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July 6, 2025 3:38 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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श्रीसीतारामशरणम्मम/(20-3),“श्रीकृष्णावतार”,भक्त नरसी मेहता चरित (031) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम/(20-3),“श्रीकृष्णावतार”,भक्त नरसी मेहता चरित (031) &  श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣0️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#हिमऋतुअगहनमाससुहावा ……..

📙( #रामचरितमानस )📙

🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! …………….

शरीर के पाँच जोड़ों पर हल्दी चढ़ाई जाती है …………और मात्र हल्दी ही नही चढ़ाई जाती ….उसके साथ दूर्वा और अक्षत भी चढाया जाता है ।

पहले मेरे दोनों पाँव पर चढाया गया …..फिर घुटनें …जंघा……कन्धे , भाल ….।

ओह ! वो दृश्य ………..मेरे पिता जनक महाराज उठे थे उनके साथ मेरी ममतामयी माता सुनयना उठीं थीं ………..

शहनाई बज रही थी………तब मेरे पिता और माता नें मुझे हल्दी चढ़ाना शुरू किया था…….बस उसी समय मेरे पिता जी एकाएक मुझे देखते ही हिलकियों से रो पड़े थे……..मेरी माँ के आँखों से गंगा जमना बह रहे थे ।

मुझे जी भर देखना चाह रहे थे मेरे पिता जी…..पर देख नही पा रहे थे ।

कितनें दिनों से मुझे देखा नही है इन्होनें …………..कितना परिश्रम …..कितनी भाग दौड़ ……..भले ही हजारों सेवक हों ……पर पिता का मन कहाँ मानता है ……….विवाह की व्यवस्था में दिन रात लगे हैं ।

देवता तक इनके सामनें हाथ जोड़े खड़े रहते हैं ……हमें सेवा बताओ विदेहराज ! इस विवाह महोत्सव में कुछ सेवा करके हम भी धन्य हो जाएँ ….पर मेरे पिता जी को स्वयं करना है ……………।

आज हल्दी चढ़ाते हुये मेरे पिता जी रो रहे हैं …………..मेरी माँ अपनें आँसुओं को पोंछते हुये ……..उन्हें शान्त कर रही हैं …..पर …….।

अब बेटी पर पिता का वो अधिकार नही रह जाएगा इस बात को सोच कर ही मेरे पिता जी रो रहे हैं ……….अब मेरी बेटी पराई हो जायेगी ।

विचित्र स्थिति हो गयी थी मेरे पिता जी की …………..उनके हृदय में आज तक प्रेम और उल्लास था …..पर आज वात्सल्य और भावुकता नें इनके हृदय में डेरा डाल लिया है ।

ओह ! मेरे पिता विदेह …………ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ ……….पर प्रेम कैसी वस्तु है ना ……………..मेरे प्रति स्नेह् …वात्सल्य नें आज मेरे पिता को रुला दिया था ।

और मेरी माँ सुनयना !

वो तो मेरे गाल में हल्दी लगातीं और नेत्रों से अश्रु बहातीं …………फिर एकाएक भाव में भर कर मेरे गालों को चूम लेतीं …………

माता पिता की ये दशा देख मुझ से रहा नही गया ………मै भी रोना चाहती थी दोनों के गले लगके …………….पर ……..इस स्थिति को मेरी चतुर सखियाँ समझ गयीं कि अगर मै अपनें माता पिता के गले लगके रोई ……..तो यहाँ आँसुओं का वो सागर उमड़ पड़ेगा कि सब डूब जायेगें उसमें ………फिर कोई निकल न पायेगा ।

राज नंदिनी सिया सुकुमारी की ……………….जय जय जय ।

मेरी सखियों नें ये जयकारा लगाना शुरू कर दिया था ।

मिथिलेश किशोरी की ………….जय जय जय ।

मंगल गान शुरू हो गया था ……हल्दी चढानें की विधि पूरी हुयी ।

मेरे शरीर पर पीला वस्त्र था …………फूलों से सजी हुयी थी मै …….मेरे अंग अंग में हल्दी का लेप हुआ था ……….अब मुझे उठाया मेरी सखियों नें और अंतगृह में ले गयीं ……..वहाँ उबटन की विधि पूरी हुयी थी ।

फिर मुझे स्नान कराकर …………सुन्दर वस्त्रादि से सुसज्जित करके …….आभूषण इत्यादि लगाकर …………फिर उसी आँगन में मुझे लाया गया था ………..।

