!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 9 – “नगर का “अद्भुत” कारीगर”)
यत्र राजनगरोपकरणप्रसाधनसाधनं शिल्पीप्रवरोद्भुतो नाम राज्ञा सत्कृत्य निजानुकूला पूर्व नगर निर्माणाया दिष्टस्तथैव तदनुकरोति स्म ।।
अर्थ – अब प्रेम नगर में “अद्भुत” नामके कारीगर को बड़े ही सत्कार पूर्वक रखा गया । वो कारीगर राजा और नगर के निवासियों के लिए सजावट की सामग्रियाँ संग्रह करता है । “अद्भुत” नाम के इस शिल्पी ने प्रेम नगर को ऐसा चमका दिया जैसा राजा चाहता था ।
हे रसिकों ! अब आइये इस “अद्भुत” नामके कारीगर से मिलिये …..
जिसनें प्रेम नगर को चमत्कृत रूप से सजा दिया है ।
“प्रेम में सहज रूप से चमत्कार है”
बताओ – ये “अद्भुत” क्या है ? प्रेम का चमत्कार ही तो अद्भुत है ।
सब बदल जाएगा एकाएक । आहा ! “प्रीतम आगये हैं”…..ये आनंदातिरेक वाक्य आपके कानों में पड़े कि ….सब कुछ बदल गया …अजी , चारों ओर फूल खिल गये ….रस बिखर गया ….संगीत चल पड़ी , कलियाँ मुस्कुराने लगीं …..नदी बलखाने लगी ….चाँद तारे गीत सुनाने लगे ….उस समय कोई भी कुछ भी कहे ….बुरा नही लगता । सब अपने लगते हैं …लगता है सबको गले लगाऊँ …अकारण मुस्कुराना आरम्भ हो जाता है…अकेले में अपने आपसे बतियाना , अकेले में ही शर्माना ….सृष्टि बदल जाती है ….सृष्टि रस से भर जाती है …चारों ओर पक्षी कलरव करने लगते हैं …आनन्द छा जाता है …क्या यही “अद्भुत” कारीगर नही है प्रेम नगर का ?
“प्रीतम नही आयेंगे”…..
लीजिए ये हृदयविदारक वाक्य आपके कानों में पड़ गये ।
ओह ! उसी समय फूल मुरझा गये …सृष्टि रसहीन हो गयी …आनन्द सिन्धु तो तत्क्षण सूख ही गया …उस में रह रहीं मछली तड़फ तड़फ कर मर गयीं । अन्य ऋतुओं ने मुँह मोड़ लिया बस वर्षा आरम्भ हो गयी ….नयनों से वर्षा …..और ये वर्षा ऐसी कि रुकने का नाम नही ले रही …..
उफ़ ! “कंचुकी पट सूखत नहीं कबहूँ , उर बिच बहत पनारे”
सब कुछ बर्बाद हो गया …सब कुछ खतम हो गया ….अब क्या ? संसार अब रहने लायक ही नही रहा …..क्यों की “प्रीतम नही आरहे”।
“आप कुछ भी सुन लेते हो , किसी की भी सुन लेते हो , प्रीतम आरहे हैं” लो ! फिर ये शुभ सूचना दी गयी …..विरह में डूबी वो बेचारी …..उसको तो ऐसा लगा मानौं मृत के ऊपर अमृत का पूरा कलश ही उढ़ेल दिया हो …..अजी ! तत्क्षण आनन्द छा गया …..जो सृष्टि रसहीन हो गयी थी वो रस से भर गयी …फिर संगीत आरम्भ हो चुका था प्रकृति में । क्या कहें !
क्या ये जो “अद्भुत” है , यही चमत्कार नही है प्रेम का ? हे रसिकों ! इस “अद्भुत” का , इस “अद्भुत रस” का , प्रेमियों ने तो अनुभव किया ही है । जब हृदय में प्रेम प्रकट होता तब सब कुछ कैसे सुन्दर से भी सुन्दर लगने लगता है …..यही प्रेम नगर का “अद्भुत” कारीगर है ।
कौन हो ? क्यों आए हो ?
