श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! केशीमर्दन !!
भाग 2
और तुम तो मानव भक्षी अश्व हो …….ग्वालों को चबा जाना ……..कंस इतना बोलकर चला गया था पर जाते जाते बोला…….सावधान ! उस कृष्ण नें हमारे समस्त असुर मित्रों को मारा है …..इसलिये सावधान रहना ! कंस चला गया था ।
और क्रोध में भरकर केशी दौड़ा था वृन्दावन की ओर …….”कृष्ण ! मैं तुझे आज खा जाऊँगा”…….धूल का गुबार नभ तक जा रहा था ।
कन्हैया मुस्कुरा रहे हैं ….सखाओं नें बहुत कहा ………पर अपनें स्थान से हिले नही कन्हैया ।
केशी दौड़ता हुआ आरहा था …..उसकी गति बड़ी तीव्र थी …..लग रहा था जैसे कोई तूफ़ान बढ़ रहा है.. ….बढ़ता हुआ आरहा है ।
केशी नें देखा……..सामनें कृष्ण हैं, वो पहले तो खुश हुआ ……कि चलो अच्छा हुआ …….इसी को मार दूँगा अन्यों को मारना नही पड़ेगा ……पर केशी नें जब ध्यान से देखा ….तो काँप गया …….कि इस बालक को भय नही है…..इतना निर्भय बालक !……….फिर उसे राजा कंस की बात याद आई ……”.इसी कृष्ण नें मेरे समस्त असुर मित्रों को मार दिया है” ।
केशी एक बार तो डरा ………..फिर भी वो दौड़ता रहा …….और जैसे ही पास में आया ………कृष्ण वहाँ से तुरन्त हट गए ।
वो गिरा ………..बहुत बुरी तरह से गिरा केशी ।
सखाओं नें करतल ध्वनि की …………..उन्हें लगा अपनें कन्हैया नें मार दिया है केशी असुर को ………पर तभी – मनसुख चिल्लाया …….कन्हैया ! तेरे पीछे वो केशी घोड़ा……..वो केशी उठकर पीछे से दौड़ता हुआ आरहा था ………मुड़े एकाएक श्रीकृष्ण ……..वो इस बार मुँह खोलकर दौड़ रहा था …………उसनें सोच लिया था कि मैं कृष्ण को खा जाऊँगा …….एक ही बार में चबा जाऊँगा ।
मुड़े श्रीकृष्ण, और केशी के मुँह में अपना हाथ दे दिया………..पर वो श्रीकृष्ण का हाथ तो बढ़ता ही गया ………..उसके उदर में चला गया ………उदर में जाकर उसकी जितनी आँतड़िया थीं उनको खींच कर बाहर एक ही झटके में कन्हैया ले आये थे ………वो केशी चीखता रहा ……..चिल्लाता रहा ……….पर कन्हैया का वो सुकुमार हाथ अपना काम करके ही बाहर आया……..वज्र से भी कठोर और जलते लोहे के समान हो गया था उस समय नन्दनन्दन का हाथ ।
केशी का इस तरह उद्धार किया मेरे श्रीकृष्ण नें ।
उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
अरे ! ये भयानक आवाज कैसे हुई ?
यमुना में जल भर रहीं गोपियों में हलचल मच गयी थी ।
एक गोपी नें टीले में चढ़कर देखा तो दूर खड़े हैं श्यामसुन्दर ……और उनके पास वो केशी असुर मृत पड़ा है ……….गोपी टीले से उतरती हुयी बोली – “केशी को मार दिया है” । किसनें ? दूसरी नें पूछा ।
एक ही तो है जिसमें पौरुषता कूट कूट के भरी है …….अपना साँवरा ।
वो गोपी मटकती बोली ।
“केशीमर्दन”…..चलो ये नाम भी पड़ गया हमारे श्यामसुन्दर का ।
जल की मटकी सिर में रखते हुये एक गोपी बोली……अरी वीर ! “हमारे केशी” का कब मर्दन करेगा वो नटवर !
तेरा कौन सा केशी है ? सब गोपियाँ हँसी ।
मैने सब देख लिया है……केशी घोड़े का मर्दन किया है श्रीकृष्ण नें और सखी ! घोड़ा मानें इन्द्रियाँ………मैने एक बार देवर्षि नारद जी से सुना था…….गोपी बोलती है…….हम भी चलीं थीं अपनी इन्द्रियों से अपनें प्यारे को चलानें ……पर असफल हुयीं …….अब तो ऐसी कृपा हो उनकी …..कि वही हमारे इन्द्रियों को चलायें ……हमारी इन्द्रियों को मथें, मर्दन करें……..हमारी इन्द्रियों को अपनें वश में करके………..
वो गोपी बोलती जा रही है ……….और अपनें घर की ओर बढ़ती जा रही है उसके पीछे सारी गोपियाँ हैं ……..वो सब इस गोपी की बातों को ऐसे सुन रही हैं जैसे वटु ब्रह्मचारी वेद वाक्यों को सुनते हैं ।
सखी ! “केशीमर्दन”.
…..हम चलाएंगे अपनी इन्द्रियों को तो अपना स्वार्थ साधेंगे, पर प्रियतम चलाएंगे तो उनका स्वार्थ सधेगा…..और सखी ! हमारे स्वार्थ की अपेक्षा उनका स्वार्थ सधे इसी में हम सबका कल्याण है ।
इस प्रकार चर्चा करते हुये गोपियाँ अपनें अपनें घरों में आ गयीं थीं ।
*शेष चरित्र कल –
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