चारुशीला सखी नें मेरे कान में कहा ………..रघुनन्दन की भी हल्दी चढ़ाई विधि हो रही है ……….धीरे से मेरे कान में कहा था ।

पर मै ये भी समझ रही थी कि मुझे सहज बनानें के लिए ये सब कह रही हैं ……….पर मुझे चन्द्रकला नें भी कहा ……हल्दी चढ़ाये हुए श्री राम अच्छे नही लग रहे …………काले में पीली हल्दी …….काले हैं वो तो ………इतना क्या कहा चन्द्रकला नें ……..सब हँसनें लगी थीं ………।


पुत्री ! सूर्यास्त होनें को आरहा है …………..तुमनें अभी तक कुछ खाया भी नही है ……………वो तुम्हारी सेविका तुम्हे खोज खोज कर परेशान हो गयी है ………….।

पुत्री सीता ! इस तरह से कैसे होगा …………तुम्हे अपनी चिन्ता नही है तो कम से कम ………इस गर्भ में पल रहे बालक की चिन्ता तो करो ……ये रघुकुल का दीपक है तुम्हारी कोख में – पुत्री सीता !

ऋषि वाल्मीकि नें मुझे समझाया …………हाँ …….मैनें अपनें पेट में हाथ रखा था ……………..इनको बचाना है ………..इन्हें सौपना हैं इनके पिता को ……………..

मै उठी गंगा किनारे से……….और चल दी अपनी कुटिया की ओर ।

शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱

Niru Ashra: “श्रीकृष्णावतार”

भागवत की कहानी – 30


शुकदेव कहते हैं – हे परीक्षित ! श्रीकृष्ण ही पूर्णब्रह्म हैं ….इनसे बड़ा ब्रह्म न कोई है न होगा । अद्भुत हैं ये श्रीकृष्ण । इनका सौन्दर्य ! सुन्दर ये इतने हैं कि इनके देह की ज्योति से आभूषण चमक उठते हैं …..ये इतने सुन्दर हैं कि स्वयं ही अपने सौन्दर्य को देखकर विस्मित यानि चकित रह जाते हैं । रतिपति कामदेव जब इनको नाचते हुये देखता है तो मूर्छित हो जाता है । आकाश से अप्सरायें जब इन्हें देखती हैं तो उनकी नीबी बंधन खुल जाती है उन्हें कुछ भान नही रहता । ये श्रीकृष्ण भावग्राही हैं ….जिसने इन्हें जिस भाव से देखा ये उसे वही दिखाई दिए । देखिए ना …मथुरा में कंस की रंगभूमि में …..स्त्रियों को वही कृष्ण जहाँ कामदेव से भी ज़्यादा सुन्दर लगते हैं तो मल्लों को महामल्ल दिखाई देते हैं …..दुष्टों को वहीं काल दिखाई देते हैं तो योगियों को परम सत्य परम तत्व के रूप में दिखाई देते हैं । ये सब हैं ..ये पूर्ण हैं । यशोदा मैया जिन्हें गोद में लेकर चूम रही थी उसे ही जम्हाई लेते हुए श्रीकृष्ण के मुख में विश्व ब्रह्माण्ड दिखाई दे जाता है । ये ब्रह्मा को झुका देता है अपने चरणों में तो दूसरी ओर श्रीराधा रानी के स्वयं चरण दबाता है । ये सत्यव्रत है ….सत्य ही इसका रूप है ….किन्तु मैया के सामने सफेद झूठ बोलने में भी इसे लज्जा नही आती । बड़े बड़े सिद्ध योगी इसे अपने ध्यान में बुलाते हैं किन्तु ये नही जाता ….इधर गोपियाँ कहती हैं ….मेरे कपड़े बाहर सूख रहे हैं उठा दे …ये आज्ञा का पूरा पालन करता है । ये कालिय नाग पर नाचता है …उस कालिय नाग पर जिसके एक सौ फन थे …उसपर ये नाचता है ….फन को अपने चरणों की चोट से झुकाता है तो दूसरी ओर सामने एक छोटा सा सर्प भी दिखाई दे जाए तो डरके मारे अपनी मैया की गोद में ये चढ़ जाता है ।

