श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! ओ कपटी ! – “गोपिकागीतम्” !!
भाग 1
तात ! ये प्रेम की उच्चतम अवस्था है !
उफ़ ! गोपियाँ कह रही हैं उस जगवन्दन नन्दनन्दन को…….उस नन्दनन्दन को जिसके आगे शेष महेश दिनेश सब नतमस्तक रहते हैं ।
महालक्ष्मी जिनसे डरकर उनके चरण ही चाँपति रहती हैं……विधाता ब्रह्मा जिसके पुत्र हैं …….ऐसे नन्दनन्दन , जगवन्दन को ये गोपियाँ गाली देती हैं ……….ओ कपटी !
उद्धव के नेत्रों से अश्रु झरनें लगे……..श्याम सुन्दर को वैदिक मन्त्रों से भी ज्यादा प्रिय लग रहे हैं…..इन बृजगोपियों की ये प्रेम भरी गाली ।
उद्धव विदुर जी को ये गोपी गीत सुना रहे हैं ………ये गोपी गीत विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्रेमगीत है ……अद्भुत गीत है ।
साधक की पहली स्थिति होती है ……..धर्म का पालन करना ……तात ! दूसरी पहली से कुछ ऊँची स्थिति होती है …….जहाँ स्वयं ईश्वर मित्रवत् लगता है ……..और वो स्पष्ट कहता हुआ सुनाई देता है …….”सारे धर्म को त्याग मेरी मात्र शरण में आ “
पर उससे भी ऊँची स्थिति है…….जहाँ सत्व गुण भी छूट जाता है…पुण्य भी छूट जाते हैं …..स्वर्ग भी छूट जाता है ……लगता है ……वही है …..सब वही है ………उसके सिवा कुछ नही है ।
पर उससे भी एक उच्च स्थिति है……..”मैं तू हूँ “
उद्धव आनन्दित होकर भाव में बोले ……पर प्रेम में इससे भी एक ऊँची स्थिति होती है ……जिसे ज्ञानी लोग नही समझ पाते ।
वो स्थिति है………”.मैं नही” ……बस “तू”…….सबकुछ उसी कोमल अरुण चरणों में समर्पित ……..पर समर्पित करनें वाला भी मिट जाता है ……..बस वही …..”तू तू …सिर्फ तू” ।
तब ज्ञान को रस का बोध होना शुरू होता है……उफ़ ! क्या स्थिति है ।
उस स्थिति में…….कान्त – सम्मित सम्भाषण जब होता है उस आस्तित्व के साथ….तब प्रेम के पुष्प खिलते हैं……उस पुष्प के सौरभ को देखनें………स्वयं प्रियतम आते हैं ।
तब कहाँ रह जाती है मान मर्यादा ?…..मान मर्यादा तो बहुत पीछे छूट चुकी है तात ! उस समय तो प्रिय सामनें है ……फिर छुप गया है ………ये खेल चलता ही रहता है प्रेमी और प्रियतम के बीच …..ये खेल न हो तो प्रेम का रस कहाँ आएगा ?
उसका वियोग है ………फिर संयोग है ………….
पर वो तो नित्य प्राप्त हैं ……..फिर उनका वियोग कैसा ? विदुर जी नें प्रश्न किया ।
“मैं” आगया ……तो प्रियतम का वियोग हो गया ………”मैं” गया तो प्रियतम का प्राकट्य हो गया……..ये लीला है ……..यही रस है ……इसी रस के समूह को रास कहा जाता है ।
क्रमशः…
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