी मेरे पास और हँसते हुये बोली…आज प्रेम पर नही लिखोगे ?… मैंने कहा… ज़िद्द प्रेम ही तो है , नही ?
“बिठलाके तुम्हें मन मन्दिर में नित मोहनी रूप
निहारा करुँ”
Harisharan