“ये मृत्यु और अमृत दोनों है”……शुकदेव भागवत में कहते हैं ।

श्रीकृष्ण के ज्ञान की चर्चा व्यर्थ है …..क्यों की ज्ञान के स्वरूप ही ये हैं …पर आपको इनकी अज्ञानता का दर्शन करना है ? तो चलिए गोकुल में ……अज्ञानता के सम्बन्ध में इनकी मैया यशोदा से पूछिए ….कि उसका लाला कन्हैया कितना अज्ञानी है …वो आपको क्रमवार बतायेंगी ।

तलवार निकालकर उससे खेलता है तो उँगली कट जाती है , ये रोने लगता है ।
ये जल में अपने को डुबो सकता है ….आग का अंगार उठाकर अपने मुँह में धर सकता है । और तो और जहाँ पूजा हो रही है वहाँ जाकर हल्ला मचा देता है …हद्द तो ये है ….कि पूजा के सिंहासन में कुत्ता बैठाकर ये तीन वर्ष का कन्हैया ताली बजाकर हँसता है …और कहता है – तेरे भगवान ।

इसे आप अज्ञानता की हद्द नही कहोगे ?

ऐसा क्यों ? परीक्षित प्रश्न करते हैं ….तो शुकदेव उत्तर देते हुये कहते हैं …ज्ञान और अज्ञान इन दोनों के अधिष्ठान तो यही हैं ….इनके अलावा और कुछ है ही नही ।

प्रेम इनके जैसा किसका ? प्रेमी इनके जैसा कौन ?

कृष्ण कहाँ हैं ? कृष्ण कहाँ गये ? कृष्ण ! हमें दर्शन दो । वो गोपियाँ रो रहीं हैं …बिलख रही हैं …अभी महारास किया था …पर पता नही क्या हुआ सबको छोड़कर चले गये । बताया भी नही कि गुस्सा हूँ …..अब कहाँ हो प्यारे ! दर्शन दो ना ! तभी ……ये रहे चरण चिन्ह ! एक गोपी को चरण चिन्ह मिल गए ….वो बैठ गयी और सबको दिखाने लगी । सब गोपियाँ भी बैठ गयीं और उन चिन्हों को देखने लगीं ….हाँ , चरण चिन्ह तो प्यारे के ही हैं । किन्तु …ये दूसरे चरण किसके हैं ? सखियों के सामने अब दूसरी समस्या खड़ी थी …ये दूसरे चरण चिन्ह किसके ?

तब एक सखी ने कहा …..राधिका के । श्रीराधारानी के ….अरे वो अकेले थोड़े ही जायेगा ….साथ में ले गया होगा अपनी प्रिया को । अब सखियाँ आगे बढ़ती हैं …उन्हीं चरण चिन्हों के सहारे ……फिर – ये दूसरे चरण चिन्ह तो यहाँ से ग़ायब हैं …..एक सखी ने कहा …तो सारी सखियाँ बैठ गयीं ….अरे ध्यान से देखो …श्याम सुन्दर के चरण यहाँ रेती में धसें हुये हैं ….इसका मतलब श्रीराधारानी को श्रीकृष्ण ने अपने कंधे में उठा लिया होगा । ऐसा मधुर ब्रह्म आपको कहीं और मिलेगा ? शुकदेव हमसे ही पूछते हैं ।


सारी कथाएँ सुना चुके हैं शुकदेव । मत्स्यावतार से लेकर श्रीरामावतार तक …और बड़े विस्तार से सुनाया है …किन्तु परीक्षित लालायित है श्रीकृष्ण कथा सुनने के लिए । वो प्रतीक्षा में हैं इनकी रक्षा गर्भ में श्रीकृष्ण ने ही तो की थी …ये याद है इन्हें …इसलिए इन्हें अपने आराध्य श्रीकृष्ण को सुनना है । गुरुदेव ! श्रीकृष्ण को सुनाइये ना ! परीक्षित प्रार्थना करते हैं …शुकदेव मुस्कुराते हुए कहते हैं ….वो तो रस ब्रह्म हैं रस से ही भरे हैं रस ही रस है उनमें ।

वो लीला करते हैं ….वो अजन्मा हैं फिर भी जन्म लेते हैं ….वो अनाम हैं लेकिन नाम को स्वीकार करते हैं …दृष्टा हैं लेकिन भोक्ता भी बन जाते हैं ….अरूप हैं लेकिन रूप स्वीकार करते हैं ।

