श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! सत्यभामा मंगल – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 22” !!
भाग 1
लौट आये थे श्रीकृष्ण अपनी द्वारिका में ……….जाम्बवती का स्वागत आगे बढ़कर महारानी रुक्मणी नें ही किया था ………महल में स्वयं ले गयीं थीं रुक्मणी जाम्बवती को ………पर श्रीकृष्ण अब सीधे अपनी सुधर्मा सभा में पहुँचे ………….और अपनें सैनिकों को आदेश दिया की सत्राजित को शीघ्र सभा में लेकर आओ ……….सैनिक गए और सत्राजित को ले आये थे ।
“ये रही स्यमन्तक मणि” ……..समस्त सभासदों और महाराज उग्रसेन के सामनें श्रीकृष्ण नें सत्राजित को वो मणि दे दी ……..सत्राजित सिर झुकाकर खड़ा रहा……….
हे सत्राजित ! तुमनें मेरे ऊपर जो कलंक लगाया वो मिथ्या था ……..प्रसेन को सिंह नें मारा और सिंह को जाम्बवान नें, मणि जाम्बवान के पास थी…….इसका प्रणाम ये सब लोग हैं ……..जो जो वहाँ गए थे उन सबको इंगित करते हुए श्रीकृष्ण बोले ।
मुझे नही चाहिये तुम्हारी मणि …..न मेरे राजकोष को कोई लोभ है इस मणि से ……मैं तो बस सहज ही बोला था किन्तु !
ले जाओ अपनी स्यमन्तक मणि ……श्रीकृष्ण नें सत्राजित को अब सभा से जानें के लिये कहा ।
सिर झुकाये सत्राजित चला गया वहाँ से ।
दण्डित क्यों नही किया इस दुष्ट सत्राजित को ?
हाँ, हाँ इसे तो दण्ड मिलना ही चाहिये …………अक्रूर नें भी हाँ में हाँ मिलाई जब सब सभासद एक स्वर में बोले तब ।
नही , जानें दो ……….मानवीय स्वभाव के अनुसार सत्राजित बोला था मैने मणि मांगी थी…….और उसके साथ ऐसी दुर्घटना हुयी …..श्रीकृष्ण बोले …….उस बेचारे नें अपना भाई भी तो खोया है ।
सत्राजित सभा से बाहर तो आगया था किन्तु सभा की चर्चा उसनें सुन ली थी ….श्रीकृष्ण के प्रति उसके मन अपार श्रद्धा का जन्म हो चुका था ।
देवी ! मुझ से बहुत बड़ा अपराध हो गया …श्रीकृष्ण जैसे महान व्यक्तित्व के लिये मैने ऐसा सोचा ! कलंक लगाया ! मेरे भाई को मारा मणि के लिये ये सब कहा मैने , आह ! उनके मन में लोभ आएगा इस मणि के प्रति ? वो तो श्रीकृष्ण हैं ….इन्द्रासन भी उनके लिये तुच्छ है ! सत्राजित अपनी पत्नी से बोले जा रहा था ।
पर मुझ से अपराध हो गया उसी अपराध के कारण मेरा भाई काल का ग्रास बना ……..मैने कलंक लगाया श्रीकृष्ण के ऊपर !
नेत्रों से जल गिरनें लगे थे सत्राजित के ।
देवी ! मुझे ये मणि लौटा दी श्रीकृष्ण नें…….और मैं सुन रहा था – अक्रूर नें मुझे दण्ड देंने के लिये कहा तो श्रीकृष्ण नें मेरा अपराध ही नही माना……सहज मानवीय स्वभाव कहकर उन्होंने मुझे निर्दोष कह दिया ……..और मैं ? सत्राजित को ग्लानि हो रही थी ।
मैं क्या करूँ ? देवी ! मेरा साथ दोगी ?
हाँ , हाँ कहिये ! पत्नी नें कहा ।
ये स्यमन्तक मणि मेरे लिये अब बोझ है ……….मैं श्रीकृष्ण को ही सौंपना चाहता हूँ …..किन्तु ! देवी ! अपनी लाड़ली सत्यभामा का हाथ हम श्रीकृष्ण के हाथों में दे दें तो !
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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