श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! अक्रूर का मनो – रथ !!
भाग 2
रथ से उतरे ………क्यों की अब रथ में चलनें का कोई अर्थ नही था ……..और उतरते ही साष्टांग लेट गए धरती में ………..
चरण चिन्ह बने थे श्रीकृष्ण चन्द्र जू के ।
अक्रूर के नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं ………..अश्वों नें चलना छोड़ दिया है ……..और अश्व चलें भी कैसे !
अक्रूर रज में लोटनें लगे थे ………….रज को अपनें मस्तक से लगाते हैं ………काजल बनाकर अपनें नयनों में लगाते हैं ……..रज ही रज सम्पूर्ण शरीर में लपेट लेते हैं ………….वो इतना करके जैसे ही उठते हैं …………ओह ! यहाँ तो चारों ओर चरण चिन्ह हैं मेरे श्रीकृष्ण के !
वो फिर लोट जाते हैं …………..चरण चिन्हों को ध्यान से देखते हैं …..शंख, चक्र, गदा, कमल , यव आदि चिन्ह बने हुये हैं ।
उद्धव कहते हैं – तात ! भगवान के चरण चिन्ह मिटते नही हैं ……..साधारण मानवी के चिन्ह मिट जाते हैं ……..पर ।
दूर नही है मथुरा से वृन्दावन ……पर प्रातः निकले अक्रूर पहुँचे हैं सन्ध्या को…….जब सूर्यास्त होनें जा रहा था ।
चलो अब ! सूर्यास्त होनें जा रहा है ………….अपनें सखाओं से श्रीकृष्ण नें कहा ।
पर आज पता नही क्यों सब उदास हैं ……..आज कोई खेला भी नही है ……..माखन भी जैसा मैया यशोदा नें दिया था वैसा ही है ……किसी का मन नही किया खानें का ………क्यों ? यही तो किसी को पता नही चल रहा ……क्यों ?
ओये ! चलना नही है क्या घरों में …. ..या यहीं ऐसे ही मुँह लटकाये बैठे रहोगे …..वैसे आज तुम में से कोई खेला नही………कन्हैया बोले थे ।
मन नही कर रहा कन्हैया !…….कुछ भी करनें का ………
देख ना ! तू ही देख ……..वृन्दावन की अधिदैव “वृन्दादेवी” भी दुःखी हैं ……तुझे नही लगता ? आज पहले जैसा न उमंग है न उत्साह ।
सखाओं नें सुस्त मनःस्थिति से कहा ।
क्यों ? कन्हैया का ये प्रश्न व्यर्थ है ……क्यों की प्रेमियों का हृदय बता देता है कि “उसका प्रिय अब कहीं दूर जानें वाला है” ।
तभी – सामनें से कोई तेजस्वी पुरुष बृज रज को प्रणाम करते हुये चला आरहा है . ………लाला ! ये क्या है ? ये कौन है ?
दूर से देखनें पर कुछ समझ में नही आया कन्हैया के…….जब निकट गये तो प्रसन्न हो गए ।
काका , काका जी ! कन्हैया चिल्ला उठे थे ।
*शेष चरित्र कल –
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