महाभाव स्वरूपा श्रीराधारानी उद्धव से पूछती हैं ।
मैं श्याम सखा हूँ ….उद्धव मेरा नाम है ….श्याम सुन्दर का संदेशा लेकर आया हूँ ।
उद्धव ने कह तो दिया पर ये क्या …एकाएक किशोरी जी तो हंसने लगीं ….हे सखियों ! सुना ! ये क्या कह रहा है ! कह रहा है …संदेशा लाया है …वो भी प्यारे श्याम सुन्दर का ! ये कहकर श्रीराधा रानी अट्टहास करती हैं ….फिर अपने को रोकती हैं …किन्तु उनकी हंसी रुक नही रही ।
कुछ समय लगा …उनकी हंसी रुकी …अति हंसी के कारण उनका मुख कमल तीव्र अरुण हो गया था …फिर उन्होंने उद्धव की ओर देखा …अपनी हंसी इस बार उन्होंने अच्छे से रोक ली थी ।
आप इस तरह क्यों हंस रही हैं ? आप एक सन्देश वाहक की हंसी उड़ा रही हैं ! शायद उद्धव को अच्छा नही लगा था …ये प्रथम भेंट तो थी इस परम ज्ञानी उद्धव की आल्हादिनी श्रीराधा से ।
“परदेश जो गया हो उसका सन्देश होता है ..किन्तु मेरे प्राणनाथ तो कहीं गए ही नही हैं !”
ओह ! श्रीराधारानी ने ये क्या कह दिया !
हाँ , नही गये …सच में नही गये । इतना कहकर ….श्रीराधारानी इधर उधर देखने लगीं ….फिर उठकर एकाएक खड़ी हो गयीं …वो देखो ! वो रहे श्याम सुन्दर ! देखो ! आहा ! कितने सुन्दर लग रहे हैं …उनकी पीताम्बर सुवर्ण की तरह चमक रही है ….वो अनुपम लग हैं ….देखो ! हे श्याम सखा ! देखा तुमने ? वो रहे ….देखो !
उद्धव देख रहे हैं …….किन्तु ।
दिखाई दिये ? वो ! उद्धव ! अब उन्होंने अपने अधरों पर बाँसुरी धर ली है ….हय ! मुझे बुला रहे हैं ….देखो ! देखो ! श्रीराधारानी उन्माद से भर गयी हैं ।
नही , मुझे नही दिखाई दे रहे …..उद्धव ने स्पष्ट कहा ।
अरे ! वो रहे ….श्रीराधा ने जब फिर दिखाया तो …….
उद्धव ! वो चले गये …..अरे ! वो गये …..श्रीराधारानी दौड़ीं …..पर आगे जाकर गिर गयीं ।
उद्धव उनके पास गये …तो वो रो रहीं थीं …..उद्धव ! गलती मेरी है …उन्होंने मुझे कितनी बार कहा है …कि हे राधे ! तुम और हम एक हैं ….हमारी बातें निजता की है किसी को मत बताना ….किसी को मत बताया करो ….पर मैं पगली …..उनकी बात नही मानती …..नही मानीं …और तुमको बता दिया ….अब वो मुझ से रूठ कर चले गये ….हाय ! अब वो पता नही कैसे मानेंगे ….मुझे नही बताना चाहिए था ….वो अकेले में मुझ से मिलने आये थे ….पर तू ?
पर वो तो मथुरा गये हैं ! उद्धव ने ये कह दिया ।
क्या ? नही , तू झूठ बोल रहा है ….कह दे तू झूठ बोल रहा है ….है ना ? मुझे छोड़कर वो कहीं भी नही जा सकते …न जायेंगे …..क्यों जायेंगे ! इस राधा के बिना उनका मन ही नही लगता …वो हर समय …मेरी प्यारी , प्रिये , मेरी सर्वेश्वरी , मेरी प्राणाधार ! मेरी जीवनी ! मेरी हृदयेश्वरी! उद्धव ! वो कहते नही थकते थे ….वो दिन भर , रात में भी मेरे आगे पीछे ही रहते ….अब तू बता वो मुझे छोड़कर कैसे कहीं जा सकते हैं । बोल ।
उद्धव इस “अद्भुत भाव” को देखकर चमत्कृत हैं । ये क्या है ? मौन हो रहे हैं , वो क्या बोलें ।
ये कितना , क्या क्या सोचकर आए थे कि ये ज्ञान दूँगा , या वो योग दूँगा ….पर यहाँ तो कुछ और ही है ….क्षण क्षण में सब कुछ बदल रहा है …ये श्रीराधा कभी हंसती हैं तो दूसरे ही क्षण रोने लग जाती हैं ….ये हो क्या रहा है ?
