श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! श्रीकृष्ण का गृहस्थ जीवन – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 45 !!
भाग 2
अहो ! अब श्रीकृष्ण गायत्री का जाप कर रहे हैं गोमती में ही खड़े होकर ….नारद जी दर्शन कर रहे हैं , नारद जी इस झाँकी का अपलक दर्शन करते हुए आनन्द ले रहे हैं …..अब कहाँ जा रहे हैं श्रीकृष्ण, नारद जी पीछे चल दिए थे …….ये तो वसुदेव और माता देवकी का महल है ….थोड़ी तेज चाल से चलनें लगे थे नारद जी , भगवान श्रीकृष्ण गए अपने माता पिता के महल में और जाकर सीधे उनके चरणों में अपने मस्तक को रख दिया था …..ये नित्य करना आवश्यक है क्या ! देवकी माता नें गदगद स्वर में कहा … माता ! इतनी भी क्या कृपणता अपनें पवित्र कर तो पुत्र से मस्तक में रख दीजिए , माता देवकी और पिता वसुदेव जी आशीष देते हैं ……..श्रीकृष्ण अब वहाँ से निकल गए हैं अपनें महल में गए , किसी एक महल में ? नहीं प्रत्येक महल में एक साथ …..ये सम्भव है ? पूछते हैं विदुर जी , हंसते हुए उद्धव कहते हैं इनके लिये असम्भव क्या है तात !
ये सोलह हजार महल से सोलह हजार रूपों से निकलते हैं और प्रवेश करते हैं, किंतु बाहर आते ही एक हो जाते हैं – उद्धव नें गदगद स्वर में कहा ।
बालभोग कर रहे हैं अब श्रीकृष्ण …….बाहर दारुक सारथी खड़ा है श्रीकृष्ण का ये अपना सारथी है गरुड़ध्वज रथ बाहर तैयार है उस रथ में चार घोड़े जुते हुए हैं वायु गति से चलने वाले ये घोड़े हैं …..तात ! आप तो जानते ही हैं उन श्रीकृष्ण के अश्वों का नाम , फिर भी सुन लीजिए श्रीकृष्ण के अश्वों का नाम सुनने से भी मंगल होता है ।
शेव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प, बलाह ……ये अश्व अद्भुत थे श्रीकृष्ण के प्रिय थे।
बालभोग करके श्रीकृष्ण बाहर आगये दारुक ने झुककर उन्हें प्रणाम किया तो श्रीकृष्ण मुस्कुराकर रथ में बैठे , और रथ चल पड़ा था ……
“सुधर्मा सभा” ये श्रीकृष्ण की सभा का नाम था इस सभा में हज़ारों क्या लाखों लोग भी आराम से बैठ सकते थे गर्मी में गर्मी नहीं लगती थी और शीतकाल में शीत का प्रकोप कभी होता नहीं था……नारद जी अब उस सभा में पहुँच गए थे श्रीकृष्ण का रथ सभा के मुख्य द्वार पर ही जाकर रुका था …..रथ से उतरकर सभा की ओर चल पड़े थे श्रीकृष्ण ।
उस सभा में कौन नहीं आता था मानवों की समस्या तो थी ही और उसका निराकरण भी द्वारिकाधीश करते ही थे पर देवता लोग भी समय समय पर आते रहते थे ।
श्रीकृष्ण की विशेषता ये थी कि वे सेवकों की समस्याएँ पहले सुनते थे गरीब विपन्न इन्हीं की पुकार को श्रीकृष्ण नें सदैव महत्व दिया था ।
नारद जी नें ये झांकी भी देख ली थी वो गदगद हो रहे थे …..साँझ से पूर्व ही सभा को विश्राम दिया गया …रथ में विराजमान होकर अपने महल की ओर चल पड़े थे श्रीकृष्ण …नारद जी पीछे पीछे चल रहे हैं ।
नारद जी हंसे – महल में पहुँचते ही श्रीकृष्ण को उनकी रानियों नें आलिंगन किया था श्रीकृष्ण बस मुस्कुराए थे …..जल पान किया और अपनी रानियों के साथ बैठ गये, बैठे कुछ समय के लिये ही फिर समुद्र किनारे भ्रमण करनें के लिए निकल गए थे ….तात ! ये सौभाग्य मुझे मिला मेरे नाथ शाम के समय मेरे साथ समुद्र के किनारे भ्रमण करते थे ….उद्धव ये कहते हुए भाव विभोर हो गए थे ।
आते हैं फिर अपनें महल में अपनी रानियों से हास परिहास करते हैं ….वो छेड़ती हैं तो ये भी उन्हें छेड़ते हैं उसी समय रात्रि का भोजन आजाता हैं सानंद बैठ कर भोजन करते हैं द्वारकेश , तनाव में चिंता में नहीं प्रसन्न मन से भोजन करते हैं श्रीकृष्ण ।
पुत्रों के साथ बैठते हैं उनको शिक्षा देते हैं , आहा ! क्या शिक्षा देते हैं …..नारद जी गदगद हो रहे हैं – हे पुत्रों ! कभी किसी का हृदय मत दुखाना कभी किसी के धन को छल से कपट से पानें का प्रयास मत करना …..आलस्य मनुष्य का शत्रु है इसलिए आलस्य से दूर रहना …।
पुत्र उपदेश सुनते हैं फिर चरण वंदन करके चले जाते हैं ।
रानी प्रतीक्षा में हैं वो अपनों भुवन सुंदर पति को अपनी बाहों में भरना चाहती हैं …..
श्रीकृष्ण उनकी समस्त इच्छाओं को पूर्ण करते हैं किंतु ! किंतु क्या ?
किन्तु स्वयं इन अब से विरक्त रहते हैं …मैंने स्वयं देखा रानियाँ कैसे लुभानें का प्रयास करती पर ये तनिक भी विचलित भी होते थे । तभी तो “आत्माराम” हैं ओह ! अब समझ में आया ये ब्रह्ममुहूर्त में अपना ही ध्यान करते हैं , नारद जी अब आनंदित हो गए थे ।
देवर्षि आप ! कब आए ? श्रीकृष्ण के महल में मैं समस्त लीलाओं को देखकर जब गया तब मुझ से द्वारिकाधीश ने पूछा था …. मैं हंसा ….छ महिनें से आपकी द्वारिका में ही हूँ । नाथ ! आपकी लीला अद्भुत है ।
भगवान वासुदेव बस नारद जी को देखकर मुस्कुराए थे।
शेष चरित्र कल –


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