श्रीकृष्णचरितामृतम
पौंड्रक मुक्त हुआ ! “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम 44”
भाग 2
मुझे क्या आपत्ति होती ….अपने सारथी दारूक को बुलाया श्रीकृष्ण नें मुझे अपने साथ रखा और चल पड़े थे पौंड्रक के राज्य की ओर ।
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गुप्तचरों ने सूचना दी पौंड्रक को कि कृष्ण आ रहे हैं ।
बस फिर क्या था उसनें अपने भक्तों की भीड़ जुटानी शुरू कर दी आकाश में यंत्र से बना गरुड़ लेकर वो घूमनें लगा उसके चार हाथ मानों प्रकट हो गए थे उनमें गदा, कमल , शंख और चक्र, चक्र बड़ी तीव्रता से घूमनें लगा था …..नीचे मैं और श्रीकृष्ण जो रथ में बैठे थे ….दारुक सारथी थे …..और ऊपर पौंड्रक यंत्र का एक गरुड़ बनाकर नभ में घूम रहा था ….श्रीकृष्ण हंसे, खूब हंसे बोले – उद्धव ! ये तो मेरे जैसा ही है …..मैंने भी एक विनोद किया – असली ये है नाथ ! आप तो नकली हो , श्रीकृष्ण गम्भीर हो गए थे आकाश में उड़ते पौंड्रक को देखकर उनके मन में करुणा जाग गयी थी मुझ से बोले – उद्धव ! इसने मेरा कितना गहरा चिंतन किया होगा ना ! मुझ हर सोचता होगा ना ! हाँ नाथ ! मैंने उस समय करुणा निधान को करुणा बरसाते हुए देखा ।
तात ! मेरे श्रीकृष्ण उसी समय चतुर्भुज हो गए थे …..चारों भुजाओं में आयुध भी प्रकट हो चुके थे सुदर्शन चक्र अग्नि की ज्वाला फेंकते हुए घूम रहे थे पौंड्रक का चक्र तो दिखावे के लिये ही मात्र था भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र चला पौंड्रक चिल्लाया – कृष्ण कृष्ण कृष्ण
उसका मस्तक कट गया था चक्र से …..तभी मैंने देखा पौंड्रक की आत्मज्योति उसके देह से निकल कर श्रीकृष्ण चरणों में लीन हो गयी थी ……..मुक्ति मिल गयी थी पौंड्रक को ।
धन्य पौंड्रक ! धन्य ! मैं बोल उठा था तात ! उद्धव नें विदुर जी को कहा ।
शेष चरित्र कल –


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