उद्धव ! तुम सच कह रहे हो …..वो मथुरा चले गये …..श्रीराधा ने अब ये कहा ।
उद्धव चकित हो गये ….अब ये क्या बोल रही हैं ….पर उद्धव चकित क्यों ? ये उद्धव की बात का ही तो अनुमोदन कर रही हैं ना ! उद्धव के अब कुछ समझ में नही आरहा ।
हाय नाथ ! हाय , हाय ….मेरे नाथ मुझे छोड़कर चले गये …उद्धव ! उन्होंने मुझे छोड़ दिया ….तुम सच कह रहे हो ….देखो , सब कुछ जल रहा है इस वृन्दावन में…सब जल गया है ….विरह की दावानल ने सब जला कर ख़ाक कर दिया है उद्धव ! ये कहते हुए श्रीराधारानी मूर्छित होकर गिर गयीं ।
कुछ समय लगा उन्हें वापस जागृत होने में …जब वो जागीं ….तब उद्धव ने जो देखा ……
हंस रही थीं …श्रीराधारानी मुस्कुरा रही थीं …उद्धव ! मेरे कहने से ही श्याम सुन्दर मथुरा गये हैं ….हाँ , सच कह रही हूँ मैं ….इतना कहकर सूनी आँखों से वो शून्य को देखने लगीं थीं ।
मैंने उनको बहुत दुःख दिया उद्धव ! बहुत …अभिमानिनी राधा , गर्व से भरी हुई …काहे का गर्व …मैं सुन्दर भी नही थी ….और वो श्याम सुन्दर , मेरे आगे पीछे …”तुम सुन्दर हो …राधे ! तुम बहुत सुंदर हो”…..कहते फिरते .. मेरे लिए वो क्या नही करते …पर मैं ! जब देखो तब मान करती रहती …एक दिन वो मेरे मान करने के कारण ….पूरी रात्रि इसी यमुना के किनारे बैठे रहे …अपने भवन भी नही गये …रोते रहे पूरी रात …ये कहते हुए श्रीराधा फिर रोने लगीं …उद्धव ! मैं सुबह जब यमुना जल भरने आयी तो वो बैठे रो रहे थे ….ओह ! मेरे कारण ये पूरी रात रोते रहे ? मैंने उनसे हाथ जोड़कर कहा ….हे श्याम सुन्दर ! राधा तुम्हें बहुत दुःख दे रही है ….तुम वृन्दावन से बाहर चले जाओ ….क्या कह रही हो प्यारी ! वो और रोने लगे थे ….हाँ आप को सुख मिलेगा …आप वृन्दावन में रहोगे तो ये राधा आपको दुःख ही देगी …चले जाओ …चले जाओ …
कुछ देर मौन हो गयीं श्रीराधारानी …..फिर बोलीं – हे उद्धव ! इसके बाद मैंने यही कहना आरम्भ कर दिया था …वो जब जब मुझ से मिलते …मैं यही कहती …”मथुरा नगरी चले जाओ”….वो मुझ से कहते ……”हे वृषभान सुते ललिते ! मैंने कौन कियो अपराध तिहारो”
वो नगरी है …वहाँ आपकी सेवा होगी …आप जाओ । राधे ! तुम नही हो वहाँ । “मुझ से सुन्दर सुन्दर नारी हैं वहाँ …नागरी”….आपको सुख मिलेगा प्यारे । जाओ ।
उद्धव ! एक दिन मैं कात्यायनी देवि के सामने खड़ी थी ….वो पीछे से आगये थे …मेरे नयनों को अपने करों से मूँदने वाले थे कि ….मेरी प्रार्थना उन्होंने सुन ली ….मैं कात्यायनी से कह रही थी …हे देवि ! मेरे श्याम सुन्दर को सुख दो …उन्हें मथुरा भेज दो । बस उद्धव ! उन्होंने मेरी बात मान ली ….ये कहकर श्रीराधारानी बहुत रोने लगीं ….हिलकियों से रोने लगीं । वो चले गए …मेरी बात मान कर वो मथुरा चले गये ….ये कहते हुए फिर श्रीराधा ने अपने आँसु पोंछे …पागल हूँ मैं …मैं ही “जाओ” कहती हूँ , और मैं ही रोती हूँ ….फिर हंसने लगीं श्रीराधा , नही , मुझे ख़ुशी है वो अब प्रसन्न होंगे वहाँ ..है ना ? उद्धव ! उनकी सेवा हो रही होगी वहाँ …..ये कहते हुए श्रीराधा के अश्रु अविरल बहने लगे थे …उनके सारे वस्त्र भींज गये थे ..सखियों ने उद्धव को शान्त रहने के लिए कहा । पर उद्धव को कुछ समझ में नही आरहा …कि ये है क्या ?
यही अद्भुत है । यही प्रेम का चमत्कार है …जो क्षण क्षण में अनेक रंगों में दिखाई देता है ।
हे रसिकों ! अनेक रंग, प्रेम नगरी में इस “अद्भुत” नामके कारीगर ने भर दिये थे ।
जो भी देखता वो आश्चर्य से देखता रह जाता ।
आगे अब कल –
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