शुकदेव श्रीकृष्ण को गाते हुए अपने आपको भी भूल जाते हैं …..आहा ! परीक्षित ! वो अपने स्नेह युक्त मुस्कान से समस्त जीवों का मन मोह लेते हैं …..अपने अलौकिक सौन्दर्य से लोकों में आनन्द की अपूर्व वृद्धि करते हैं …..मकराकृत कुण्डल जब इनके कपोल को छूते हैं तब इनकी सुन्दरता कोटि गुना बढ़ जाती है ….वो मुस्कुराते हैं तो पृथ्वी की क्या बात देव लोक की स्त्रियाँ सब कुछ भूल कर इन मुरलीमनोहर को अपना हृदय हार अर्पण कर देती हैं । लेकिन इन्हें देवनारियों से क्या प्रयोजन ….इन्हें तो प्रयोजन है अपनी भोली भाली गोपियों से ….ये गोपियाँ प्रेम से भरी हैं …ये जब अपलक अपने प्यारे कृष्ण को देखती हैं तब योगियों की भाँति इनकी भी समाधि सी लग जाती है …ये सब कुछ भूल जाती हैं …अपने आपको भी भूल जाती हैं …बस कृष्ण रह गया है ….बाकी सब मिट गये हैं ….सिर्फ कृष्ण रह गया है । शुकदेव कहते हैं …..ये रस ब्रह्म जब थिरकता है ….तब रस ही रस इकट्ठा होना शुरू हो जाता है , इसी को तो कहते हैं …रास । महारास । “कृष्णस्तु भगवान स्वयंम” श्रीकृष्ण ही भगवान हैं…..शुकदेव कहते हैं ।

भक्त नरसी मेहता चरित (031)


🏵🙇‍♀👏वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे,
पर दुक्खे उपकार करे तोए,
मन अभिमान न आए रे सकल लोक मा सहुने वंदे,
निंदा न करे केनी रे,👏🙇‍♀

माणिकबाई को ससुर के श्राद्ध की चिन्ता

इतना सुनते ही मानों वंशीधर के जले पर नमक पड़ गया । क्रोध के मारे उनके नेत्र लाल हो गये और चुपचाप अपने घर आकर सारा हाल दुरितगौरी को सुना दिया । दुरितगौरी का भी पारा गर्म हो गया , उसने देवर का सारा क्रोध अपने पति पर ही उतारना शुरू किया ; बोली -‘तुम तो उस मुँह जले के घर पर गये ही क्यों थे । मैं तो उन भगतनी को पहले से खूब पहचानती हूँ । यदि वे श्राद्ध में न आवें तो हमारा बिगड़ ही क्या जायेगा ? खजूरे ( गिजाई ) का एक पैर टूट ही जाय तो क्या वह लँगड़ा हो जायगा ?

इधर भक्त राज ने श्राद्ध करने का निश्चय तो कर लिया ; परंतु घर में सेर भर भी अन्न का ठिकाना नही था । फिर भी भक्त राज निशिंचत थे । वह अपने एक मात्र स्वामी भगवान के सामने बैठकर कीर्तन करने लगे ।

मणिकाबाई ने उन्हें निशिचन्त देख कर उनके समीप जाकर कहा ” स्वामी नाथ ! कल आपने पिताजी का श्राद्ध करने का निश्चय किया है और घर में सेर भर भी अन्न नहीं है । पहले उसका प्रबंध करना चाहिए । आप तो कोई चिन्ता कर ही नहीं रहे की क्या करना है ? ।

भक्तराज नरसीराम ने कहा – “प्रिये ! पहले मुझे प्रभु का भजन कर लेने दो ; उसके बाद मैं बाजार जाकर कुछ सामग्री कही से उधार लाने की चेष्टा करूँगा । यदि उधार नहीं मिला तो मेरे नाथ जाने और पित्तर जाने ।”

“स्वामिन ! हम उन परमात्मा को नाथ तो मान ही बैठे हैं; परंतु उनके घर न्याय कहाँ है ? देखिए भाई के घर पर तो इतनी अधिक सम्पति है और हमें नित्य अपने पेट की ही चिंता लगी रहती है ।” इतना कहते कहते – माणिकाबाई के नेत्रो से अश्रुधारा चलने लगी ।

