श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! उद्धव की प्रेम दीक्षा – “उद्धव प्रसंग 26” !!
भाग 2
हे हरिप्रिये ! आप इस तरह विलाप न करें ……..आप इस तरह अपनें आपको कष्ट न दें ……न रोयें ………आप ऐसा कतई न समझें कि श्रीकृष्ण आपको भूल गए हैं ……..या वो आपको स्मरण ही नही करते ……हे कृष्ण प्रिये ! उनके सामनें आपका कोई नाम भी ले लेता है ना तो वो बिलख उठते हैं ………कभी कभी तो देह भान भुलाकर, हा राधा ! हा राधा ! पुकारनें लगते हैं ……..हे स्वामिनी ! मैं आपके सामनें झूठ नही कहूँगा ……….वो आपका स्मरण करते ही अलग ही हो जाते हैं मथुरा के वो कहीं से नही लगते ……….वो विशुद्ध वनवासी होकर यमुना के किनारे किनारे चलते रहते हैं और आपका नाम पुकारते रहते हैं । हे सर्वेश्वरी ! माता देवकी भोजन देती है तो उनसे वो भोजन नही किया जाता ……..नींद नही आती उन्हें ……आपका स्मरण करके कहते हैं……मेरी राधा कैसी होगी ? मेरी राधा मेरे बिना कैसे रहती होगी ।
मैं ठीक हूँ उद्धव ! जाकर कह देना मेरे प्रियतम को !
ये क्या हो गया था ओह ! गम्भीर हो गयी थीं श्रीराधारानी तो ।
मैं ठीक हूँ ना ! देखो ! अच्छे से देखो उद्धव ! मैं प्रसन्न हूँ …….अब जाकर अपनें सखा से यही कहोगे तुम कि उनकी राधा खुश है ।
मैं कुछ समझ नही पाया था कि ये क्या कह रही थीं ?
शान्त हो गयीं श्रीराधारानी………मेरी ओर उन्होंने देखा……..उद्धव ! तुम इस प्रेम मार्ग में नये आये हो ………इसलिये तुम्हे क्या कहना है क्या नही कहना इसका भान भी नही है ……क्या सोचकर इतना सब बोल गए तुम ?
क्या सोचा था तुमनें कि श्रीकृष्ण मेरे लिये बिलखते हैं…..भोजन नींद उन्होंने मेरे लिये छोड़ दिया है …..ये सब मैं कहूँगा तो राधा खुश होगी ?
क्या सोचकर तुम ये सब बोल गए उद्धव ! कि श्रीकृष्ण मेरा नाम लेते ही सब कुछ छोड़कर यमुना के किनारे दौड़ पड़ते हैं ?
ये सब मुझे प्रसन्न करनें के लिये तुमनें कहा ………पर तुम प्रेम के सिद्धान्त को समझ नही सके……..प्रेम , अपनें प्रियतम को दुःखी देखकर कभी प्रसन्न नही होता …….उद्धव ! प्रेम तो वो है कि हमें भले ही लाखों दुःख कष्ट मिलें पर हमारे प्रियतम को कुछ न हो…….हमें भले ही कुछ भी हो …….पर मेरे प्रियतम सुखी रहें ।
वो न आएं यहाँ …….कभी न आएं …….पर जहाँ भी रहें सुखी रहें ।
श्रीराधारानी के वाक्य थे ये ।
उद्धव ! एक बात सुनो ! मत कहना प्रियतम को कि राधा दुःखी है ……
तात ! ये वाक्य श्रीजी के मुखारविन्द से जैसे ही मैने सुनें …….मैं हिलकियों से रो पड़ा ……ऐसा प्रेम ! मैनें कल्पना भी नही की थी ।
कहना राधा प्रसन्न है ……कहना बरसाना में राधा खुश है ……..प्यारे ! आप खुश रहो बस ! आपकी ख़ुशी में ही हम सबकी ख़ुशी है ।
ये कहते हुए श्रीराधारानी शून्य में तांकनें लगी थीं ………..अन्य सब गोपियों रोनें लगीं थीं ……….ललिता सखी नें सम्भाला श्रीजी को ।
पर तात ! उसी समय मैने श्रीराधारानी की चरण धूल अपनें माथे से लगा लिया …………..और नयनों को मूंद कर उन्हें अपना गुरु मान लिया ……….प्रेम की दीक्षा मुझे मिल गयी थी श्रीराधारानी से ।
प्रियतम के सुख में सुखी रहना ………….आह ! क्या दिव्यता थी इस प्रेम की ……..स्वयं का कोई अर्थ नही है ………बस तू खुश रहे !
मैं पूरी रात कभी रोता कभी हंसता कभी प्रेमोन्मत्त होकर नाचता ….कभी वहाँ की लताओं से बतियाता ……….बरसानें में मेरी इस तरह पूरी रात बीती थी …………..उफ़ !
शेष चरित्र कल-


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