श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! श्रीकृष्ण का गृहस्थ जीवन – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 45 !!
भाग 1
श्रीकृष्ण सानंद द्वारिका में इन दिनों विराजमान हैं ……तात ! गृहस्थ को अपना जीवन कैसे बिताना चाहिए कैसे सहजता से परिवार के साथ सामंजस्य बिठा कर अपने लक्ष्य की बढ़ते रहना चाहिए ये बात श्रीकृष्ण हमें अपने गृहस्थ जीवन से शिक्षा देते हैं , उद्धव नें विदुर जी को ये बात बताई ।
उस दिन देवर्षि नारद भ्रमण करते हुए द्वारिका में आए थे ….वैसे तो नारद जी द्वारिका में आते रहते थे पर आज कुछ और ही सोचकर आए ।
द्वारिकाधीश गृहस्थ में रहते कैसे होंगे ! सोलह हजार एक सौ आठ ….इन सबके साथ रहना और मुस्कुरा के रहना ! देवर्षि सोचने लगे ठीक है श्रीकृष्ण भगवान हैं पर लीला तो मानवी के लिये ही हो रही है ना , इसलिए वो क्या आदर्श प्रस्तुत करते हैं देखा जाए ।
देवर्षि यही सोचते हुए आज द्वारिका में आगए थे …..मन में ये भी था कि कैसे सोलह हज़ारों के साथ सामंजस्य बिठाते होंगे ……इस जगत में तो लोग एक पत्नी को नहीं सम्भाल पाते …..देवर्षि हंस पड़े और सबसे पहले रुक्मणी जी के महल में ही गए ।
देवर्षि !
उठ गए थे श्रीकृष्ण नारद जी को देखते ही , और नारद जी को एक दिव्य आसन में बिठाया था ।
ना श्रीकृष्ण कुछ बोले ना रुक्मणी बोलीं , बस चरण वन्दना करी और कुछ भोग लगाया नारद जी को , भोग में चार लड्डू दिए ……बिना कुछ बोले नारद जी भी लड्डू खा लिए और वहाँ से निकल गए थे …..अब जाम्बवती के महल में गए पर आश्चर्य ! श्रीकृष्ण वहाँ पर भी बैठे हैं ….देवर्षि ! फिर उठे श्रीकृष्ण , चरण वन्दना किए और फिर चार लड्डू भोग में ….नारद जी नें लड्डू बड़े प्रेम से खाए और तीसरे रानी के महल में चले गए वहाँ भी श्रीकृष्ण, और वहाँ भी लड्डू ….
ओह ! तो इसका मतलव श्रीकृष्ण हर महल में हैं ……और मुझे इन महलों में जाकर उनके दर्शन करनें पड़ेंगे , नारद जी विचार करते हैं महल में जानें में तो मुझे कोई आपत्ति नहीं किंतु , लड्डू !
सोलह हजार एक सौ आठ महलों में चार चार लड्डू खाए तो ….नारद जी हंसते हैं …..फिर विचार करके कहते हैं – क्यों न सूक्ष्म रूप धारण करके मैं श्रीकृष्ण के गृहस्थ जीवन का दर्शन करूँ ,येसा विचार कर नारद जी सूक्ष्म रूप से द्वारिकाधीश के ग्राह्स्थ का दर्शन करने लगे थे ।
ब्रह्ममुहूर्त का समय हो गया है, श्रीकृष्ण उठे हैं और उठ कर वहीं पर शान्त भाव से बैठ गए हैं …… ये ध्यान कर रहे हैं उनकी मुद्रा शान्तमुद्रा है पर , देवर्षि विचार करते हैं ….ये ध्यान किसका कर रहे हैं ! श्रीकृष्ण तो स्वयम् सच्चिदानन्द हैं !
अब आगे महल की ओर बढ़ रहे हैं देवर्षि …..उन्हें इस बात का उत्तर नहीं मिला है कि श्री कृष्ण ध्यान किसका कर रहे हैं ।
अद्भुत ! ध्यान से उठ गए हैं श्रीकृष्ण और धरती को प्रणाम करके गोमती नदी में स्नान के लिये चले गए हैं …….नारद जी इस झांकी का आनंदित होकर दर्शन कर रहे हैं …स्नान करके अपने दिव्य अंग को पौंछते हैं …….नारद जी के आनन्द का ठिकाना नहीं हैं सूर्योदय होने वाला है , नदी में ही खड़े हैं वासुदेव अब उन्होंने सूर्य को अर्घ्य देना शुरू किया है नारद जी को लग रहा था मानों सूर्य भी आनंदित हो रहे हों और हों क्यों नहीं जामाता भी तो हैं ये श्रीकृष्ण ।
अहो ! अब श्रीकृष्ण गायत्री का जाप कर रहे हैं गोमती में ही खड़े होकर ….नारद जी दर्शन कर रहे हैं , नारद जी इस झाँकी का अपलक दर्शन करते हुए आनन्द ले रहे हैं …..अब कहाँ जा रहे हैं श्रीकृष्ण, नारद जी पीछे चल दिए थे …….ये तो वसुदेव और माता देवकी का महल है ….थोड़ी तेज चाल से चलनें लगे थे नारद जी , भगवान श्रीकृष्ण गए अपने माता पिता के महल में और जाकर सीधे उनके चरणों में अपने मस्तक को रख दिया था …..ये नित्य करना आवश्यक है क्या ! देवकी माता नें गदगद स्वर में कहा … माता ! इतनी भी क्या कृपणता अपनें पवित्र कर तो पुत्र से मस्तक में रख दीजिए , माता देवकी और पिता वसुदेव जी आशीष देते हैं ……..श्रीकृष्ण अब वहाँ से निकल गए हैं अपनें महल में गए , किसी एक महल में ? नहीं प्रत्येक महल में एक साथ …..ये सम्भव है ? पूछते हैं विदुर जी , हंसते हुए उद्धव कहते हैं इनके लिये असम्भव क्या है तात !
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –


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