नरसी भगत भगवन का कीर्तन करने में आनंदित हो गये —

वैष्णवजन तो तेने कहीये, जे पीड़ पराई जाणे रे, पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे।
सकल लोकमां सहने वंदे, निंदा न करे केनी रे, वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेनी रे।
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे, जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापे नहिं जेने, दृढ़ वैराग्य जैना मनमां रे, रामनामशुं ताली लागी, सकल तीरथ तेना मनमां रे।
वणलोभी ने कपट-रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे, भणे नरसैयो तेनुं दर्शन करतां कुंल एकोतेरे तार्या रे।

भावार्थ: वैष्णवजन वही है, जो दूसरे की पीडा को अनुभव करता है। दूसरे के दु:खों को देखकर उस पर उपकार तो करता है, पर मन में अभिमान नहीं रखता। सबकी वंदना करता है और किसी की निंदा नहीं करता। जो अपने मन, वाणी और ब्रह्मचर्य को दृढ़ रखता है, उसकी मात धन्य है! जो समदृष्टि है, तृष्णा-त्यागी है और परस्त्री को माता के समान समझता है, जो झूठ नहीं बोलता, दूसरे के धन का स्पर्श नहीं करता, जिसे मोह-माया नहीं भुला सकती, जिसके मन में दृढ़ वैराग्य है और जिसको राम-नाम की धुन लगी है, उसके तन में सारे तीर्थों का वास है। जो लोभ-रहित है, जिसके मन में कपट नहीं है और जिसने काम-क्रोध का त्याग किया है, नरसी महेता कहते हैं ऐसे जन के दर्शन से इकहत्तर पीढ़ियां तर जाती हैं।

क्रमशः ………………!



Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 33
🪷🪷🪷🪷🪷
किंपुनर्ब्राह्मणाःपुण्याभक्ताराजर्षयस्तथा |
अनित्यमसुखंलोकमिमंप्राप्यभजस्वमाम् || ३३ ||

किम् – क्या, कितना; पुनः – फिर; ब्राह्मणाः – ब्राह्मण; पुण्याः – धर्मात्मा; भक्ताः – भक्तगण; राज-ऋषयः – साधु राजे; तथा – भी; अनित्यम् – नाशवान; असुखम् – दुखमय; लोकम् – लोक को; इमम् – इस; प्राप्य – प्राप्त करके; भजस्व – प्रेमाभक्ति में लगो; माम् – मेरी |

भावार्थ
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फिर धर्मात्मा ब्राह्मणों, भक्तों तथा राजर्षियों के लिए तो कहना ही क्या है! अतः इस क्षणिक दुखमय संसार में आ जाने पर मेरी प्रेमाभक्ति में अपने आपको लगाओ |

तात्पर्य
🪷🪷🪷
इस संसार में कई श्रेणियों के लोग हैं, किन्तु तो भी यह संसार किसी के लिए सुखमय स्थान नहीं है | यहाँ स्पष्ट कहा गया है – अनित्यम् असुखं लोकम् – यह जगत् अनित्य तथा दुखमय है और किसी भी भले मनुष्य के रहने लायक नहीं है | भगवान् इस संसार को क्षणिक तथा दुखमय घोषित कर रहे हैं | कुछ दार्शनिक, विशेष रूप से मायावादी, कहते हैं कि यह संसार मिथ्या है, किन्तु भगवद्गीता से हम यह जान सकते हैं कि यह संसार मिथ्या नहीं है, यह अनित्य है | अनित्य तथा मिथ्या में अन्तर है | यह संसार अनित्य है, किन्तु एक दूसरा भी संसार है जो नित्य है | यह संसार दुखमय है, किन्तु दूसरा संसार नित्य तथा आनन्दमय है |
.
अर्जुन का जन्म ऋषितुल्य राजकुल में हुआ था | अतः भगवान् उससे भी कहते हैं, “मेरी सेवा करो, और शीघ्र ही मेरे धाम को प्राप्त करो |” किसी को भी इस अनित्य संसार में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि यह दुखमय है | प्रत्येक व्यक्ति को भगवान् के हृदय से लगना चाहिए, जिससे वह सदैव सुखी रह सके | भगवद्भक्ति ही एकमात्र ऐसी विधि है जिसके द्वारा सभी वर्गों के लोगों की सारी समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं | अतः प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनामृत स्वीकार करके अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए |
[6/2, 8:59 PM] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (031)


