[1 Niru Ashra: 🙏🥰 श्री सीताराम शरणम् मम 🥰 🙏
🌺भाग 1️⃣6️⃣2️⃣🌺
मै जनक नंदिनी ,,,भाग 3
*(माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*
🌱🌻🌺🌹🌱🥰🌻🌺🌹🌾💐
“वैदेही की आत्मकथा” गतांक से आगे
मैं वैदेही !
मेरे पुत्रों की प्रशंसा करते थकते नही थे………”बहुत मेधा है इन बालको में……इन बालको की तुलना किसी से नही हो सकती ……ये बस अपनें श्रीराम के ही पुत्र हैं …..पर उनसे भी आगे हैं……क्यों की पुत्र पिता की आत्मा होती है । …..एक दिन कुटिया में आकर बोल रहे थे महर्षि ………फिर इधर उधर की बातें करते रहे…….मैं सुनती रही ।
फिर बोले – पुत्री वैदेही ! मैं एक बात कहनें आया हूँ ……….
हाँ कहिये महर्षि ! मैने मस्तक झुकाकर कहा ।
मैंने महाकाव्य लिखा है……..वह महाकाव्य “रामायण” है……….मैं चाहता हूँ कुश लव उसे गायें ……….मैं रामायण का उनसे गायन कराना चाहता हूँ ……।
मैने महर्षि के मुख से ये सुनते ही प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा ……क्यों ?
क्यों की एक दिन अयोध्या के राजदरवार में राजा राम के सामनें इनको रामायण गाकर सुनाना है ……..नही नही पुत्री वैदेही !
इसका नाम ही मात्र रामायण है ……..सही में राम के चरित्र को नही मैने सीता के चरित्र को लिखा है ………तुम्हारे चरित्र को पुत्री !
पर क्यों महर्षि ? मेरे नेत्रों से अश्रु बह चले थे ।
क्यों की मैं विश्व ब्रह्माण्ड को ये बताना चाहता हूँ कि राम से महान मेरी पुत्री है ……सीता है महान ।
देखो सीता का तप ! देखो इस वैदेही का व्रत …………देखो ! कैसे रह रही है ये जगन्माता जानकी …………….
मैने यही सब लिखा है उस महाकाव्य में …….और मैं चाहता हूँ कि इसका गायन सीखें – कुश लव ।
माँ ! माँ ! दौड़ते हुये आगये थे उसी समय कुश और लव ।
जब कुटिया में बैठे देखा महर्षि को …….तो चरण छूनें के लिए झुके ।
नही …..बालकों नही ………..चरण हटा लिए थे महर्षि नें ।
माँ ! देखो ना ! सब ब्रह्मचारी तो छूते हैं इनके चरण …..बस हम दोनों से न चरण छूवाते हैं ……..न सेवा का अवसर देते हैं …….शिकायत करनें लगे थे मुझ से ………..।
महर्षि ! आप इस सौभाग्य से क्यों वंचित करते हैं इन बालकों को …..
मैने शिकायत की ।
दौहित्र से अपनें पैर नही छुवाये जाते पुत्री !
महर्षि का वात्सल्य उमड़ पड़ा था ……….और अपनें पास में बिठाकर कुश लव के मस्तक में हाथ फेर रहे थे ।
बताओ ! संगीत सीखोगे ? महर्षि नें कुश लव से ही पूछा ।
हाँ ………..खुश होकर दोनों नें मेरी ओर देखा था ।
तो कल से तुम संगीत की शिक्षा भी लोगे मुझ से ।
माँ ! हम संगीत सीखेँगेँ…..फिर गायेंगें…….कोयल गाती है वैसे ही ।
हाँ वत्स ! कोयल से भी मीठा गाओगे तुम !
महर्षि नें आशीर्वाद दिया और चले गए थे ।
संगीत …………..माँ ! संगीत में आनन्द आएगा ……………
फिर बाहर भाग गए थे खेलनें……….मैं मुस्कुराते हुए देखती रही ।
शेष चरित्र कल ….!!!!!
