श्रीकृष्णचरितामृतम्
!!”द्वारिका ते पत्र आयो है” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 58 !!
भाग 2
जीजी ! वो बोला , मेरा वृन्दावन ! मेरे वृन्दावन के लोग ओह ! कितने निस्वार्थ ! जलता है मेरा हृदय यहाँ के येसे लोगों को देखकर ,
कन्हैया ! तो हो आ ना वृन्दावन ! मिल आना अपने लोगों से ।
पत्र देकर चले गए थे वो द्वारिका के दूत , पत्र मनसुख पढ़कर सुना रहा था , पूरा वृन्दावन ही इकट्ठा हो गया और पूर्ण तन्मयता से सुन रहा था रोहिणी माता का ये पत्र ।
जीजी ! इस बात पर कन्हैया कुछ नही बोला । ये सुनते हुये मैया यशोदा रो पड़ी थीं ।
जीजी ! बात ये है कि आर्यपुत्र की भगिनी कुन्ती जी, आप ने शायद नाम तो सुना होगा , उनके ही पुत्र पाण्डव , उनको लेकर इन दिनों अपना कन्हैया परेशान रहता है , वैसे उन लोगों के साथ बहुत ग़लत हुआ , जुआ में हस्तिनापुर के युवराज दुर्योधन से सब कुछ हार गए । उन लोगों को बारह वर्ष का वनवास मिला है और एक वर्ष का अज्ञातवास ।
“जुआ खेलोगे तो ये सब तो होगा ही” , कन्हैया की मैया है ये जो है , बोलती है ।
“ जुआ खेलने वाला भला कभी जीता है मैया “ मनसुख पत्र को हाथ में रखकर अपनी समीक्षा दे रहा है ।
फिर आगे पढ़ने लगा था पत्र मनसुख ,
जीजी ! चार दिन पहले की ही बात है , दाऊ उलझ गया था कन्हैया से सभा में , कन्हैया की बहन है ना सुभद्रा उसका विवाह तो करवा दिया था अर्जुन के साथ अपने ही लाला ने , उसका एक पुत्र है छोटा है जीजी ! बड़ा प्यारा है अपने कन्हैया जैसा ही है , मामा , मामा कहता फिरता है अपने कन्हैया से । पाण्डव तो चले गए वनवास के लिए द्रौपदी के साथ , सुभद्रा को द्वारिका में छुड़वा दिया , अभिमन्यु , सुभद्रा का बालक वो यहीं हैं ।
जीजी ! बात इतनी है ना की पत्र में आही नही सकती , जब मिलेंगे तो सारी बातें बताऊँगी ।
जीजी ! दाऊ और कन्हैया का झगड़ा इसलिए हुआ था कि दाऊ का कहना था जब इन्द्रप्रस्थ धृतराष्ट्र ने लौटा दिया और फिर ये पाण्डव जुआ खेले, हारे , तब वनवास गए ।
पर इन्द्रप्रस्थ तो पाण्डवों का रहा ही ना , तो उसमें क्यों न सुभद्रा के पुत्र बालक अभिमन्यु को राजा बनाकर बैठा देते ! अपनी बहन और भांजे को द्वारिका में लाकर रखने का क्या औचित्य था ।
पर अपना कन्हैया कहता रहा – युद्ध के बिना अब कोई चारा नही है दाऊ !
बात ये है कि दुर्योधन को अपनी बहन देना चाहता था दाऊ , किन्तु कन्हैया ने अर्जुन को दे दिया , क्यों की सुभद्रा अर्जुन कुँ चाहती , इसलिए लिए अर्जुन को दे दिया सुभद्रा , दिया क्या जीजी ! भगवा दिया । ये सुनते ही यशोदा मैया हंसी ।
मनसुख भी बोला , वाह रे तू तो बड़ो ऊँचो प्रेमी है कन्हैया , अपनी बहन कुँ भगवाए दियो ।
ये मनसुख है , ये अपने सखा को कुछ भी बोल सकता है ।
जीजी ! कहाँ तक लिखूँ , अब पतो नाँय आगे कहा होयगो , मुझे तो कन्हैया की ही चिन्ता लगी रहती है , बाकी सब ठीक हैं , हाँ एक सुखद सूचना , जरासन्ध कुँ भी कन्हैया ने मरवाय दियो है अब मथुरा या बृज में आतंक तो होयगो नही ? बाकी जीजी सब कुशल हैं , लाला की चिन्ता ज़्यादा मत करो मैं हूँ यहाँ , शेष सबन कुँ प्रणाम ! ब्रजराज बाबा कुँ ढोग।
रोहिणी ।
तात ! लम्बी साँस ली पत्र पढ़कर मनसुख ने और पत्र सुनकर गोपिन ने ।
मैया यशोदा तो भूत काल में ही खो गयीं थीं , कन्हैया ! कंस को आतंक ही बढ़िया हो , तू तो हो ना हमारे पास , पर या जरासन्ध की स्वतन्त्रता ते कहा करनों , लाला , अब तू तो है नाँय !
मैया का अपना वात्सल्य भाव राज्य है उसे सामान्य व्यक्ति क्या समझे !
पाण्डव इतना दुःख क्यो देते हैं अपने कन्हैया को ? श्रीदामा बोल उठा था ।
स्वार्थी हैं , केवल अपना दुःख ही दिखाई देता है उन लोगों को , रोहिणी माता ने पत्र के प्रारम्भ में ही नही लिखा , निस्वार्थ प्रेम की कमी है वहाँ , मनसुख बोला था ।
शेष चरित्र कल-
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