🏵🙇‍♀👏वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे,
पर दुक्खे उपकार करे तोए,
मन अभिमान न आए रे सकल लोक मा सहुने वंदे,
निंदा न करे केनी रे,👏🙇‍♀

माणिकबाई को ससुर के श्राद्ध की चिन्ता

इतना सुनते ही मानों वंशीधर के जले पर नमक पड़ गया । क्रोध के मारे उनके नेत्र लाल हो गये और चुपचाप अपने घर आकर सारा हाल दुरितगौरी को सुना दिया । दुरितगौरी का भी पारा गर्म हो गया , उसने देवर का सारा क्रोध अपने पति पर ही उतारना शुरू किया ; बोली -‘तुम तो उस मुँह जले के घर पर गये ही क्यों थे । मैं तो उन भगतनी को पहले से खूब पहचानती हूँ । यदि वे श्राद्ध में न आवें तो हमारा बिगड़ ही क्या जायेगा ? खजूरे ( गिजाई ) का एक पैर टूट ही जाय तो क्या वह लँगड़ा हो जायगा ?

इधर भक्त राज ने श्राद्ध करने का निश्चय तो कर लिया ; परंतु घर में सेर भर भी अन्न का ठिकाना नही था । फिर भी भक्त राज निशिंचत थे । वह अपने एक मात्र स्वामी भगवान के सामने बैठकर कीर्तन करने लगे ।

मणिकाबाई ने उन्हें निशिचन्त देख कर उनके समीप जाकर कहा ” स्वामी नाथ ! कल आपने पिताजी का श्राद्ध करने का निश्चय किया है और घर में सेर भर भी अन्न नहीं है । पहले उसका प्रबंध करना चाहिए । आप तो कोई चिन्ता कर ही नहीं रहे की क्या करना है ? ।

भक्तराज नरसीराम ने कहा – “प्रिये ! पहले मुझे प्रभु का भजन कर लेने दो ; उसके बाद मैं बाजार जाकर कुछ सामग्री कही से उधार लाने की चेष्टा करूँगा । यदि उधार नहीं मिला तो मेरे नाथ जाने और पित्तर जाने ।”

“स्वामिन ! हम उन परमात्मा को नाथ तो मान ही बैठे हैं; परंतु उनके घर न्याय कहाँ है ? देखिए भाई के घर पर तो इतनी अधिक सम्पति है और हमें नित्य अपने पेट की ही चिंता लगी रहती है ।” इतना कहते कहते – माणिकाबाई के नेत्रो से अश्रुधारा चलने लगी ।

नरसी भगत भगवन का कीर्तन करने में आनंदित हो गये —

वैष्णवजन तो तेने कहीये, जे पीड़ पराई जाणे रे, पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे।
सकल लोकमां सहने वंदे, निंदा न करे केनी रे, वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेनी रे।
समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, परस्त्री जेने मात रे, जिह्वा थकी असत्य न बोले, परधन नव झाले हाथ रे।
मोह माया व्यापे नहिं जेने, दृढ़ वैराग्य जैना मनमां रे, रामनामशुं ताली लागी, सकल तीरथ तेना मनमां रे।
वणलोभी ने कपट-रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे, भणे नरसैयो तेनुं दर्शन करतां कुंल एकोतेरे तार्या रे।

भावार्थ: वैष्णवजन वही है, जो दूसरे की पीडा को अनुभव करता है। दूसरे के दु:खों को देखकर उस पर उपकार तो करता है, पर मन में अभिमान नहीं रखता। सबकी वंदना करता है और किसी की निंदा नहीं करता। जो अपने मन, वाणी और ब्रह्मचर्य को दृढ़ रखता है, उसकी मात धन्य है! जो समदृष्टि है, तृष्णा-त्यागी है और परस्त्री को माता के समान समझता है, जो झूठ नहीं बोलता, दूसरे के धन का स्पर्श नहीं करता, जिसे मोह-माया नहीं भुला सकती, जिसके मन में दृढ़ वैराग्य है और जिसको राम-नाम की धुन लगी है, उसके तन में सारे तीर्थों का वास है। जो लोभ-रहित है, जिसके मन में कपट नहीं है और जिसने काम-क्रोध का त्याग किया है, नरसी महेता कहते हैं ऐसे जन के दर्शन से इकहत्तर पीढ़ियां तर जाती हैं।

क्रमशः ………………!



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