🌹🌹जय श्री राम 🌹🌹
[1Niru Ashra: 🌼🌸🌻🌺🌼🍁🌼🌸🌻🌺🌼
*💫अध्यात्म पथ प्रदर्शक💫*
*भाग - ७१*
*🤝 ३. उपासना 🤝*
_*ईश्वर की प्राप्ति सुलभ है या दुर्लभ*_
जबतक अन्तःकरण में भोगवासना भरी है, तबतक ईश्वर-प्राप्ति की इच्छा ही नहीं होती। यह बात एक विद्वान बहुत ही सरल युक्ति से समझाते हैं, यह देखने-योग्य है।
*वे कहते हैं कि एक मनुष्य के पास एक ही बर्तन है और उसमें उसने छाछ डाल रखी है। सन्ध्या को ग्वाला गाय दुहने आता है और बर्तन माँगता है। अब उस मनुष्य को छाछ भी रखनी है और गाय भी दुहवानी है। पर बर्तन एक ही है फिर क्या किया जाय? छाछ रखकर उसी बर्तन में गाय दुहवाये तो दूध बिगड़ जायगा और यों छाछ भी चली जायगी तथा दूध भी चला जायगा । इसलिये यदि उस आदमी को दूध ही आवश्यक है तो छाछ का मोह छोड़ना चाहिये । भाव यह है कि दूधरूपी ईश्वर की प्राप्ति करनी हो तो संसार के सुख की इच्छारूपी छाछ का पूर्णतया त्याग करना चाहिये; क्योंकि उस बर्तन में यदि छाछ का स्पर्श भी हो जायगा तो दूध दूधरूप में नहीं रह सकेगा। संसार के अधिकांश मनुष्य इसी प्रकार के होते हैं और ईश्वर-प्राप्ति कठिन है- ऐसा व्यर्थ ही शोर मचाते रहते हैं।*
इसी बात को भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में बहुत ही सरस रीति से समझाते हुए कहा है-
*इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।*
*सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥*
*येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।*
*ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥*
(श्रीमद्भागवतगीता /७/२७)
भगवान् कहते हैं कि जबतक मनुष्य के अन्तःकरण में भोग-वासना है, तबतक वह जन्म-मरण के चक्कर में घूमा ही करता है। परंतु पूर्वपुण्य के प्रताप से तथा इस जीवन में सदाचार के सेवन से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वही मनुष्य मेरा भजन करके मुझको प्राप्त करता है। यहाँ भी भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि भोगवासनाओं से दूषित अन्तःकरण जन्म-मरण प्रदान करता है और विशुद्ध यानी वासनारहित अन्तःकरण से मनुष्य को मेरी प्राप्ति होती है। यही बात श्रुति भगवती इस प्रकार कहती है-
*नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।*
*नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥*
अर्थात् जबतक मनुष्य ने अपने अन्तःकरण को निर्मल नहीं किया, जबतक उसका चित्त शान्त न हुआ और जबतक मन भोग की इच्छाओं का ही चिन्तन करता रहता है, तबतक केवल पुस्तकें बाँचने से या चर्चा करने से ही ईश्वर प्राप्ति नहीं हो सकती। अभिप्राय यह है कि अन्त:करण को विषय-प्राप्ति की इच्छा से मुक्त किये बिना ईश्वर-प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।
*इससे यह सिद्ध हो गया कि अधिकारी के लिये अर्थात् जिसमें तीव्र इच्छा है और इसलिये जिसने भोगवासना मात्र का त्याग करके अन्तःकरण को विशुद्ध बना लिया है, इस प्रकार के अधिकारी के लिये ईश्वर-प्राप्ति अति सुलभ है। परंतु जिसने यह अधिकार प्राप्त नहीं किया, अर्थात् जो वासनाओं का त्याग नहीं कर सकता, ऐसे अधिकारी के लिये ईश्वर-प्राप्ति केवल दुर्लभ ही नहीं, बल्कि असम्भव है।* श्रीबोधसार में ठीक ही लिखा है-
*वाङ्मयं खं हि सर्वत्र वाचा मूकस्य दुर्लभम् ।*
*चिन्मयं ब्रह्म सर्वत्र विद्याहीनस्य दुर्लभम् ॥*
तात्पर्य यह है कि शब्द गुणवाला आकाश तो सर्वत्र व्याप्त हो रहा है; तथापि गूँगा मनुष्य एक शब्द भी उच्चारण नहीं कर सकता। उसी प्रकार चैतन्यस्वरूप ब्रह्म भी सर्वत्र व्याप्त हो रहा है, तथापि अधिकार बिना उसका अनुभव साक्षात्कार नहीं होता।
क्रमशः.......✍
*🕉️ श्री राम जय राम जय जय राम 🕉️*
